कांग्रेस ने देश को भटकाया, इस भटकाव को समाप्त करना होगा

-अशोक सिंहल

आज हमारे सामने यह बड़ा प्रश्न खड़ा है कि देश कहाँ भटक गया है और क्यों भटक गया है? इसका समाधान हमें ढूँढ़ना पड़ेगा। प्राचीन काल में बडे़-बडे़ ॠषि महात्मा राज्यकर्ताओं का उचित मार्गदर्शन किया करते थे तथा हमारे ऋषियों को अतीत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों दिखाई देता था, जिसके आधार पर वे सही मार्गदर्शन करने में समर्थ थे।

इस परम्परा को हमारे यहाँ सिद्धपरम्परा कहा गया है, लेकिन जिनको अतीत, वर्तमान एवं भविष्य दिखलायी नहीं पड़ता और वे निर्णय लेते हैं तथा मार्गदर्शन करते हैं तो इस परम्परा को अन्धपरम्परा कहा गया है। हमारा देश हमेशा से सिद्धपरम्परा के मार्ग दर्शन पर चलता रहा है और यही इसकी विशेषता रही है।

यह विषय बार-बार आता है कि हमारी पहचान क्या है और वास्तव में हमारे भटकाव का जो मुख्य कारण है वह यही है कि हमें हमारी पहचान का तथा यहाँ रहने वाले समाज की पहचान का सही बोध नहीं हो पा रहा है।

मेरा यह मानना है कि जिस दिन से कांग्रेस का जन्म हुआ उसी दिन से भटकाव प्रारम्भ हो गया, क्योंकि कांग्रेस को जन्म देने वाले एक ब्रिटिश कलेक्टर ए.ओ. ह्यूम थे, जिन्होंने भारतीय लोगों के लिए एक ऐसी कांग्रेस बनायी जिसके सदस्य भारत में आक्रमणकारी बनकर आये लोग भी बन सकते थे। ए.ओ. ह्यूम स्वयं उसके सदस्य थे तथा उन्होंने यह विचारधारा प्रस्तुत की कि हिन्दू और यहां आये हुये मुसलमान तथा अंग्रेज भी इसके सदस्य बन सकते हैं, क्योंकि इन सभी को मिलाकर भारत बना है।

कांग्रेस के द्वारा जो इस प्रकार की विचारधारा शुरू की गई वह चलती गयी, परन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता कि उसे मान्यता प्राप्त हो गयी थी, क्योंकि उस समय महात्मा तिलक, महर्षि अरविन्द, मदन मोहन मालवीय आदि ऐसे जो हमारे बड़े-बड़े नेता रहे और जो कांग्रेस के कर्णधार थे, वे भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में मानते थे।

महर्षि अरविन्द का स्पष्ट कहना था कि सनातन धर्म ही हमारा राष्ट्र है, किन्तु हमारी पहचान कहाँ से बिगड़ी यदि इस पर विचार किया जाय तब हम देखते हैं कि सन् 1920 में महात्मा तिलक के जाने के बाद जब कांग्रेस की बागडोर महात्मा गांधी के हाथ में आयी तो उन्होंने इस विचारधारा को मान लिया और भारत पर हिन्दुओं का स्वामित्व है इसको मानने से इन्कार कर दिया। एक बार डॉ. हेडगेवार जी से उनकी भेंट हुयी और इस विषय पर काफी चर्चा हुई कि आदिकाल से इस भारत का स्वामित्व हिन्दू समाज का रहा है और यही यहां के राष्ट्रीय हैं। गांधी जी ने उनके इस बात को मानने से इन्कार कर दिया।

डॉ. हेडगेवार को यह समझ में आ गया कि जो विचारधारा कांग्रेस के द्वारा शुरू की गयी है उसे गांधी जी ने पूर्ण रूप से मान लिया है और यदि यह विचारधारा बनी रही तो यह देश भटक ही नहीं जायेगा वरन् गुमराह हो जायेगा और अपने लक्ष्य से बहुत दूर चला जायेगा। इसलिये उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। उस समय लोगों को ऐसा लगता था कि पाँच लोगों को लेकर शुरू किया गया यह संगठन सफल कैसे होगा।

गांधी जी ने राष्ट्र की जो कल्पना अपनायी थी, वह धीमे-धीमे पूरे भारत में इस प्रकार फैल गयी कि भारत हिन्दू राष्ट्र है; इसको स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं था।

जब मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अभियांत्रिकी ( बीटेक.) की पढ़ाई कर रहा था तब संघ की शाखा के लिये स्वयंसेवक बनाने के हेतु छात्रों के साथ विचार-विनमय तथा चर्चायें होती थी। कई बार जब कम्युनिस्ट पार्टी के लोग, कांग्रेस के लोग तथा सोशलिस्ट पार्टी के लोग बड़ी भारी संख्या में इकट्ठा होकर वाद-विवाद करते थे तब ऐसा लगता था कि स्वयंसेवक बनना कोई सरल काम नहीं है, बहुत कठिन काम है, लेकिन जो सत्य है वह लोगों को एक न एक दिन अवश्य समझ में आता है, भले ही उसमें देर लगे।

मुझे स्मरण है कि मैं जिस छात्रावास में रहता था वहां बहुत बड़ी संख्या में ऐसे स्वयंसेवक तैयार हुये जिनके ध्यान में यह बात आयी कि भारत का स्वामित्व हिन्दुओं का है और जो बाहर ये अक्रमणकारी आये हैं वे भारत के राष्ट्रीय नहीं हैं, चाहे वे जिहाद वृत्ति लेकर आये हुये इस्लाम धर्मी हों या अंग्रेज हों। मैंने इस बात की चर्चा इसलिये की कि देश में जो भटकाव है वह हम समझ सकें।

इस देश के संविधान में यह बात ला दी गयी कि We are a secular socialist democracy और सेक्युलर का अर्थ धर्मनिरपेक्ष के रूप में लिया जाता है। मैं पूछता हूं भारत धर्मनिरपेक्ष है क्या? जिसे धर्मनिरपेक्ष राज्य कहा जाता है वह धर्मविहीन राज्य होता है। क्या भारत धर्मविहीन राज्य है? आज हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता का यह मनोविज्ञान बड़े व्यापक रूप में काम कर रहा है, विशेष रूप से हमारे राजनीतिज्ञों एवं प्रशासनिक अधिकारियों में। हमारा धर्म से कोई मतलब नहीं हैं, हमारा देश की परम्परा से कोई मतलब नहीं है, ऐसी उनकी भावना बन गयी है।

वास्तव में धर्म के विषय में आज बहुत से भ्रम पैदा हो गये हैं। इस शब्द का संकुचन हो गया है। वैसे तो धर्म एक ही है, किन्तु आज जब धर्म की बात करते हैं तब जैन कहते हैं कि हम जैन धर्मी हैं, सिक्ख कहते हैं कि सिक्ख धर्मी हैं, हम हिन्दू नहीं है। धर्म के विषय में ऐसी भ्रामक स्थिति पहले नहीं थी। इतने वर्षों में जो भ्रम फैलाया गया उसके कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई, परन्तु मुझे लगता है कि भारत की पहचान इसकी आध्यात्मिकता में है। यह एक आध्यात्मिक राष्ट्र है तथा भारत में आध्यात्मिक राज्य हमारा आदर्श होना चाहिये, यह सभी को स्वीकार हो सकता है।

मैंने स्वर्गीय नरसिंह राव जी से एक बार कहा था कि जवाहर लाल जी समाजवादी समाज रचना करके गये थे और आपने सन् 1990-91 में एकदम यू टर्न ले लिया और समाजवादी अवधारणा से निकलकर पश्चिम की दूसरी विचारधारा उदारीकरण और वैश्वीकरण की ओर चल पड़े। अत: आपको समझ में आ गया कि जवाहर लाल जी जिस रास्ते पर ले गये थे वह रास्ता अंधेरे का था और पता नहीं किस मोड़ पर छोड़ गया है, लेकिन दुबारा हम लोगों ने जिस पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाया है वह भी हमें उसी अंधपरम्परा के रास्ते पर ले जा रही है।

सन् 1947 से लेकर लगभग 1990-91 तक हम समाजवादी रहे और सन् 1991 के बाद से आज तक एक पूँजीवादी व्यवस्था में चल रहे हैं। दोनों व्यवस्थाएँ हमारे देश के लोगों ने देखी है।

मैं दीनदयाल जी की प्रासंगिकता इस बारे में मानता हूँ कि उन्होंने दोनों व्यवस्थाओं का बड़ा गहन अध्ययन किया था और अध्ययन के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि दोनों विचारधाराओं में भौतिक विचारधारा होने के कारण समग्र का विचार नहीं किया गया है। समग्र का विचार जब तक नहीं किया जायेगा तब तक कोई आदर्श व्यवस्था नहीं दी जा सकती। यह समग्र का विचार देश में अत्यन्त प्राचीन काल से होता रहा है और आज भी हो रहा है। सेक्युलरवाद के नाम पर जिस हिन्दू परम्परा को हमने छोड़ा, उस हिन्दू परम्परा में यह समग्र विचार सदैव विद्यमान रहा है। उसी हिन्दू विचारधारा को दीनदयाल जी ने एकात्मदृष्टि के रूप में सामने प्रस्तुत किया है।

एकात्मदृष्टि, सनातनधर्म या हिन्दुत्व ये शब्द भले ही अलग-अलग हैं किन्तु इनके अर्थ एक हैं। एकात्मदृष्टि हमारे इस आध्यात्मिक राष्ट्र की सदैव से दृष्टि रही है और इस देश में जो बिखराव आ रहा है उसे एकात्मदृष्टि के माध्यम से रोका जा सकता है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। न केवल भारत के बिखराव को अपितु सम्पूर्ण विश्व में जो बिखराव दिखलाई दे रहा है उस के समाधान का भी अगर कोई मार्ग दिया जा सकता है तो इस समग्रदृष्टि से ही दिया जा सकता है।

मेरा मानना है कि भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र है और एक आध्यात्मिक राज्य भी है आज भारत के संविधान की उद्देशिका में इसको जोड़ने की आवश्यकता है। इस बात को इस देश में स्थापित करना पडेग़ा। यदि आप संविधान बनाना चाहते हैं तो उद्देशिका बदलिए। भारत के कण-कण में आध्यात्म विद्यमान है। पूरा समाज आध्यात्म में डूबा है यह हम पूरे देश में अनुभव करते हैं।

देश का कोई भी हिस्सा नहीं है जहाँ हमको इस बात की अनुभूति न होती हो। अत: आध्यात्मिक राज्य इसका स्वरूप होना चाहिये। मैं समझता हूँ कि आज सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हमारी वास्तविक पहचान क्या है यह हम दुनिया के सामने स्पष्ट कर सकें और अपने देशवासियों को बता सकें। जब हम यह कह सकते हैं कि भारत एक सेक्युलर स्टेट है तब हमारे देश के भीतर जो हमारी मान्यताएँ हैं उन मान्यताओं की प्रशासन के स्तर पर सवर्था उपेक्षा होती है। जैसे, गंगा का विषय आज हमारे समक्ष है। गंगा के विषय में हमारे समाज की कितनी श्रद्धा और आस्था है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। गंगा के किनारे हमारे अनेक महत्वपूर्ण तीर्थ हैं। गंगा के तट पर लगने वाले कुम्भ के मेले में देश भर से करोड़ो लोग उपस्थित होते हैं। प्रयाग के पिछले कुम्भ में लगभग सात करोड़ लोग देश-देशान्तर से आये थे।

गंगा हिन्दू समाज के हृदय में कितनी गहराई से बसी हैं इसका वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन इस गंगा की हत्या करने में हमारी सरकार को बिल्कुल भी संकोच नहीं हो रहा है। उसी प्रकार हमारी संस्कृत भाषा देखते-देखते समाप्त कर दी गयी है क्या देश स्वतंत्र होते ही संस्कृत भाषा हमारे देश की राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती थी? यह ठीक है कि समान बोल-चाल के लिए हम हिन्दी को रख सकते थे, लेकिन पूरे देश को जोड़ने वाली हमारी राष्ट्रीय एकात्मता की प्रतीक तो संस्कृत भाषा ही है।

संस्कृत भाषा से हमें एकात्मदृष्टि प्राप्त होती है। डॉ. रघुवीर जो हमारे देश के बहुत बड़े चिन्तक, विचारक एवं भाषाविद् थे, उनका हिन्दू यूनिवर्सिटी में मैंने एक भाषण सुना था। उन्होंने कहा कि यदि पारिभाषिक शब्दों का सही अर्थों में चयन करना है तो संस्कृत छोड़कर किसी दूसरे भाषा में नहीं हो सकता। उन्होंने रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र यहां तक की हमारे विधि के कठिन शब्दों का एक पारिभाषिक शब्दकोष बनाया था। वे उसे लेकर जवाहरलाल जी के पास गये और उन्होंने कहा कि यह पारिभाषिक शब्द सारे भारत को मान्य हो सकते हैं, क्योंकि हमारी सारी भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और संस्कृत से समृद्ध होती हैं, लेकिन जवाहरलाल जी ने उसको स्वीकार नहीं किया संस्कृत ही हमारी पहचान को बताने वाली है। और वे उस पहचान से सहमत नहीं थे।

जवाहरलाल जी संस्कृत से ज्यादा अंग्रजी और उर्दू को महत्व देते थे। और मैं समझता हूं कि अंग्रेजी ही भारत की राष्ट्रभाषा बने, इस प्रकार की उनकी इच्छा प्रारंभ से ही रही। अंतत: वे अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाकर ही छोड़े, आज स्थिति यही है।

आज अगर भारत की राष्ट्रभाषा किसी को कह सकते हैं तो वह अंग्रेजी है। क्योंकि सर्वत्र अंग्रजी ही फैली हुई है। वही हमारे विचारों का आदान-प्रदान कर रही है। क्या-क्या कहा जाये। भाषा नष्ट हो गयी, हमारी गाय नष्ट हो गयी, हमारे मंदिर नष्ट हो रहे हैं, हमारी सब मान्यतायें नष्ट हो रही हैं, इन सभी के पीछे बस एक ही कारण है कि हमने भारत की वास्तविक पहचान क्या है, इसको ही खो दिया है। इसलिये मैं समझता हूं कि आज सबसे बड़ी आवश्यकता भारत की सही पहचान को पुन: प्रतिष्ठित करना और वह प्रतिष्ठा दीनदयाल जी के एकात्ममानव दर्शन से ही हो सकेगी।

इस विषय को हम विश्वविद्यालयों में लेकर जायें और देश के विद्वानों को इस विषय पर चिंतन करने के लिये प्रेरित करें। आज हमारे देश में जितनी नीतियाँ बन रही हैं उनके अन्दर स्पष्ट भटकाव दिखाई पड़ता है। यह नीतियाँ कहां से बनकर आती हैं, कैसे बनती हैं, इनके द्वारा किनको लाभ होता है और कौन से लोग इनके पीछे रहते हैं? आज इन सभी विषयों पर गम्भीर चिन्तन करने की आवश्यकता है।

वास्तव में देश की स्वतंत्रता के बाद ही यह होना चाहिये था कि इस देश के भीतर एक ऐसे लोगों का समूह खड़ा हो जो विभिन्न क्षेत्रों में हमारी नीतियाँ क्या हों इसको भारतीय दृष्टि से तर्कपूर्ण विचार करके प्रस्तुत करें।

मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गया था वहां मैंने अपने प्राध्यापकों से पूछा कि देश में जो वर्तमान में नीतियाँ बनती हैं उनमें इस विश्वविद्यालय का योगदान होता है, क्योंकि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एक बहुत बड़ा विश्वविद्यालय है। यहां अनेक विषयों पर मार्गदर्शन करने वाले विचारक मौजूद हैं। जब कोई नीति बनती है तो यहां पर उसके सन्दर्भ में कोई चिन्तन होता है क्या? उत्तर मिला यहां इस सन्दर्भ में कोई चिन्तन नहीं होता। हम लोगों का कोई ऐसा समूह भी नहीं है जो ऐसा सोचता हो और नीतियों के सन्दर्भ में शोध करता हो।

आज भारत के इस सेक्युलर स्टेट को दिशा देने का कार्य जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के लोग कर रहे हैं। हमारी अर्थ नीति क्या हो, हमारी शिक्षा नीति क्या हो और यहां तक की हमारा इतिहास क्या हो, यह आज मार्क्सवादी चिन्तन के आधार पर जेएनयू के लोग निर्धारित कर रहे हैं।

अत: आज इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है कि हमारे विद्वत समाज के लोग इस विषय पर गहराई से विचार करें और दीनदयाल जी ने सनातन भारतीय चिन्तन के आधार पर हमें जो दृष्टि दी है उसके आलोक में ऐसी नीतियों का निर्माण करें जिससे देश अपनी संस्कृति, परम्परा, पर्यावरण एवं प्रकृति की रक्षा करते हुये उत्तरोत्तर समृद्धि के मार्ग पर चल सके।

आज सभी को यह दिखाई दे रहा है कि गाँव के गरीब किसान को भारत की समृद्धि का कोई लाभ नहीं हुआ है। स्वतंत्रता के बासठ-तिरसठ वर्ष बीत जाने के बाद भी देश के विकास का अल्पांश भी हमारे बनवासी, गिरिवासी एवं गाँव के गरीब तक नहीं पहुँच सका है। हमें आज यह सोचना पड़ेगा कि आखिर हम कहां भटक गये हैं इन परिस्थितियों में दीनदयाल जी ने हमें जो एक दिशा दी है उस दिशा में बहुत ही गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है। आज विश्वविद्यालयों में एक बड़ा ऐसा वर्ग है जो संघ की प्रेरणा के इस विचार से सुपरिचित है। अत: इस बात की आवश्यकता है कि इनमें से कुछ लोग इस चिन्तन के आधार पर विभिन्न विषयों में शोध कार्य में लगें।

वर्तमान समय में ऐसे कार्यों के लिए विश्वविद्यालयों का वातावरण अनुकूल नहीं है। हमारे विश्वविद्यालयों के प्रध्यापकों में शोधकार्य की अपेक्षा सर्विस में क्या कंडीशन है इस विषय को लेकर अधिक चिन्तन होता है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है क्योंकि जब मैं पढ़ता था तो अपने एक सम्बंधी अध्यापक के घर में रहता था और वहां जब अध्यापक लोग साथ होते थे तो चर्चा किसी अन्य विषय पर न होकर केवल यही होती थी कि पदोन्नति कैसे हो गई, वहां राजनीति कैसी चल रही है आदि-आदि। यानी विश्वविद्यालय की राजनीति को छोड़कर अन्य कोई चर्चा नहीं होती थी। यदि कुछ लोग गम्भीरतापूर्वक इस विषय को लेकर आगे बढ़ेंगे तो गम्भीर नीति निर्मित हो सकेगी।

मार्क्सवादियों का आन्दोलन आज पूरे देश में फैल गया है, पूँजीवाद भी आज एक मान्यदर्शन बना हुआ है। परन्तु आज समाज एक विकल्प चाहता है, क्योंकि यह दोनों ही मार्ग आज असफल दिखाई दे रहे हैं। इसलिये भारतीय चिन्तन की प्राचीन परम्परा के आधार पर एक तीसरा मार्ग प्रस्तुत करने का एक नैतिक दायित्व आज हमारे ऊपर है। इसकी न केवल हमारे देश को अपितु सम्पूर्ण संसार को आवश्यकता है। अत: हमारा अनुरोध है कि हम सभी कृतसंकल्प होकर इस कार्य में लगें।

(लेखक विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

2 COMMENTS

  1. इसलिये भारतीय चिन्तन की प्राचीन परम्परा के आधार पर एक तीसरा मार्ग प्रस्तुत करने का एक नैतिक दायित्व आज हमारे ऊपर है। इसकी न केवल हमारे देश को अपितु सम्पूर्ण संसार को आवश्यकता है।
    Whenever Integral Humanism was presented by me in the university, it was received so well,
    WE MUST CASH ON THIS SUBJECT.

  2. श्री सिंघल जी का प्रश्न बिलकुल सही है की देश कहाँ भटक गया है और क्यों भटक गया है?
    बिलकुल सही कहा है की …प्राचीन काल में बडे़-बडे़ ॠषि महात्मा राज्यकर्ताओं का उचित मार्गदर्शन किया करते थे तथा हमारे ऋषियों को अतीत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों दिखाई देता था, जिसके आधार पर वे सही मार्गदर्शन करने में समर्थ थे……..

    किन्तु आज : https://ias-minimum-age.blogspot.com/
    https://www.pravakta.com/?p=१४१०

    और नेता – भ्रष्ट. बाहुबली,
    देश का कहाँ से भला होगा.

    हर घर के अपने नियम होते है. जो दुसरो का अन्धाधुन अनुसरण करे है परिणाम गंभीर होते है. लोग सच्चाई जानना नहीं चाहते है. या जानकर भी अनजान है. जो है जैसे है, ठीक ही है. हमारी सोच भी गुलाम हो गई है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here