संदर्भः केंद्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह का डार्विन के सिद्धांत पर दिया बयान-
प्रमोद भार्गव
दुनिया बदल रही है और बदलती दुनिया में अपने आप को बनाए रखने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। दुनिया के इस बदलते स्वभाव की विडंबना है कि दुनिया तो स्थिर है, किंतु परिवर्तन अस्थाई हैं। इसी परिवर्तनशील आचरण के सार्थक उदाहरण हमारी सनातन संस्कृति और धर्म में व्याख्यायित दशावतार हैं। जो जीव विज्ञानी चाल्र्स राॅबर्ट डार्विन की जैव विकास संबंधी अवधारणा की पुष्टि करते है। संभव है, डार्विन ने दशावतारों की आवधारण से ही अपना सिद्धांत सिद्ध करने की प्रेरणा ली हो ? क्योंकि खुद डार्विन की आत्मकथा में उल्लेख है कि बिगल जाहज पर यात्रा शुरू करने के पहले ही उन्होंने वैदिक साहित्य का अध्ययन कर लिया था। दशावतार और डार्विन के विकासवाद में समानता होने का जिक्र स्वामी विवेकानंद और जवाहरलाल नेहरू भी कर चुके हैं। ऐसे में केंद्रिय मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह का डार्विन के मानव उत्पत्ति संबंधी बयान को तूल दिया जाना व्यर्थ है।
वास्तव में दशावतार जैव और मानव विकास को क्रमबद्ध रेखांकित किए जाने की सटीक अवधारणा हैं, क्योंकि इनके (विशेषकर जैव अवतार) मिथकीयकरण में एक सुस्पष्ट और तार्किक कालक्रम का सिलसिला मौजूद है। यथा, महाभारत में कहा गया है कि भगवान धर्म की रक्षा के लिए हर युग में पृथ्वी पर अवतार के रूप में जन्म लेते हैं। इस मान्यता के अनुसार ही दशावतार हैं। पहला अवतार मछली के रूप में आया। विज्ञान भी मानता है कि जीव-जगत में पहला जीवन-रूप पानी के भीतर ही विकसित हुआ। दूसरा अवतार कच्छप हुआ, जो जल और जमीन दोनों स्थलों पर रहने में सक्षम था। तीसरा वराह (सुअर) था, जो पानी के भीतर से धरती की ओर बढ़ने का संकेत था। अर्थात पृथ्वी को जल से मुक्त करने का प्रतीक है। चैथा, नरसिंह अवतार, जानवर से मनुष्यावतार में संक्रमण को प्रतिबिंबित करता है। यहां डार्विन से महज फर्क इतना है कि डार्विन मानव के पूर्वज बंदर को बताते है। पाँचवां, वामन-अवतार, लघु रूप में मानव जीवन के विकास का प्रतीक है। विष्णु का छठा, परशुराम स्वरूप मनुष्य के संपूर्ण विकास का अवतरण है। इसी अवतार के माध्यम से मानव जीवन को व्यवस्थित रूप में बसाने के लिए वनों को काटकर घर बसाने और बनाने की स्थिति को अभिव्यक्त करता है। परशुराम के हाथ में फरसा इसी परिवर्तन का द्योतक है। सांतवें अवतार राम का धनुष-बाण लिए प्रगटीकरण, इस बात का संकेत है कि मनुष्य मानव बस्तियों की दूर रहकर सुरक्षा करने में सक्षम चुका था। आठवें अवतार बलराम हैं, जो कंधे पर हल लिए हुए हैं। यह मानव सभ्यता के बीच कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विकास को इंगित करता है। नवें अवतार में कृष्ण हैं। कृष्ण मानव सभ्यता के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके उत्पादों से मानव सभ्यता को जोड़ने व उससे अजीविका चलाने के प्रतीक हैं। कृष्ण ने अर्जुन को कुरूक्षेत्र में गीता का जो उपदेश दिया है, उसे उनका दार्शनिक अवतार भी कहा जा सकता है। दसवां, कल्कि एक ऐसा काल्पनिक अवतार है, जो भविष्य में होना है। इसे हम ‘कलियुग‘ अर्थात कल-पुर्जों के युग अथवा यंत्रवत संवेदनहीन युग से भी जोड़कर देख सकते हैं। दरअसल सफेद घोड़े पर सवार तलवार लिए कल्कि की जो परिकल्पना पुराणकारों ने की है, उस रूप में कल्कि अवतरित होना किसी भी दृष्टिकोण से संभव नहीं है। इसलिए इसे प्रतीकों और रूपकों से ही समझा जा सकता है।
यथार्थ के निकट भौतिकवादी इस वैज्ञानिक जिज्ञासा की पुष्टि महात्मा गांधी भी करते हैं। उनसे एक पादरी ने पूछा था कि ‘क्या वे राम के अवतार होने में विश्वास करते हैं ?‘ गांधी ने उत्तर दिया, ‘यदि आप भारतीय दर्शन के जानकार हों तो यह समझ जाएंगे कि जीव मात्र परम् सत्ता का अवतार ही है। हमारे बीच से जो लोग विभूतियों से संपन्न होते हैं, वे विशेष अवतार हो जाते हैं। इसी अर्थ में राम अवतार हैं और हम उन्हें भगवान मानते हैं। अतः राम इतिहास पुरुष भी हैं और दिव्य अवतार भी। अवतारों की ऐतिहासिकता सिद्ध करने का इससे सार्थक दूसरा क्या उदाहरण हो सकता है ?
ब्रिटेन के जाॅन बर्डन सैंडर्सन हल्डेन अर्थात जेबीएस हल्डेन नामक शरीर, आनुवंशिकी और विकासवादी जीव विज्ञानी हुए हैं। गणित और सांख्यिकी के भी ये विद्वान थे। हल्डेन नास्तिक थे, किंतु मानवतावादी थे। ब्रिटेन में राजनीतिक असहमति के चलते उन्हें इंग्लैड छोड़कर भारत आना पड़ा। वे पहले सांख्यिकी आयोग के सदस्य भी बने और प्राध्यापक भी रहे। उन्होंने प्रकृति विज्ञान पर भी अद्वितीय काम किया। हाल्डेन ने संभवतः जैव व मानव विकास के व्यवस्थित क्रम में अवतारों का पहली बार बीती सदी के चौथे दशक में अध्ययन किया। उन्होंने पहले चार अवतार मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह को सतयुग से, इसके बाद के तीन वामन, परशुराम और राम को त्रेता से और आगामी दो बलराम और कृष्ण को द्वापर युग से जोड़कर कालक्रम को विभाजित किया है। हाल्डेन ने इस क्रम में जैविक विकास के तथ्य पाए और अपनी पुस्तक ‘द काॅजेज आॅफ इव्यूलेशन‘ में इन्हें रेखांकित किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि विज्ञान जीव की उत्पत्ति समुद्र में मानता है, इस लिहाज से इस तथ्य की अभिव्यक्ति मत्स्यावतार में है। कूर्म यानी कछुआ जल व जमीन दोनों में रहने में समर्थ है, इसलिए यह उभयचर (एंफिबियन) कूर्मावतार के रूप में सटीक मिथक है। अंडे देने वाले सरीसृपों से ही स्तनधारी प्राणियों की उत्पत्ति माना जाती है, इस नाते इस कड़ी में वराह अवतार की सार्थकता है। नरसिंह ऐसा विचित्र अवतार है, जो आधा वन्य-प्राणी और आधा मनुष्य है, इस विलक्षण अवतार की परिकल्पना से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य का विकास पशुओं से हुआ है। यह लगभग वही धारणा है, जो चाल्र्स डार्विन ने प्रतिपादित की है। इस अवधारणा को लेकर चर्च ने डार्विन का विरोध किया, लेकिन सनातन हिंदुओं ने इन्हें मिथकों से जोड़कर भगवान श्रीहरि विश्णु के रूपों में अवतरित कर ठोस धार्मिक मान्यता देकर अनूठी क्रांतिकारी पहल की। हमारी धार्मिक उदारता और सहिश्णुता का धर्म के परिप्रेक्ष्य में इससे दूसरा तार्किक उदाहरण ढंूढ़ने पर भी नहीं मिलता है।
इन जैविक अवतारों के बाद हल्डेन ने मानवीय अवतारों में वामन को सृष्टि विकास के रूप में लघु मानव (हाॅबिट) माना। परशुधारी परशुराम को वे आदिम या बर्बर पूर्ण पुरुष के रूप में देखते हैं। राम सामंती मूल्यों को सैद्धांतिकता देने और सामंतों के लिए भी एक आचार संहिता की मर्यादा से आबद्ध करने वाले अवतार हैं। हल्डेन बलराम को महत्व नहीं देते, किंतु कृष्ण को एक बौद्धिक पुरुष की परिणति के रूप में देखते हैं। सृष्टिवाद से जुड़ी इतनी सटीक व्याख्या करने के बाबजूद हाल्डेन की इस अवधारणा को भारतीय विकासवादियों व जीव विज्ञानियों ने कोई महत्व नहीं दिया। क्योंकि उनकी आँखों पर एक तो वामपंथी वैचारिकता का चश्मा चढ़ा था, दूसरे वे मैकाले की इस धारणा के अंध-अनुयायी हो गए थे कि संस्कृत ग्रंथ तो केवल पूजा-पाठ की वस्तु और कपोल-कल्पित हैं। धार्मिक प्रवचनकर्ता और टीकाकारों ने इन्हें खूब रेखांकित किया, किंतु वे धार्मिक आडंबर और लोक-परलोक के आध्यात्मिक खोल से बाहर नहीं निकल पाए। जबकि मानव अवतारों का प्रधान गुण आध्यात्मिक चिंतन की बजाय, अपने मूल्यों की रक्षा के लिए प्रतिरोध और क्रिया रहा है। क्रिया और क्रियाशील व्यक्तित्व के रूपों में ही हमने मानव अवतारों को सरल रूपों में अभिव्यक्त रामायाण और महाभारत के मूल में पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष अंतरर्निहित हैं। अर्थात समाज के भीतर नूतन और पुरातन मूल्यों के विस्थापन और स्थापन से ऊहापोह भरा संघर्ष है।
यदि हम इन अवतारों का गहराई से विज्ञान-सम्मत अध्यन करें तो हमारी प्रचलित अनेक मान्यताओं की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है। विभिन्न अवतारों से जुड़ी कथाओं और अंतर्कथाओं के मिथकीय आवरण को हम खोलते हैं और फिर वैज्ञानिक शोध व दृश्टांतों से जोड़कर उनका मूल्य व वस्तुपरक विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं, इनमें चमत्कारिक रूप से कई जटिल विषयों के व्यावहारिक गुण-सूत्र प्रच्छन्न हैं। ये अवतार सृष्टि के उद्गम से लेकर जैव विकास के ऐसे प्रतिमान हैं, जो भूलोक से लेकर खगोल तक विद्यमान थल, जल व नभ में विचरण करने वाले जीव-जगत की पड़ताल तो करते ही हैं, खगोलीय घटनाओं का वैज्ञानिक विवेचन और विष्लेशण भी करते हैं। इसीलिए इन अवतारों की परिधि में इतिहास और भूगोल तो हैं ही, ब्रह्माण्ड के रहस्य भी अंतनिर्हित हैं, धर्म, परिवार, समाज, देश, अर्थ, राजनीति, शिक्षा और अपनी-अपनी अस्मिता की स्थापनाओं के लिए युद्ध भी हैं। हजारों साल में विभक्त चार युगों का सामाजिक दर्शन है। गोया, इतने लंबे कालखंड में यह स्वाभाविक ही है कि वे सब विषय और उनके व्याख्याता भी होना चाहिए, जो मनुष्य को शारीरिक रूप से स्वस्थ और चेतना के स्तर पर जिज्ञासु बनाए रखने का काम करते हैं ? इसीलिए अवतारों की अंतर्कथाओं में खगोल, ज्योतिष, कालगणना, इतिहास, पुरातत्व जैसे विषय तो हैं ही, भौतिक, रसायन, जीव व वनस्पति विज्ञान भी हैं। जीवाश्म, मानव, नृतत्व और चिकित्सा शास्त्र भी हैं। उड़ान तकनीक और जैव प्रौद्योगिकी जैसे गूढ़तम विषय भी हैं। फलतः तय है, वैदिक धर्म व दर्शन अंधविश्वास से दूर जिज्ञासा और ¬प्रज्ञा पर आधारित है। प्रज्ञा (ज्ञान) और जिज्ञासा ही बौद्धिकता के वे मूल-भूत स्रोत हैं, जो ब्रह्माण्ड में स्थित जीव-जगत के वास्तविक रूप की अनुभूति और आंतरिक मर्म (रहस्य) को जानने के लिए आकुल-व्याकुल रहते हैं। इस वैज्ञानिक सोच को उपनिषद् काल में यूँ व्यक्त किया गया है,
यदा चर्मवदाकाशम् वेश्टयिस्यन्ति मानवाः
तदा देवम् अविज्ञाय् दुःखस्यान्तो भविष्यति।
अर्थात, जिस दिन लोग इस आकाश को चटाई की तरह लपेट कर अपने हाथ में ले लेंगे यानी ब्रह्माण्ड के रहस्यों को जान लेंगे, उस दिन इश्वर को जाने बिना मानवता के दुःखों को अंत हो जाएगा। फलतः दशावतार कवियों की कोरी कल्पना नहीं बल्कि जैव विकास-गाथा का पूरा एक कालक्रम हैं, इतिवृत्त हैं।
दशावतारों की वैज्ञानिकता: https://www.pravakta.com/scientific-reason-of-dashaavatar/