कांग्रेस के दोहरे मापदंड और संघ

साकेंद्र प्रताप वर्मा

कांग्रेसी खानदान आजकल जोर-शोर से संघ परिवार और संपूर्ण हिंदुत्व को आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त दर्शाने की कोशिश में जुटा है तथा आत्मप्रशंसा में स्वयं को सवा सौ साल की राजनैतिक परंपरा का वाहक बता रहा है। कांग्रेसी यह भूल जाते हैं कि उस परंपरा के बचपन की बचकानी हरकतों तथा जवानी की उदंडता ने भारत माता के शरीर को लहुलूहान करके उसके दो टुकड़े करवा दिए। फिर भी आजकल एक विशेष प्रकार का चश्मा विदेशों से बनवाकर राहुल-सोनिया और कंपनी ने कांग्रेसियों की चाटुकार संतति को वितरित किया है जिससे उन्हें वे सभी दृश्य विशेष दृष्टिकोण से दिखाई पड़ते रहें जो देश के बाकी नागरिकों को दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।

अगर थोड़ा गंभीरता पूर्ण अध्ययन करें तो आतंकवाद के नाम पर हजारों की संख्या में पकड़े गये लोगों में से मात्र 10-20 लोग ही फर्जी या असली तौर पर हिंदू समुदाय के हैं। उसमें से भी कुछ ही लोग कथित तौर पर कभी-न-कभी संघ से जुड़े कहे जा सकते हैं। लेकिन बेचारे दिग्विजय सिंह अपनी मजबूत आदताें के कारण सोते-जागते, उठते-बैठते केवल हिंदुत्व विरोधी बयानों को उसी प्रकार से बड़बड़ाने लगते हैं जैसे कोई सन्निपातग्रस्त रोगी अजीबोगरीब बातें ही बड़बड़ाता रहता है। कितना दुर्भाग्य है कि एक अरब से अधिक हिंदू समाज में से अगर 10-12 हिंदूओं की गतिविधियां कथित तौर पर आतंकवाद में शामिल पायी गयी हैं तो इससे क्या संपूर्ण हिंदू समाज ही आतंकवादी हो जाएगा, अगर नहीं तो हिंदू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद का शिगूफा छोड़कर आज देश को कहां ले जाना चाहते हैं। सत्यता तो यह है आतंकवाद में पकड़े गए 99 प्रतिशत लोग इस्लामपंथी हैं, ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह की छाती में इतना साहस है कि आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद कह सके। फिर यह दोहरा मापदंड क्यों?

आज अगर सोचें तो देश में लगभग एक चौथाई लोग संघ विचार से सहमत हैं, भले हीं उनकी राजनैतिक दृष्टि अलग प्रकार की हो । 10-12 लाख लोग तो इस काम में दिन रात जुटे हुए प्रत्यक्ष कार्यकर्ता हैं। कई साल पहले बी. बी. सी. रेडियो ने कहा था कि विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। उसमें से यदि 8-10 लोग कुछ ऐसा काम कर भी देते हैं, जो आतंकवादी गतिविधियों का हिस्सा कहा जा सकता है, तो क्या इससे पूरा संघ परिवार आतंकी संगठन हो जाएगा? किंतु यह सूक्ष्मतम ज्ञान दिग्विजय सिंह समेत राजस्थान की उस माटी के कुछ ऐसे स्वनामधन्य लोगों को ही प्राप्त हुआ जिन्हें अकबर से भी अपना रिश्ता स्थापित करने में कोई संकोच नहीं था। भले ही राणा को अरावली की पहाड़ियों में खाक छाननी पड़ी हो, किंतु देश को स्मरण है कि घास की रोटियां खाकर भी राणा ने अकबर के सम्मुख देश के स्वाभिमान को नीलाम नहीं किया, उल्टे जयचंदी परंपरा का ही देश में कोई नाम लेवा नहीं बच सक ा।

हमें याद है कि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसी ने संगठित रूप से हजारों की संख्या में निर्दोष सिखों का कत्लेआम देश क े कोने-कोने में किया थाा और अपने इस कुकृत्य को वैधानिकता का चोल पहनाने की दृष्टि से कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो इस प्रकार का भूचाल आ ही जाता है। किंतु गोधरा में 56 निर्दोष कार सेवकों को ट्रेन में जिंदा जला दिया गया। उसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में कुछ घटनाएं हो गयी, कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर तक कहने की हिमाकत की। किंतु क्या दिग्विजय सिंह जैसे लोग कांग्रेस को सिक्खों की हत्यारी पार्टी घोषित करने की हिम्मत रखते हैं। देश बखूबी जानता है कि उसी खून के धब्बे धोने के लिए मनमोहन सिंह कांग्रेस के चहेते प्रधानमंत्री हो गए। इटली की गुप्तचर संस्थाओं से सांठगांठ तथा क्वात्रोची से निकट के संबंध देश में किस नेता से हैं यह भी जगजाहिर हो चुका है। क्या उस नेता के नेतृत्व में चलने वाली पार्टी को दिग्विजय सिंह देशद्रोही या देश विरोधी पार्टी कहने की हिम्मत रखते हैं। 2005 में गुजरात में कांग्रेस के पूर्व मंत्री मो. सुरती और उनके पांच सहयोगी कांग्रेस सूरत के बम विस्फोट में दोषी पाए गए। विस्फोट सामग्री उनकी लाल बत्ती लगी गाड़ी में भेजने के सारे प्रमाण मिले ऐसी स्थिति में तो दिग्विजय सिंह को चाहिए कि कांग्रेस को आतंक पार्टी घोषित करने में किसी प्रकार का विलंब न करें। अगर दिग्विजय सिंह इस प्रकार के बातों को नहीं समझ पा रहे है तो सोनियां जी और राहुल जी ही अपना थोड़ा-सा दिव्य ज्ञान उन्हें अवश्य दे दें।

बहुत विचित्र अवस्था है कि रातों-रात ये कांग्रेस शंकाराचार्य जी को जेल में बंद करवा सकती है, कोयंबटूर हमले के मुख्य आरोपी को केरल चुनाव में लाभ लेने के लिए जेल से रिहा करवा सकती है। किंतु मौलाना बुखारी को कोर्ट का सम्मन तामील करवाने में कांग्रेस सरकार की धोती खुल जाती है। अफजल गुरू और कसाब को फांसी से बचाने के लिए अनर्गल बयानबाजी करते हुए मुकदमों को कमजोर करने का षड़यंत्र कर सकती है किंतु दिल्ली में देश की छाती पर चढ़कर भारत विरोधी भाषण देने वाले गिलानी और अरूंधती राय को गिरफ्तार करने में कांग्रेस की सरकार डर जाती है। इनकी दृष्टि में गुजरात देश का दुश्मन है किंतु आतंकवाद की भाषा को प्रोत्साहित करने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य का मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला देश का लाडला बेटा है, तभी तो ओबामा के आगमन पर उसे कांग्रेस सरकार भोज पर न्योता देती है। देश के सभी प्रमुख मंदिरों पर सरकारी रिसीवर बैठाकर उसके चढ़ावे को गैर-धार्मिक खर्चों में शामिल करने का कुचक्र रचा जा सकता है। किंतु क्या इस्लामिक संस्थाओं को प्राप्त होने वाले दान का हिस्सा भी दूसरी मदों में खर्च करने के लिए सरकारी रिसीवर बैठाने का साहस कांग्रेस सरकार के पास है। संघ तो खुली किताब है, उसकी तुलना कांग्रेसी सिमी से कर सकते हैं किंतु क्या कांग्रेस के पास यह हिम्मत नहीं है कि वह सिमी की उस वास्तविकता को जनता के सामने रखे, जिसके कारण उसने सिमी पर प्रतिबंध लगा रखा है। वस्तुतः कांग्रेस जिस प्रकार की वेश परंपरा में जन्मी है वहां पर मापदंड और मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए कांग्रेस ने देश को कई न भर सकने वाले घाव दिए हैं। दुःखी मन से 1 जनवरी, 1923 को पं. मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस से भी पवित्र वस्तु है भारत देश और इसकी स्वतंत्रता। किंतु समय के साथ-साथ कांग्रेस का दृष्टिकोण ही बदल गया अब उसके नेताओं को लगता है कि देश चाहे जहां जाय अब तो कांग्रेस ही है सबसे पवित्र वस्तु। भले ही उसके काले कारनामों से देश भ्रष्टाचार में डूब जाए, और आम आदमी के लिए महंगाई डायन का रूप ले ले। चाहे तो कश्मीर ही इस देश से कट कर अलग हो जाए या फिर उसके अनर्गल प्रलापों से असली आतंकवादी बच जाए, परंतु कांग्रेस तो अपने से अधिक पवित्र दूसरा कुछ मान ही नहीं सकती क्योंकि उसे घमंड है कि उसका इतिहास 125 साल पुराना है। भलें ही इस कालखंड में उसने अपना मायावी चेहरा कई बार बदला है। सत्यता यह है कि उसका तो जन्म ही अंग्रेज माता के गर्भ से हुआ है। इतिहास के थोड़े से पन्ने पलटकर देखें तो बात अधिक स्पष्ट हो जाएगी। 1857 के प्रथम संगठित स्वाधीनता संग्राम में क्रांतिवीराें के डर से महिलाओं के परिधान पहनकर भाग जाने वाला इटावा का कमिश्नर ऐलन ऑक्टेवियन हयूम्स (ए. ओ. हयूम्स) कांग्रेस के स्थापना का प्रमुख शिल्पी था। ह्यूम के द्वारा कांग्रेस के महासचिव के रूप में 1905 तक इस पौध को बढ़ाने का प्रयत्न किया गया। इस पलायन वीर अंग्रेज ने भारत के तत्कालीन वायसराय डफरिन सहित डलहौजी, रिपन और जॉन ब्राइट जैसे अंग्रेजों के कई लार्डों से कांग्रेस व्यापक विचार-विमर्श करके 28 दिसंबर, 1885 को गोकुलदास तेजपाल कॉलेज, मुंबई में कांग्रेस की स्थापना की। स्थापना के उद्देश्य तो गुप्त थे फिर भी ह्यूम ने अपनी जीवनी के लेखक वेडर बर्न जो दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए से कहा था कि दक्षिण भारत का कृषक विद्रोह तथा 1857 की क्रांति की असफलता के बाद क्रांतिकारियों और प्रखर राष्ट्रवादियों की गतिविधियां ज्वालामुखी जैसे भयानक विस्फोट को जन्म दे सकती हैं। इससे बचने और ब्रिटिश राज को निष्कंटक बनाने के लिए एक सेफ्टी वाल्व की जरूरत है। कांग्रेस की स्थापना करके हम उस जरूरत को पूरा करेंगे, जो देखने में तो भारतियों की पार्टी होगीकिंतु होगी हमारी शुभचिंतक। इसलिए कांग्रेस के पहले-पहले अध्यक्ष व्योमेश चन्द्र बनर्जी ने कहा था कि मेरे तथा मेरे मित्रों के समान निष्ठावान और समर्पित राजभक्त मिलना संभव नहीं है। कांग्रेस की बैठकों में बहुत दिनों तक गॉड सेव द किंग गीत गाया जाता था। अनेक बार तो महारानी विक्टोरिया की जमकर नरे लगाते थे तथा उनके यशस्वी जीवन की कामना की जाती थी।

लाला लाजपत राय के अनुसार जनक्रांति की आशंका से बचने के लिए अंग्रेजों का परिणाम थी। इसलिए कई अंग्रेज कांग्रेस के अध्यक्ष बने जिसमें जार्ज यूल, ऐ. बेब, हेनरी कॉटन तथा बेडर बर्न आदि प्रमुख थे। वस्तुतः जिस कांग्रेस की स्थापना इस पृष्ठभूमि के अंतर्गत की गयी थी उससे भारत के हितों की अपेक्षा करना केवल कपोल कल्पना के समान है। इसी कारण आने वाले समय में कांग्रेस का व्यवहार अनुपयुक्त दिखाई पड़ने लगा। 1911 में कांग्रेस ने देश के प्रस्तावित ध्वज में कोने पर यूनियन जैक सहित नौ नीली व लाल पटि्टयां कालील का सुझाव रखा। 1931 में इसी कांग्रेस ने झंडा कमेटी द्वारा एकमत से स्वीकृत सनातन कालीन भगवाध्वज को आजादी प्राप्त कर लेने पर भी राष्ट्रध्वज नहीं बनाने दिया। जबकि इस समिति में स्वयं नेहरू जी, सरदार पटेल, पट्टाभि सीता रमैया, डॉ. हार्डिकर, काका कालेकर, मास्टर तारासिंह और मौलाना आजाद ही थे। जिस कांग्रेस को भगवाध्वज से इतनी चिढ़ थी उसने यदि भगवा आतंकवाद का नया शब्द गढ़ दिया तो इसमें कौन सा आश्चर्य है यह तो कांग्रेस की नीयत का परिचायक हैं हंसी तो तब आयी जब कैबिनेट मिशन और माउंटबेटन के सामने 1946 में महात्मा गांधी ने एक बार जिन्ना को हीं भारत का प्रधानमंत्री बनाया जाना स्वीकार लिया। फिर देश का विभाजन स्वीकार करने में कितनी देर थी। 1911 में बंगभंग योजना तो रद्द हो गयी थी किंतु उसके 36 साल बाद पूरे दश के दो टुकड़े स्वीकार कर लिए गए। 1930 में विभाजन के प्रबल विरोधी रहे पंडित जवाहर लाल नेहरू सत्ताशीर्ष पर बैठने की लालसा से विभाजन पर सहमत हो गए और लेडी माउंटबेटन का सम्मोहन तथा कृष्णा मेनन द्वारा विभाजन के एजेंट के रूप में अपनायी गई भूमिका ने भारतमाता के दो टुकड़े करा दिए। 1906 में ऐसा ही अमेरिका के विभाजन का प्रस्ताव उस समय के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के सामने भी आया था तथा वहां की कैबिनेट और तमाम जनरलों ने विभाजन के पक्ष में अपनी सहमति दी थी किंतु देशभक्त लिंकन ने साफ-साफ अस्वीकार कर दिया था। यद्यपि साढ़े चार सालों तक अमेरिका में गृहयुध्द चलता रहा पर अमेरिका की अखंडता बनी रही, आज वह दुनिया का सर्व शक्तिमान देश है। किंतु ऐसा न तो गांधी जी ने किया, न ही नेहरू ने किया, क्योंकि ऐसा सीखकर कांग्रेस बनी ही नहीं थी। आजादी के बाद भी कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण कश्मीर समस्या आज तक विक राल रूप में खड़ी है, चीन हमारी 37,555 वर्ग कि.मी. भूमि हड़प ले गया, विभाजन के समय हमने लाखों लोगों की लाशों को अपने हाथों से उठायी फिर भी ना समझी की सीमाएं आज भी पर की जा रही है। कांग्रेस सावरकर को नहीं पसंद करती, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, तिलक, अशफाक उल्ला खां को भी पसंद नहीं करती। हजारों बलिदानी वीरों का उससे कोई नाता नहीं, आजादी के बाद तो नाता बना केवल धंधेबाजों से, घोटालों के सरताजों से। बोफोर्स घोटाला तो राजीव गांधी के गले की हड्डी बन गया। देश अगर बीते 63 वर्षों में कांग्रेस द्वारा किए गए अरबों करोड़ों के घोटाला तथा टू जी एस्पेक्ट्रम घोटाला बीते 2-3 महीने की मनमोहन सरकार की विशेष उपलब्धि कैसे भूली जा सकती है जिसमें कई लाख करोड़ रूपये पूरे गिरोह ने मिलकर डकार लिए। इस भीषण लूट के मद्देनजर क्या कोई कम समझदार आदमी भी मान सकता है कि अकेले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सारा पैसा हजम कर गए। सुरेश कलमाडी सारा पैसा बांध ले गए या फिर ए. राजा ने अकेले सारा बाजा बजा दिया। इसमें पूरा अमला शामिल है 10 जनपथ से 7 रेसकोर्स तक बैठे हुए हर एक व्यक्ति की जांच ही नहीं स्क्रीनिंग भी होनी चाहिए। किंतु कांग्रेस इस बात को कैसे मान ले, आखिर सवा सौ सालों का अनुभव भी तो उसके साथ है। उसे पता है कि जब विपक्ष वाले बिल्कुल न माने तो देश में आपातकाल लगा दो, सभी नेताओं को जेल भेज दो और इंदिरा इज इंडिया की तर्ज पर बता दो सोनिया इज इंडिया, राहुल इज इंडिया, बाकि कुछ सोचा तो देश विरोधी। लेकिन इस बार कांग्रेस समझ गयी कि विपक्षी दल तो एकजुट हो गए, संकट ज्यादा गहरा है कहीं बोफोर्स घोटाले की तरह गद्दी न छिन जाए। इसलिए ‘चोर मचाए शोर’ की तर्ज पर चिल्लाना शुरू कर दिया कि देखो संघ वाले आतंकवाद में संलग्न है, भाजपा इनका साथ दे रही है। कांग्रेस मौका तलाश रही है कि यदि भाजपा ज्यादा उग्र हो तो उसके साथियों को राजग से अलग करने का प्रयास किया जाए किंतु कांग्रेस का मंसूबा सफल नहीं हुआ। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ के बारे में कांग्रेस की दृष्टि अपनी जरूरत के हिसाब से बदलती रहती है। 1947 में जब कश्मीर का मुद्दा फंस गया तो संघ याद आया। श्री गुरूजी को महाराजा से वार्ता करने विशेष सरकारी वायुयान से 18 अक्टूबर, 1947 को नेहरू सरकार ने भेजा। किंतु संघ की लोकप्रियता से चिढ़े नेहरू ने गांधी हत्या का आरोप 26 फरवरी, 1948 को लगाकर प्रतिबंध दिया। श्रीगुरूजी पर धारा 302 का मुकदमा कायम हुआ जिसे 2 दिन बाद वापस लेना पड़ा तथा 12 जुलाई, 1949 को प्रतिबंध भी बिना शर्त उठा लिया। चीन के आक्रमण के समय संघ के सहयोग से प्रभावित होकर जवाहर लाल नेहरू ने संघ को सम्मान पूर्वक 26 जनवरी, 1963 की दिल्ली की परेड में आमंत्रित किया जिस संघ को देश में भगवा ध्वज फहराने की एक इंट भी भूमि न देने की गर्वोक्ति बोलते थे। 1965 में पाकिस्तान युध्द के समय इसी कांग्रेस सरकार ने सरसंघचालक श्रीगुरूजी को सर्वदलीय बैठक में आमंत्रित किया था, किंतु इंदिरा गांधी को संघ के बढ़ते कदमों से खतरा लगा और उन्होंने 1975 में आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा दिया किंतु वह प्रतिबंध भी 22 मार्च, 1977 को हटाना पड़ा और सरकार को अपना सिंहासन छोड़ना पड़ा। अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के बाद 10 दिसंबर, 1992 को संघ पर फिर एक बाद इन्हीं लोगों ने प्रतिबंध लगाया किंतु 4 जून, 1993 को यह प्रतिबंध भी हटाना पड़ा।

वस्तुतः संघ प्रखर देशभक्त संगठन है तथा सत्य पथ अनुगामी है इसलिए असत्य के मार्ग पर चलने वाले नए-नए शिगूफों से संघ का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। हां, देशभक्ति की प्रखर ज्वाला को बुझाने में अपने हाथ मुंह झुलसा लेने की गलती कर सकते हैं। अगर हम महापुरू षों को याद करें तो 1928 में कलकत्ता में सुभाष बाबू ने कहा था कि संघ कार्य से ही राष्ट्र का पुनरूध्दार हो सकता है। 1938 में पंजाब के मुख्यमंत्री सिकंदर हयात खां ने कहा था कि संघ एक दिन भारत की बड़ी ताकत बनेगा। 1939 मे डॉ. अंबेडकर ने पूना शिविर में संघ को बिना भेदभाव वाला संगठन बताया था। 1940 में पूना में वीर सावरकर ने संघ को एकमात्र आशा की किरण कहा था। 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में महात्मा गांधी ने कहा था कि संघ शक्तिमान हुए बिना नहीं रहेगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा, कोका सुब्बाराव, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्ध्दन समेत बिटिश प्रधानमंत्री मार्गेट थैचर ने संघ की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ऐसी स्थिति में दिग्विजय सिंह जैसों के बयान वैसा ही कृत्य है जैसे कोई सूर्य पर थुकने की कोशिश करेगा तो उसका चेहरा, उसी के थूक से गंदा होगा। किसी कवि ने ठीक ही कहा है ः- चंद मछेराें ने साजिश कर, सागर की संपदा चुरा ली। कांटो ने माली से मिलकर, फूलों की कुर्की करवा ली। सुशियां सब नीलाम हुई है, सुख की तालाबंदी है। आने को आई आजादी, मगर उजाला बंदी है॥

* लेखक स्वतंत्र लेखक/स्तंभकार हैं।

4 COMMENTS

  1. श्रीमान साकेंद्र जी ने बहुत ही तथ्यात्मक लेख लिखा है. सच्ची बधाई के पात्र है.
    हर अंधभक्त को चाइये की कम से कम पहले इतिहास तो पता कर ले नहीं तो बाद में सचाई पता लगने पर पसतावा होगा. कहते है पानी पियो छान कर गुरु बनाओ जान कर. काश हमारी स्कूल की किताबो में सच्चा इतिहास लिखा होता तो लोगो को पता चलता, पहले प्रवक्ता जैसे माध्यम तो थे नहीं. श्री सहगल जी और दिनेश जी को भी सच्चे कमेन्ट के लिए धन्यवाद.

  2. साकेंद्र प्रताप जी आपके द्वारा लिखा गया यह लेख बहुत अच्छा, महत्वपूर्ण व तथ्यात्मक है| कांग्रेस का सच तो अब सारा देश जानने लगा है किन्तु आपके द्वारा एक एक बिंदु को आपस में बांधकर लिखना और एक श्रृंखला पिरोना सच में अद्भुत है| आपने सही कहा है कि कांग्रेस को अपने १२५ वर्ष के इतिहास का घमंड है| शायद उसे इस घमंड का फायदा भी मिल रहा है क्योंकि मैंने तो बहुत से ऐसे परिवार देखें हैं जो कि कांग्रेस का परम्परागत वोटबैंक है| वहां किसी सदस्य को किसी अन्य दल को वोट देने की आज्ञा नहीं है| हांलाकि वोट देना सबका अपना अधिकार है और यह बेहद निजी भी है फिर भी बचपन से मिली शिक्षा के आधार पर ऐसा संभव है| आज़ादी की लड़ाई तो मैंने नहीं देखी किन्तु फिर भी मै पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि आज़ादी की लड़ाई कांग्रेस के लिये सत्ता की लड़ाई ही थी| आज़ादी की लड़ाई तो मैंने नहीं देखी किन्तु आज़ादी के बाद भी जारी कांग्रेस की सत्ता की लड़ाई को अपनी आँखों से देखा है| कांग्रेस द्वारा किये गए अरबों के घोटाले तो अब सारा देश जानता है| जिस दिन यह बात सभी को समझ आ जाएगी कांग्रेस का विनाश निश्चित ही है| इस राह में आपका लेख अति कारगर सिद्ध होगा| इस महत्वपूर्ण लेख के लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद|

  3. कांग्रेस के दोहरे मापदंड और संघ – by – साकेंद्र प्रताप वर्मा

    दिग्विजय सिंह कांग्रेस के संघ के लिए OSD हैं.

    उनका अभियान सुनियोजित तरीके से चल रहा है.

    वह समय के अनुसार संघ के विरुद्ध जहर उगलते हैं.

    संघ को भी दिग्गी राजा के लिए अलग से एक अधिकारी नामज़द / नियुक्त करना चाहिए जो समय समय दिग्विजय सिंह पर उपयुक्त ब्यान से प्रहार करता रहे.

    तीव्र आक्रमण करते रहें – ओफ्फेंस इस दा बेस्ट डिफेन्स.

    – अनिल सहगल

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