पूज्य तरुण सागर जी का यूं मृत्यु को महोत्सव बनाना  

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पूज्य संत तरुण सागर जी मृत्यु को महोत्सव बना गए, उनका शिष्य परिवार (मुझ सहित) भी मृत्यु का आनंद मना रहा है. हम जब मृत्यु का नाम लेतें हैं तो भीतर तक हिल उठते हैं, हड्डियों में सिहरन आभास करते हैं. मरण के नाम से भूत, पिशाच, प्रेत, यम, यमदूत, डाकिनी, शाकिनी दैत्य, राक्षस, चुड़ैल आदि आदि शब्द प्रतीक हमारें ध्यान में आने लगते हैं. तो फिर ये मानव रूप में जन्में #तरुणसागर कैसे मृत्यु को #मृत्यु_उत्सव बना गए?! वस्तुतः मानव से महामानव होने की उनकी जीवन यात्रा ही उन्हें दे गई यह; जो सभी को नहीं मिलता, वह अति दुर्लभ उन्हें मिला! इक्छा मृत्यु मिल गई उन्हें!! मृत्यु के बाद क्या? यही भय का कारण है और इस प्रश्न का उत्तर मुनिवर के पास था अतः वे महामानव कहलायेंगे और हम केवल मनुष्य, मानव से भी कुछ नीचे कहलायेंगे. 
संत कबीर ने कहा है –
उत ते कोऊ नहीं आवत है, जासों पूछूं धाई
सब ही इत ते जावत है, भार लदाई भार लदाई
उधर से अर्थात परलोक से कोई आता नहीं दिखता जिससे मृत्यु पश्चात का वृतांत पूछा जाए, सभी लोग इधर से बोझ लाद लाद कर जाते ही दिखाई पड़ते हैं. तो इस क्रम में #पूज्य_संत तरुण_सागर_जी भी चले गए! किंतु मृत्यु को उत्सव बना गए. आश्चर्य और भय मिश्रित लगता है हमें, क्या मृत्यु भी उत्सव हो सकती है. मृत्यु तो शोक का, दुःख का, प्रलाप का व रुदन का कारण है. मृत्यु में आनंद कहां?! हमारे शास्त्रों ने बताया है, कहा है और केवल श्रुति रूप में नहीं आलेख्य रूप में लिखित दिया है हमें कि मृत्यु ही परम आनंद है, परम निर्वाण है. सभी कुछ श्रीराम सत्ता अधिनिष्ठ ही है, श्रीराम अधिनिष्ठ ही चलेगा !! श्रीराम नाम ही सत्य है बाकी सब मिथ्या ही है. हमारी ऋषि परम्परा ने मृत्यु के पांच भेद यानि प्रकार बताएं हैं – बाल मृत्यु, बालबाल मृत्यु, बाल पंडित मृत्यु, पंडित मृत्यु व पंडित पंडित मृत्यु. मृत्यु के इन पांच भेदों का परम ज्ञान मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाता है. मृत्यु का आनंदोत्सव होना इस ज्ञान बिंदु से ही प्रारंभ होता है.
भारतीय संस्कारों में मृत्यु के पश्चात गरुड़ पुराण पाठन व श्रवण की परंपरा है. वस्तुतः जीवन काल में इस गरुड़ पुराण को पढ़ लेना, अर्थात कंठस्थ नहीं मनस्थ कर लेना ही सद्गति की ओर अग्रसर करा देता है. आजकल गरुड़ पुराण के नाम पर प्रेत खंड को पढ़कर इतिश्री कर ली जाती है जो कि अधूरा कार्य है. गरुड़ पुराण हमें बताता है कि जीवन का सर्वोत्कृष्ट उत्सव मृत्यु ही है. सल्लेखना इसका परिष्कृत स्वरूप है, संस्कारों का व मर्यादा को धारण करके वर बनने का अवसर और इस वर द्वारा वधु रूप में मृत्यु को वरण करने का अवसर. सल्लेखना में एक सूत्र आता है जो सल्लेखना का संथारा का मूल तत्व है जो इसे आत्मवध से पूर्णतः हटाकर वधु रूप में मृत्यु को वरण करने का अवसर बना देता है, वह सूत्र है – “मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता” जोषिता शब्द का अर्थ है, न केवल सेवन करना अपितु आनंद पूर्वक सेवन करना, इसमें कहीं आग्रह का प्रयोग नहीं होता बल या शक्ति का तो कतई नहीं. अतः निस्संदेह यह मृत्यु उत्सव है, मृत्यु से आत्मा का परिणयोत्सव है.

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