संस्कृति उद्योग नीति के अभाव में गुलामी का रास्ता

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

भारत में मौजूदा हालात काफी चिन्ताजनक हैं। हमारे यहां विकासमूलक मीडिया के बारे में तकरीबन चर्चाएं ही बंद हो गई हैं। समूचे मीडिया परिदृश्य देशी इजारेदार मीडिया कंपनियों , बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों और विज्ञापन कंपनियों ने वर्चस्व स्थापित कर लिया है। विभिन्न मीडिया मालों की बिक्री के माध्यम से ये कंपनियां दस हजार करोड़ रूपये से ज्यादा का कारोबार कर रही हैं। ये मीडिया की अन्तर्वस्तु ही तय नहीं कर रही हैं, सामान्यजन की अभिरूचियों,संस्कार,जीवन मूल्य, और आदतों को भी रच रही हैं।वे पुराना और बासी सांस्कृतिक मालों के साथ हमले कर रही हैं। इनमें नया बहुत कम मात्रा में आ रहा है। खासकर टेलीविजन में इस बासीपन की गंध आसानी से पासकते हैं।इस प्रसंग में यह तथ्य भी ध्यान मे रखना होगा कि मीडिया तकनीकी और सूचना तकनीकी में गहरा भाईचारा है। इनमे अन्तर्क्रिया चलती रहती है।ये दोनों मिलकर तकनीकी रूप मिलकर ‘तत्क्षण पाने’,’सनसनी’ और ‘रोमांचकता’ के तत्वों का अपने नजरिए में जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं।इनके कार्यक्रमों में ‘तार्किकता’ की बजाए ‘निजी अनुभव’ और ‘भावुकता’ का खूब रूपायन हो रहा है।विवादास्पद और अविचारित जीवन-शैलियों के रूप मुखर हो उठे हैं।’ कल्पना’ की जगह ‘फैण्टेसी’ ने ले ली है।परंपराएं हतप्रभ और रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर रही हैं।संस्कृति को सुसंगत और समग्र दृष्टिकोण से देखने की दृष्टि का लोप होता जा रहा है।पी.डब्ल्यू. ब्रीडमैन के शब्दों में ”इस नए समाज में अवधारणाओं के रूप में समझने और सोचने की संभावनाएं खत्म होती जाती हैं।चिंतन-प्रक्रिया में किसी भी धारणा के बारे में पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते,उसे व्यवहार में कैसे लागू करें इस पर भी सोच नहीं पाते।इससे हमारे चिन्तन की आदतें प्रभावित होती हैं।” एस मूर के शब्दों में ” अन्तर्राष्ट्रीय संचार की क्षमता आज इतनी बढ़ चुकी है कि वह प्रत्येक घटना और वस्तु की दवि बना रही है।सूचना अब माल की शक्ल ले चुकी है। कम्प्यूटरीकृत सूचना जगत राष्ट्रीय बाजार से स्वतंत्र,अंतर्राष्ट्रीय बाजार और बहाुष्ट्रीय निगमों के वर्चस्व में है। फलत: सूचना के लिए बाजार की शक्तियों पर निर्भरता बढ़ गई है।” हकीकत में सूचना अब सिर्फ सूचना या वस्तु या खबर या प्रोसेस मात्र नहीं है और ना ही इसका समुच्चय है अपितु वर्चस्व स्थापित करने का प्रभावी उपकरण है। इस संदर्भ में देखें तो हमें सुसंगत नजरिए से संस्कृति उद्योग नीति बनानी चाहिए।

केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार के आने के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि केन्द्र संस्कृति उद्योग की सुध लेगा।किंतु अभी तक इस क्षेत्र की समस्याओं की तरफ केन्द्र सरकार का ध्यान ही नहीं गया।यहां तक कि यूपीए के साझा कार्यक्रम में भी इस क्षेत्र के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। संस्कृति उद्योग ऐसा उद्योग है जिसकी क्षमताओं के बारे में कोई भी संदेह व्यक्त नहीं कर सकता।इसमें तकरीबन पच्चीस हजार करोड़ रूपयों का सालाना कारोबार होता है। लाखों लोग इसमें काम करते हैं।प्रतिदिन सैंकड़ों नए लोगों को इसमें काम मिल रहा है।किंतु इसके बारे में प्रामाणिक तथ्यों,सूचनाओं,विश्लेषण,नीतियों आदि का अभाव है।यह अभाव क्यों है इसकी ओर किसी भी केन्द्र सरकार ने ध्यान नहीं दिया।इसके उत्पादन, पुनर्रूत्पादन का हमारे पास प्रामाणिक लेखा-जोखा नहीं है।इसके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभावों के बारे में केन्द्र और राज्य सरकारों ने कभी आधिकारिक रूप में प्रयास नहीं किया। यहां तक कि संस्कृति उद्योग के बारे में समग्रता में कभी कोई नीति नहीं बनायी गयी। उलटे इस क्षेत्र को चोर दरवाजे से इस क्षेत्र को हमने अमेरिकी बहुराष्ट्रीय माध्यम कंपनियों के हवाले कर दिया गया है।

भूमंडलीकरण के आने के बाद संस्कृति उद्योग की समस्याएं जटिल रूप अख्तियार कर चुकी हैं।बगैर नीति बनाए हमने अपना समूचा संस्कृति उद्योग बाहरी ताकतों के लिए खोल दिया है। बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के लिए मौजूदा युग स्वर्णकाल है।आज स्थिति यह है कि संस्कृति के बारे में हमारी कोई अपील और दलील सुननेवाला नहीं है।हम अपने ही देश में बेगाने हैं। जो बेगाने थे,पराए थे, उन्होंने सांस्कृतिक परिदृश्य पर कब्जा जमा लिया है। उनसे हमारी जनता का एक हिस्सा प्यार करने लगा है।जनता के बीच संस्कृति उद्योग के जरिए पश्चिम की परायी संस्कृति की बाढ़ आई हुई है। आज समूचा संस्कृति जगत किर्ंकत्तव्य-विमूढ़ है। सत्ता के शिखर से लेकर न्यायालय के दरवाजों तक बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों ने घेराबंदी कर ली है। आज संस्कृति उद्योग के बारे में प्रत्येक फैसला

बहुराष्ट्रीय माध्यम कपनियों के हितों को ध्यान रखकर किया जा रहा है।संस्कृतिकर्मियों के लिए यह शर्मिन्दगी और अपमान का दौर है। सांस्कृतिक आत्म-सम्मान कब हमारे समाज से चुपचाप उठकर चला गया हम नहीं जानते।हमारे जागरूक लोगों और राजनीतिक दलों को संस्कृति और संस्कृति उद्योग के प्रति इस उपेक्षाभाव की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। अभी भी समय नहीं गुजरा है हमें अपने देश के संस्कृति उद्योग और संस्कृति के बारे में नीति की बना लेनी चाहिए।

आज यह एक वास्तविकता है कि देश के अधिकांश संस्कृतिकर्मियों और बौध्दिकों का बहुमत भूमंडलीकरण के पक्ष में नहीं है।अधिकांश जनता भी इसके पक्ष में नहीं है। इसके बावजूद यदि सत्ता के गलियारों में संस्कृति उद्योग को लेकर उदासीनता है तो इसके कारण गंभीर हैं। इस उदासीनता की जड़ें हमारे बौध्दिकों की सांस्कृतिक गुलामी में हैं।स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों में भी इसका जिक्र नहीं मिलता। कहने का तात्पर्य यह है कि हमने संस्कृति और संस्कृति उद्योग को कभी गंभीरता से कभी नहीं लिया।हमने संस्कृति और संस्कृति उद्योग के साथ तदर्थ और उपयोगितावादी रिश्ता बनाया है।संस्कृति और संस्कृति उद्योग को हमने उपभोग से ज्यादा महत्व ही नहीं दिया।वस्तुत: उसे हमने अभिजन के हवाले कर दिया है। और अभिजन को सरकारों ने तरह-तरह के प्रलोभनों के जरिए बांध लिया है। वे संस्कृति के अभिजनवादी कारोबार में मशगूल हैं। मजेदार बात यह है कि अभिजन वर्ग को संस्कृति उद्योग नीति के अभाव पर कभी भी बोलते नहीं सुना गया।वे संसार के तमाम सवालों पर बोलते नजर आएंगे।किंतु संस्कृति और संस्कृति उद्योग नीति के सवाल पर कन्नी काट जाते हैं।

आज हमारे यहाँ संस्कृति उद्योग के बड़े उत्पादक केन्द्र हैं। जिनमें प्रेस,फिल्म,रेडियो, टेलीविजन,वीडियो,ऑडियो उद्योग शामिल हैं।इन क्षेत्रों के बारे में हमारे यहां कुछ कानून हैं। किंतु इसे संस्कृति उद्योग के नाम से सरकार ने कभी परिभाषित नहीं किया और न कोई इसे लेकर नीति ही है।उल्लेखनीय है कि भूमंडलीकरण और विश्व व्यापार संगठन के सदस्य होने के नाते हमारी अब तक की तमाम घोषणाओं ने संस्कृति उद्योग को विदेशी बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के लिए पूरी तरह खोल दिया है। केन्द्र सरकार के पास सरकारी टेलीविजन – रेडियो के बारे में भी कोई साफ नीति नहीं है।लस्टमपस्टम तरीके से प्रसार भारती चल रहा है। प्रसार भारती से संबंधित सभी महत्वपूर्ण सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं।सुसंगत नीति के अभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज हमारी विभिन्न केन्द्र सरकारों द्वारा रेडियो तरंगों का निजी क्षेत्र के हित में दुरूपयोग हो रहा है। उल्लेखनीय है कि रेडियो तरंगे राष्ट्र के लिए आवंटित हैं।ये निजी क्षेत्र के लिए आवंटित नहीं हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय नीति का पूंजीपतियों के हित में खुला उल्लंघन है। कोई भी दल रेडियो तरंगों के निजी क्षेत्र के हित में इस्तेमाल किए जाने के खिलाफ नहीं बोल रहा। हमारे पास संस्कृति उद्योग के प्रामाणिक आंकडे,कार्यरत लोगों की संख्या,वेतनमान,व्यापार एवं वितरण प्रणाली के नेटवर्क, नीतियों, प्रभाव आदि की प्रामाणिक सूचनाएं उपलब्ध नहीं है। सब कुछ छिपाकर और गुमनाम तरीके से हो रहा है। कायदे से केन्द्र सरकार को संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग टास्क फोर्स बनाने चाहिए। जिससं संस्कृति उद्योग नीति बनायी जा सके।

3 COMMENTS

  1. साहित्य -कला -संस्कृति को मानवता का सौन्दर्य अर्थात उसके सर्वसमावेशी हो जाने
    के सरोकारों से परिभाषित किया जाना चाहिए .आपका यह कथन की -संस्कृतिकर्मियों ,बुद्धिजीवियों और कलाकारों का बहुमत bhoomandleekaran के paksh men nahin hai -durust ahi .aapki यह sthapna की sanskruti uddyog को नीति गत स्वरूप दिया जाये -अच्छा विचार है .किन्तु पहले यह ठीक से परिभाषित तो किया जाये .आपने वर्चश्व के खतरों को रेखांकित किया है ,और वे हैं भी किन्तु आप जिन्हें सावधान करना चाहते हैं वे विचारधारा की कच्ची हांड़ी लेकर पथरीली राहों में भटक रहे हैं ,उधर मरणशील व्यवस्था में apna bhavishy chmkane bale aapke इस सन्देश से और ज्यादा वर्चश्व करने की फ़िराक में हैं .
    आपका यह निष्कर्ष की मीडिया तकनीक और सूचना तकनीक में कोई रिश्ता है ? इस बारे में कोई शक नहीं और वह भाईचारे का नहीं बल्कि जो मीडिया तकनीक है वो सूचना तकनीक की ओरस संतान है .

  2. संस्कृति उद्योग नीति के अभाव में गुलामी का रास्ता -by- जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

    (१) जगदीश्‍वर चतुर्वेदी जी का मीडि‍या का वि‍शेष अध्‍ययन है. वह लिखते हैं कि भारत संस्कृति उद्योग नीति के अभाव में गुलामी के मार्ग में पड़ा है.
    (२) उनका कहना है कि संस्कृति उद्योग वार्षिक रु २५,००० का है और इस उद्योग में लाखों काम कर रहे हैं और प्रतिदिन और बड़ी संख्या इसमें प्रवेश कर रही हैं.
    (३) यह उद्योग बहुराष्ट्रीय माध्यम कम्पनीयों के हवाले कर दिया गया है.
    (४) चतुर्वेदी जी कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय में प्रोफेसर हैं. वह एक्सपर्ट तो हैं ही.
    (५) केवल नीति के अभाव के कारण देश गुलामी के मार्ग पर हैं. समझ नहीं आता.
    (६) इच्छाशक्ति, चतुर्वेदी जी का उत्त्साह और देश में अहलुवालिया जैसे योजना आयोग के प्रमुख के होते, देश केवल नीति के अभाव में multinational मीडियम कम्पनों का गुलाम है – बड़े आश्चर्य की बात लगती है. क्या यह भष्टाचार का मामला है तो नहीं है, यदि हैं तो बड़ा घोटाला होगा.

    कुछ करीए चुर्वेदी जी, आप जैसे मझे चिन्तक के होते हम गुलामी के मार्ग पर.

    केवल प्रवक्ता.कॉम पर लेख लिखने से कर्तव्य पूरा तो नहीं होता.

  3. aadarneey chaturvedi ji aap ne to kamaal hi kar diya .prvakta .com ko bhi aapne dhny kar diya .soochna takneek ka utpaad {maal]soochna bahut khoob .varchshw ke khatron ko sahi moolyankit kiya hai aapne .yh bhi bilkul saty hai ki asli snskruti karmee ,buddhijivi aam taur se na to saamprdayik hote hain or na hi L.P G-ke pakshdhar hain .lekin we bazar se hasiye par kyon chale gaye hy bhi chintneey hai .

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