‘ज्ञान प्रकाश से दीप्त पर्वत’ के अस्तित्व पर संकट

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              तिरुवान्नामलाई तमिलनाडु का वो जिला है जहां अरुणाचलम पर्वत स्थित है, जिसकी ऊंचाई 814 मीटर है. तमिल परंपरा में इसे ‘ज्ञान प्रकाश से दीप्त पर्वत’ माना गया है.  १९वीं सदी में महान संत रमण महर्षि नें इसी भूमि को अपनी तपोभूमि के रूप में चुना था. स्थानीय निवासी बताते हैं कि यहाँ कभी विष्णु के 40 और महादेव के 63 मंदिर हुआ करते थे. पर जबसे इस पर्वत पर ईसाई मिशनरीज की कुदृष्टी पड़ी है इसका स्वरुप बदल चुका है.  मिशनरीज नें ठीक वन भूमि पर 5 एकड़ से अधिक हिस्से पर कब्ज़ा कर कैरमल माउंटेन मठ टेम्पल के नाम की चर्च का निर्माण पहले से ही कर रखा है. पर अब खबर  ये है कि  अतिक्रमण बढ़ कर 27 एकड़ हो चुका है.(पांचजन्य)
                     वैसे ये घटना कोई अपने आप में अलग नहीं है. तमिलनाडु के ही नागापत्ननम जैसे कई और  जिले हैं जहां मंदिरों में पूजा अर्चना बंद हो चुकी है, और लोग वहां जाने से बचते  हैं. याद करें कि 2019 में चर्च ने डीऍमके को लोकसभा चुनावों में समर्थन देने की घोषणा की थी.  और अब जबकि राज्य में डीऍमके की  ही सरकार है तो अब सरकारी तंत्र स्वयं  चर्च के दिखाए मार्ग पर आगे बढ़ निकला है. मंदिरों के अस्तित्व की  रक्षा में लगी  टेम्पल वार्शिपर्स सोसाइटी के अनुसार  तंजावुर स्थित शिव मंदिर और गणेश मंदिर की ही तरह अन्य स्थानों  पर स्थित ज्यादातर मंदिर  या तो अतिक्रमित हो चुके हैं या स्वयं सरकार के द्वारा  शैक्षिक संस्थाओं, सरकारी प्रकल्पों  आदि के नाम पर  आवंटित कर दिए गए  हैं.  इसके ठीक विपरीत मुस्लिम और ईसाई धर्मालयों को लेकर एक भी ऐसा मामला देखने को नहीं मिलेगा. स्थित ये है कि कन्याकुमारी, रामेश्वरम जैसे हिन्दू आस्था की भूमि भी आज अतिक्रमण और मतान्तरण से अछूती नहीं रह गयी है.
                 ये घटनाएँ जवाहरलाल नेहरु की  उस बात की याद दिलाती हैं जो कि उन्होंने   १९ वीं सदी में  दुनिया में विस्तार पाते यूरोपीय साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए अपनी पुस्तक ‘ग्लिम्पसेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखी थी  कि ये वो समय था जब कहा जाता था कि आगे बढ़ती सेना के झंडे का अनुसरण उसके देश का व्यापार करता था. और कई बार तो ऐसा भी होता था कि बाइबिल आगे-आगे चलती थी, और सेना उसके पीछे- पीछे. प्रेम और सत्य के नाम पर आगे बढ़ने वाली  क्रिस्चियन मिशनरीज़ दरअसल  साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए  ‘आउटपोस्ट’[चौकी]  की तरह  काम करती थी. और यदि उन को किसी इलाके में कोई नुकसान पहुंचा दे तो फिर तो उस के देश को उस इलाके को हड़पने का, उससे हर्जाना बसूलने का बहाने मिल जाता था.[ पृष्ठ- ४६३] इस बात को गुजरे लगभग  १५० वर्ष हो चुकें हैं, और वक्त काफी बदल चुका है. पर जहां तक बात देश के अन्दर सक्रीय मिशनरीज़ की है, उन्होंने बार-बार साबित किया है कि उन पर आज भी  बदलाव बेअसर ही हैं.
               उदहारण के लिए  तमिलनाडु के ही तूतीकोरीन स्थित बंद पड़े वेदांता स्टरलाइट कॉपर प्लांट और कूडनकूलम परमाणु सयंत्र से जुड़ी घटनाओं का  स्मरण ही काफी होगा . वेदान्त कॉपर प्लांट के विरोध में नक्सली व ईसाई मिशनरीज़ से जुड़े तत्व खुलकर सामने देखे गए थे. इसलिये  सुपरस्टार रजनीकांत को कहना पड़ा था कि आन्दोलन असामाजिक तत्वों के हांथों नियंत्रित है.  इस आन्दोलन में एक पादरी का नाम खूब उछला था, जिसका दावा था कि आन्दोलन को सफल बनाने के लिए मैदानी  गतिवीधीयों  के साथ-साथ  चर्च के अन्दर भी प्रार्थना चल रहीं हैं. जांच में ये बात खुलकर सामने आयी थी कि पादरी को इस काम के बदले  करोड़ों रूपए दिया गए थे. प्लांट से स्थानीय स्तर पर उद्धोगिक उन्नति, रोजगार सृजन के कारण व्यापारिक संगठन शुरू से आन्दोलन के खिलाफ थे, लेकिन ३४ ईसाई व्यापरिक संगठनों के दवाब के चलते उन्हें भी विरोध में उतरना पड़ा. अंततः  प्लांट बंद हो गया और विदेशी और देश के अन्दर उनके लिए काम करने वाले तत्व  भारत के जिन  आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना चाहते थे उनमें वो सफल हो गए. देश का कॉपर उत्पादन  ४६.१%  गिर गया. २०१७-१८ में जहां हमारा विश्व में पांच बड़े निर्यातकों में नाम था, २०२० के आते-आते हम आयातक हो गए.
                  कुडनकूलम परमाणु सयंत्र का मामला भी अलग नहीं. धरना-प्रदर्शन,जन-आंदोलन जितना हो सकता था सब-कुछ अजमाया गया कि कैसे भी हो ये परियोजना अमल में लायी ही ना जा सके. तत्कालीन सप्रंग सरकार के मंत्री नारायण सामी नें आरोप लगाया था कि इस मामले में रोमन-कैथोलिक बिशप के संरक्षण में चल रहे दो एनजीओ को ५४ करोड़ रूपए दिए गए हैं. सौभाग्य से इस मामले में मिशनरीज़  को सफलता हाथ न लग सकी, और परमाणु सयंत्र अस्तित्व में आ सका. इन हालातों में तो लगता है नोबल पुरुस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी नें ठीक ही कहा था कि-‘ कुछ लोगों ने सामाजिक बदलाव और  समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है. कन्वर्शन[ धर्मांतरण] के लिए भी एनजीओ का इस्तेमाल किया जा रहा है. एनजीओ, एक वर्ग के लिए  सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि कैरियर बनाने का जरिया बन गया है.’

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