आत्माराम यादव पीव
विश्वव्यापी महामारी कोरोना ने पूरी दुनिया में 35 लाख ओर भारत में ढाईं लाख लोगों को असमय ही मौत देकर तबाही के जो दृश्य दिखाये है उससे पूरी मानवता आहत है ओर रोज हजारों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे है किन्तु मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। 21वी सदी का यह कैसा दौर है जिसमें विकास की तेज रफ्तार के पंखों को झुलसा कर जमीदोश कर दिया ओर भारत ही नही मानों समूची दुनिया मानवता ओर मानवीय मूल्यों के घोरपतन के युग परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। एक ओर जहां इस महामारी को जड़ से समाप्त करने का कोई विकल्प नहीं तलाश पाये वहीं सेकड़ों तरह के दावे कर इससे मुक्ति दिलाये जाने के लिए बाजार में अनेक व्यापारी अपनी दुकानों को सजाकर लोगों को भयभीत कर लूटने में सफल रहे ओर सरकारे सोसलमीडिया के इस मकड़जाल से बचाने के लिए किसी प्रकार का उपाय नही कर सकी। लोग चैनलों पर बैठे समाचारों पर नजरे गढ़ाए विकल्प या इलाज की प्रतीक्षा में थे लेकिन टीवी एंकरों ने भी समाधान देने की बजाय गुमराह ही किया जिससे जहा इस आपदा की स्थिति से संभला जा सकता था लेकिन लोग संभल नहीं सके। वेक्सीनों के दावे उनसे जुड़ी तकनीकी, उपकरणो ओर उत्पादन को लेकर कुछ दवा कंपनिया अपनी वेक्सीनों को शोध उपरांत पेटेंट कराने में सफल रही वही असमंजस में फसी हुई सरकारे अंधेरे में तीर चलाती लालबुझक्कड़ की बुझ से पैदा होने वाले सारे प्रयोगधर्मी इलाजों से रोज अनेक जिंदा लोगों को कोरोना पाजेटिव सावित कर मरता देखती रही ओर भय इतना की बेटे के मरने पर बाप ओर बाप के मरने पर बेटा लाश को हाथ लगाने से इंकार करते रहे। कोरोना के भय से इलाज के प्रयोगधर्मी चिकित्सा से मरने वालों की संकया लाखों हो गई जैसे वे मानव न होकर अनुपयोगी जीवजन्तु रहे हो।
मानवता ओर धर्म का पाठ हम तोतारटंत की तरह रटते रहे किन्तु आचरण में नही ले सके। इसका परिणाम सामने है जहा इन्सानों में लालच चरम पर आ गया है ओर वे हैवान बनकर मानवता को कलुषित कर जीवन रक्षक नकली दवाए बनाकर कारोबार करने में जुट गए वही वे लोग जो वास्तव में सरकारी दावों के अनुसार कोरोना को हराने के लिए वेक्सीन बनाने में सफल हुये उन सभी दवा कंपनियों के मालिकों ने अपनी वेक्सीनों को पेटेंट करा लिया अकेले भारत को 270 करोड़ वेक्सीन की आवश्यकता है जबकि पेटेंट कराने वाली इन कंपनियो द्वारा प्रतिदिन 3 लाख के हिसाब से एक महीने में 90 लाख उत्पादन किया जा रहा है जो एक साल में 11 करोड़ वेक्सीन बना सकेगी तब मांग की पूर्ति में 13 साल लग जाएंगे जिससे इस महामारी से इन 13 सालों में लाखों मरने वालों की स्थित का अंदाज लगाकर रूह कांप उठती है। पेटेंट के बाद ये कंपनिया स्वास्थ्य सेवा कर रही है यह तो कतई नही है बल्कि ये सालों तक व्यापार की व्यवस्था से खुश है।
यह बात भारत ही नही समूचे विश्व की सरकारों को सोचना है ओर विशेषकर विश्व स्वास्थ्य संगठन को विचार करनी है की कोरोना जैसे जीवनदायिनी वेक्सीन को पेटेंट कराने वाली दवा कंपनियों को अवश्यकता अनुसार वेक्सीन की पूर्ति न कर पाने से इन दवाओं के अभाव ओर संकट की स्थिति निर्मित होने पर इनके वास्तविक मूल्य से कही अधिक चौगुने- हजारगुने दाम देकर खरीदने के लिए आम व्यक्ति को छोड़ देश में कालाबाजारी को संरक्षण दिया जाकर आरजकता पैदा की जाये या इन कंपनियों का पेटेंट समाप्त पर देश की सरकारी दवा निर्माता कंपनियों को यह वेक्सीन बनाने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराकर मांग ओर पूर्ति के अंतर के समाप्त कर देश में 3 महीने के भीतर आवश्यकता के अनुरूप 270 करोड़ वेक्सीन तैयार का योजनावद्ध चरणो में देश के प्रत्येक नागरिक को उपलब्ध कराया जाकर उनके जीवन की रक्षा की जाये, जो सरकार की पहली प्रार्थमिकता हो।
यही नही सरकार को यह भी देखना होगा कि जहा कोरोना लोगों कि जान ले रहा है वही पर दो साल से चले आ रहे लाकडाऊन में महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी। खाने का तेल हो या राशन सभी कि कीमतों में उछाल आया है ओर रोज उपयोग कि सामग्री अब आमव्यक्ति की क्रय शक्ति के बाहर हो गई है। महीनों से सभी का काम धंधा बंद है, बाजार बंद है, रोज कमाने खाने वाले व गरीब के पास पैसा नहीं है ओर न ही उसके घर में खाने को दाना है, मध्यम परिवार सभी तरह से परेशान है, उन्हे मकान का दुकान का किराया, बिजली का बिल,पानी का बिल, कर्जदारों को कर्ज अदा न करने पर बैंकवालों का उनके घर पहुँच कर धमकी देकर वसूली का दबाब उनके परिवार को अपमानित कर रहा है। लोग घरों में है, मजदूर गरीब को रोजगार के लाले पड़े है तब जिन बड़े व्यापारियों के यहा खाने का सामान उपलब्ध है वे अवसरवादी बनकर सामान की अनुप्लब्धता बताकर मुहमांगे दामों में बेच रहे है ओर प्रशासन ने बाजार को कुछेक लोगों को ज़िम्मेदारी सौपकर घरबैठे सामान उपलब्ध कराने के दायित्व से मुक्ति पा ली है जबकि इन पुजीपति व्यापारियों की मुराद पूरी हो गई जो कोरोना महामारी से बच भी जाये वे महंगाई की चपेट से खुद को बचा नहीं पा रहे है। अभी खाने पीने की सारी दुकाने बंद है ओर चंद व्यापारी घरपहुँच सेवा के नाम पर जमकर शोषण कर कालाबाजारी कर रहे है वही कुछेक छुटपुट दुकानदार दो पैसे कमाने की आड़ में अगर शटल गिराकर लोगों की मदद कर दे तो उनपर प्रशासन का हंटर चलता है ओर कानूनी कार्यवाही अलग, परिणामस्वरूप गरीब कोरोना से बच जाये तो भूखा मरने से बचाने के लिए सरकार या प्रशासन ने कोई व्यवस्था नही की है, इसलिए वे दूसरों की दया या भीख पर जीवित है, जो मांग नहीं सकते उन गरीबों की आँखों का दर्द समुंदर बनकर उबाल मार रहा है जिसमे वे ही डूबकर मर रहे है।
दूसरी ओर अस्पताल मरीजों से भरे है ओर बीमार होने वाले सपना सब कुछ दाव पर लगाकर इलाज के लिए लाखों खर्च करने पर अस्पतालों में पलंग तक नसीब नहीं, सरकारे ओर प्रशासन तंत्र असफल है न उनके वश में कोई अस्पताल है न मेडिकल सप्लाई की व्यवस्था, न अनाज, सब्जी ओर फल उपलब्ध कराने वाले व्यापारी ही है । कलेक्टर नाम के कलेक्टर रह गए है तभी तो शमशान पर मुरदों की कतार उनकी नाकामयाबी बता रही है ओर मरने वाले के परिजन अपनों को खोकर उनके दाह संस्कार के नाम पर 10-15 हजार देने को लाचार है, लोग जिंदा लाश बने बेबश ओर मूक रह गए है। प्रशासन जिस तरह जिले का प्रभार अपने पास रखता है वैसे ही तमाम अस्पतालों ओर मेडिकल व्यवस्था को अपने अधिकार में लेकर काम करता तो तहसीलदार से लेकर कलेक्टर तक को किसी आम मरीज को बेड उपलब्ध कराने, दवा आदि के लिए अस्पतालों की न सुनना पड़ती ओर उन्हे खुद पता होता की किस अस्पताल में कितने बिस्तर है ओर कितने मरीज है, जिनकी जानकारी उन तक ये अस्पताल में ज़िंदगी का व्यापार करने वाले प्रबन्धक चलने नही देते है। सरकारी अधिकारी निजी अस्पतालों में जो व्यवस्था कराने में सक्षम साबित होता है वही व्यवस्था इन अस्पतालों में सालों से दलाली कर रहे सफ़ेदपोश दलाल सौदेवाजी कर सब सुविधा उपलब्ध कराने में अग्रणी है भले इसके लिए किसी मरीज को लगी आक्सीजन बाधित कर उनके भर्ती कराये मरीज को त्वरित उपलब्ध कराई जाने वे दूसरे मरीज को मौत हो जाये, इसकी परवाह उन्हे नहीं होती। यह सब देखकर लगता है सरकार तथा प्रशासन भ्रष्टाचार ओर नाजायज राजनीति की अवैध संतान बनकर रह गई है जिनकी नसों में नपुसंकता का खून रेंग रहा है ओर जनता इनकी लालच की भट्टी में भूनी जा रही है जहा मानवीयता का कोई मूल्य नही बचता है ओर मानव अधिकारों का झण्डा उठाकर पूरे साल चिल्लापौं कर अखबार की सुर्खियों में रहने वाले मानवतावादी वे सारे जागरूक जीव ओर संस्थान तथा मानव अधिकार आयोग इन अवसरों पर किसी भी मामले को स्वत: संज्ञान में न लेकर कुंभकरणी नींद सो गए है।
समूचे विश्व के वैज्ञानिकों के माथे पर इस महामारी कोरोना के इलाज के नाम पर असमंजस है ओर विश्वस्वास्थ्य संगठन सहित चिकत्सकों को भगवान समझ लोग उनपर विश्वास कर रहे है जिसमें आज भी अनेक चिकत्सक सेवा भाव से मानवीयता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है वही अनेक लोग उन्हे भगवान कि दी गई उपमा को कलंकित कर सेवा के नाम पर लूट खसूट में लगे है। चिंता कि बात यह है कि जिन वेक्सीन दवा को पेटेंट कराकर उसे बनाने के अधिकार दवा कंपनियों ने अपने पास रखे है उससे पूरे मानव समाज के सामने खतरा पैदा हो गया है। पेटेंट कराने वाली दवा कंपनी चाहती है कि उनकी यह दवा उनके अलावा दूसरी कंपनिया न बनाए, उस हिसाब से आज विश्व में कोरोना दवा बनाने के लिए 17 कंपनिया पेटेंट करा चुकी है ओर वे दिनरात काम करे तो भी मांग पूरी करने में उन्हे पाँच साल से ज्यादा समय लगेगा, ऐसी स्थिति में क्या कोरोना दवा के इंतजार के लिए हमारे लिए रुका रहेगा, यह सिर्फ तमाम देश की सरकारों के बौनेपन को साबित करता है जिससे सरकारों को मुक्त होकर इन दवाओं का पेटेंट समाप्त कर दुनिया की मांग के अनुरूप दवा कंपनियों को सामग्री उपलब्ध कराकर एक दो माह के अंदर पूरी मानव जाति को इससे मुक्त करने के लिए कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है, न की लाशों बिछने तक दवा को व्यापार की अनुमति मिलनी चाहिए वह भी तब जबकि अभी कोरोना की दूसरी लहर आने पर दुनियाभर में 35 लाख ओर अकेले भारत में ढाई लाख लोग असमय ही अपना जीवन गंवा चुके हो।