कांग्रेस पार्टी को सही दिशाओं की तलाश

0
113

ः ललित गर्गः

कांग्रेस पार्टी तरह-तरह के अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है। इसकी जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की है। हालांकि पार्टी के निष्ठावान नेता उत्तराधिकारी के मसले पर बात करने को तैयार नहीं हैं। पार्टी को अब फिर से मूल्यों पर लौटकर अपने आप को एक नए दौर की पार्टी के तौर पर पुनर्जीवित करना होगा। चुनौतियां तो अनेक हैं, गांधी-परिवार पर निराशाजनक निर्भरता पार्टी के सामने पहली चुनौती है, दूसरी बड़ी चुनौती केन्द्रिय नेतृत्व का अभाव है। बावजूद इसके किस वजह से पार्टी अब भी आगे की दिशा में बड़ा कदम उठाने से कतरा रही है। पार्टी के नेता ये बुनियादी बात ही नहीं समझ पा रहे हैं कि राहुल गांधी न पार्टी को छोड़ रहे हैं, न उन्हें छोड़ रहे हैं और न ही राजनीति को। शायद वे पहली बार समझदारी दिखा रहे हैं कि कोई गैर-गांधी परिवार का सदस्य अध्यक्ष बनकर पार्टी का नेतृृत्व करें। 
यह समझदारी भले ही हो, पर एक बड़ा प्रश्न भी है कि राहुल गांधी ने चुनावों में स्वयं को भाजपा सरकार का सबसे बड़ा और मुखर प्रतिद्वन्दी पेश करने के बाद वह नई लोकसभा में यही भूमिका निभाने से क्यों पीछे हट रहे हैं? सवाल यह भी है कि यदि उन्हें संसद के भीतर कांग्रेस सांसदों का नेतृत्व नहीं करना था तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के ‘अमेठी’ लोकसभा क्षेत्र के साथ ही केरल के वायनाड से चुनाव क्यों लड़ा? आश्चर्य है कि कांग्रेस पार्टी देश की सबसे पुरानी एवं ताकतवर पार्टी होकर आज इतनी निस्तेज है। जो पार्टी संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकती थी, मौन साधे बैठी हैं, हाशिये पर आ गयी है। बात समझ में आती है कि चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए हैं। लेकिन यह समय है जब वे इस चुनौती को स्वीकारते एवं लोकसभा में अपनी पार्टी का नेतृत्व करते हुए पार्टी को सशक्त बनाते। पार्टी की जर्जरावस्था में पहुंचने के कारणों का पता लगाते लेकिन वे तो इन चुनौतियों को स्वीकारने से कतरा गये? दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु व केरल के मतदाताओं ने तो उनके नेतृत्व पर भरोसा किया था। बेशक देश के 18 राज्यों में कांग्रेस पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया है परन्तु शेष 11 राज्यों में तो कांग्रेस की उपस्थिति है और इनमें उसे जो भी सफलता मिली है उसका राजनीतिक अर्थ यही निकाला जायेगा कि वह श्री नरेन्द्र मोदी के मुकाबले राहुल गांधी का मुंह देखकर ही मिली है। वायनाड की जनता ने उन्हें रिकार्ड वोटों से विजयी बनाकर यही भरोसा दिया था कि वह संसद में पहुंच कर अगली पंक्ति में खड़े होकर भाजपा विरोध का झंडा फहरायेंगे मगर उन्होंने यह झंडा पकड़ने से भी इन्कार कर दिया।
इसका मन्तव्य क्या यह निकाला जा सकता है कि पार्टी नेतृत्व में परिपक्वता एवं राजनीतिक जिजीविषा का अभाव है। जबकि पार्टी के पास लम्बा राजनीतिक अनुभव भी है और विरासत भी। उसे तो ऐसा होना चाहिए जो पचास वर्ष आगे की सोच रखती हो पर वह पांच दिन आगे की भी नहीं सोच पा रही हैं। केवल खुद की ही न सोचें, परिवार की ही न सोचें, जाति की ही न सोचें, पार्टी की ही न सोचंे, राष्ट्र की भी सोचें। जब पार्टी राष्ट्र की सोचने लगेगी तो पार्टी की मजबूती की दिशाएं स्वयं प्रकट होने लगेगी। 
भारतीय जनता पार्टी का उद्देश्य ‘गांधी-मुक्त कांग्रेस’ रहा है, इसलिए ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा  उछाला गया। यह नारा सफल भी हुआ और बड़ी चुनौती भी बना है। लेकिन पार्टी के सामने अब बड़ी चुनौती यह है कि वह स्वयं को मजबूत बनाये। राहुल पार्टी प्रमुख बने रहें या किसी भी गैर-गांधी परिवार के सदस्य को प्रमुख बनाये, प्रश्न पार्टी प्रमुख का नहीं है, प्रश्न पार्टी को पुनर्जीवित करने का है। यकीन है कि पार्टी प्रमुख के रूप में नेहरू-गांधी परिवार के बिना जब चलना सीख जायेंगी तो पार्टी गति भी पकड़ लेगी। हकीकत तो यह है कि परिवार के भरोसे अपनी नैया पार कराने वाले कांग्रेसियों ने आत्मविश्वास ही खो दिया है। राजनीति ‘आत्मविश्वास’ से चलती है। यदि ऐसा न होता तो भाजपा आज देश की सत्ताधारी पार्टी न बन पाती। यह आत्मविश्वास ही था जिसकी बदौलत इस पार्टी की पुरानी पीढियां अपने रास्ते पर डटी रहीं और हार को जीत में बदलने के रास्ते खोजती रही, भाजपा ने सिद्धान्तों पर चलना अपना ‘ईमान’ समझा। ऐसा लगता है कि सत्ता पर काबिज होने की लालसा ने कांग्रेस को सिद्धान्त एवं आदर्शविहीन बना दिया। 
राहुल गांधी के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी के हर कार्यकर्ता को ही इस पर मंथन करके स्वयं का पुनर्जागरण करना चाहिए क्योंकि भारत को एक सशक्त विपक्षी दल की बहुत सख्त जरूरत है। बिना सशक्त विपक्ष के लोकतंत्र के कोई मायने नहीं है। यह इन्दिरा गांधी का आत्मविश्वास ही था जिसने उन्हें सफलतम राजनीतिज्ञ बनाया। राहुल गांधी को एवं पार्टी को उनके पदचिन्हों का अनुकरण करना चाहिए। यदि पार्टी में इन्दिराजी जैसा साहस एवं राजनीतिक सूझबूझ का अभाव है तो पार्टी को सामूहिक रूप से अपनी राजनीतिक विरासत के चिन्हों को टटोलते हुए परिवारवाद से छुटकारा पाना चाहिए और भारत की नई पीढ़ी के लिए राजनीतिक विकल्प तैयार करने के प्रयासों में जुट जाना चाहिए। पार्टी के पास अनुभवी एवं कार्यक्षम नेताओं की भी कोई कमी नहीं है। पांच मुख्यमंत्री हैं- कमलनाथ, कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और वी नारायणसामी। पार्टी में गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, पी चिदंबरम, अहमद पटेल, मुकुल वासनिक, पृथ्वीराज चव्हाण, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, शशि थरूर, मनीष तिवारी, शिवकुमार, अजय माकन जैसे अनुभवी नेता भी हैं। इनमें से कुछ भले ही हाल में हुए लोकसभा चुनावों में हार गए हों लेकिन उनके पास सार्वजनिक पदों पर रहने का बड़ा अनुभव है। इसके अलावा कांग्रेस के पास डॉ. मनमोहन सिंह, एके एंटनी, वीरप्पा मोइली, मल्लिकार्जुन खड़गे, सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार, अंबिका सोनी, मोहसिना किदवई, शीला दीक्षित जैसे कई दिग्गज भी हैं जो दशकों के अपने अनुभव के आधार पर सलाह दे सकते हैं। 2017-18 में अशोक गहलोत पार्टी के मामलों के कांग्रेस महासचिव थे। इसी साल पार्टी ने गुजरात के विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया था और मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का चुनाव जीत लिया था। वो सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग से आते हैं और राजस्थान के बाहर भी कांग्रेस के नेताओं में उनकी स्वीकार्यता है। उन्हें अंतरिम अध्यक्ष बनाया जा सकता है। लेकिन पार्टी के भीतरी लोग दलित होने के आधार पर मुकुल वासनिक और साफ छवि के कारण एके एंटनी के नाम भी ले रहे हैं। पार्टी को इस समय निर्णायक नेतृत्व की जरूरत है। फिर भी कयासबाजी के दौर लगातार चलते रहेंगे, तो नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ सकता है।
कांग्रेस पार्टी अनेक विडम्बनाओं एवं विसंगतियों के दौर से गुजर रही है। बाहर दुर्लभ, अन्दर सुलभ- यह विडम्बना है पार्टी जीवन की, पार्टी व्यवस्था की और पार्टी पद्धति की। सुधार का पूरा प्रयास किया जा रहा है- पार्टी स्तर पर व राजनैतिक स्तर पर, लेकिन केवल सतही प्रदर्शन और श्रेय प्राप्ति की भावना अधिक है, रचनात्मक कम। मूल्यों की नीति को पाखण्ड कहा जा रहा है और मुद्दों की राजनीति को आगे किया जा रहा है। मुद्दे तो माध्यम हैं, लक्ष्य तो मूल्यों की स्थापना  है।
पार्टी को सोच के कितने ही हाशिये छोड़ने होंगे। कितनी लक्ष्मण रेखाएं बनानी होंगी। सुधार एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। महान् अतीत महान् भविष्य की गारण्टी नहीं होता। सम्मेलनों और भाषणों में सुधार की आशा करना गर्म तवे पर हाथ फेरकर ठण्डा करने का बचकाना प्रयास होगा। पार्टी के सुधार के प्रति संकल्प को सामूहिक तड़प बनाना होगा। पार्टी के चरित्र पर उसकी सौगन्धों से ज्यादा विश्वास करना होगा। आज सुधारवादी व्यक्तियों को पुराणपंथी अपने अड़ियलपन से प्रभावित करते हैं। कारण, बुराई सदैव ताकतवर होती है। अच्छाई सदैव कमजोर होती है। यह अच्छाई की एक मजबूरी है।
यदि कांग्रेस पार्टी पूरी तरह जड़ नहीं हो गयी है तो उसमें सुधार की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। यह राजनीतिक जीवन की प्राण वायु है। यही इसका सबसे हठीला और उत्कृष्ट दौर है। क्योंकि सुधारवादी की लड़ाई सदैव जड़वाद से है, तो फिर वहीं पर समझौता क्यों? वहीं पर घुटना टेक क्यों? जड़वाद कहीं इतना ताकतवर नहीं बन जाए कि सुधारवाद अप्रासंगिक हो जाए। सुधारवाद और सुधारवादी की मुखरता प्रभावशाली बनी रहे। सुधार में सदैव हम अपेक्षाकृत बेहतर मुकाम पर होना चाहते हैं, न कि पानी में गिर पड़ने पर हम नहाने का अभिनय करने लगें। वह तो फिर अवसरवादिता होगी। कांग्रेस को सुधार तो करना ही होगा, उसी से मजबूती आयेगी और उसी से जन स्वीकार्यता बढ़ेगी।
प्रेषकः

 (ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोनः 22727486, 9811051133 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,733 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress