प्रमोद भार्गव
विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक के दौरान भारत के लिए जो बुरी खबर आई थी, वह 69वें गणतंत्र दिवस और आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्षों के अभिनंदन में कुछ दब सी जरूर गई है, जिसे रेखांकित किया जाना जरूरी है। डब्ल्यूईएफ की ओर से जारी समावेशी विकास सूचकांक में भारत उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले 103 देशों की सूची में 62वें स्थान पर है। इस सूचकांक में भारत अपने सभी पड़ोसी देशों से काफी पीछे है। इनमें चीन का 26वां, नेपाल 22वां, बांग्लादेश 34वां, श्रीलंका 40वां और पाकिस्तान का 47वां स्थान है। नार्वे दुनिया की सबसे अधिक समावेशी आधुनिक विकसित अर्थव्यवस्था वाला देश है। वहीं लिथुआनिया उभरती अर्थव्यस्थाओं में शीर्ष पर है। डब्ल्यूईएफ ने इस संकट के उभरने के कारणों में जीडीपी पर बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था को माना है। यही स्थिति असमानता को बढ़ा रही है। इस सूचकांक के आईने में भारत सरकार और वित्तमंत्री अरुण जेटली को समझने की जरूरत है कि आने वाला बजट ऐसा हो, जो समावेशी विकास को प्रोत्साहित करे। सरकार के पास संपूर्ण बजट प्रस्तुत करने का यह अंतिम अवसर है। यदि सरकार इससे चूक गई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘सबका साथ सबका विकास‘ का स्वप्न अधूरा रह जाएगा।
डब्लूईएफ इस सूचकांक में तीन मानकों को आधार बनाता है। एक रहन-सहन का स्तर, दो पर्यावरण को लेकर स्थिरता और तीन भविष्य की पीढ़ियों को कर्ज से बचाए रखने के प्रयासों में शामिल रखना। 103 देशों की अर्थव्यस्थाओं का आकलन प्रगति के तीन निजी बिंदुओं पर आधारित रहा है। ये हैं वृद्धि, विकास और समावेशन। देशों को भी दो हिस्सों में बांटा गया। इनमें 29 विकसित देश और 74 उभरती अर्थव्यस्थाओं वाले अर्थात विकासशील देश हैं। इस सूचकांक में पांच साल के समावेशी विकास एवं वृद्धि के रुख पर विभिन्न देशों को पांच उप श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। ये हैं घटना, धीरे-धीरे घटना, स्थिरता, धीमी वृद्धि या वृद्धि। भारत का कुल परिणाम निचले स्तर पर है, बावजूद यह संतोष की बात है कि वह उन 10 उभरती अर्थव्यस्थाओं में शामिल है, जो उत्तरोत्तर प्रगाति कर रही हैं।
वाकई सत्तारुढ़ दल चाहता है कि देश का विकास समावेशी हो और असमानता की खाई घटे, तो उसका राष्ट्रीय धर्म और दायित्व बनता है कि वह एक तो ग्राम और कृषि आधारित बजट को प्राथमिकता दे, दूसरे लघु व कुटीर उद्योगों को बचाने की पहल करे। दरअसल राजग सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से ही कृषि, किसान और लद्यु उद्योग सरकार के खोखले वादों का शिकार हो रहे हैं। हालांकि सरकार ने जनधन, उज्जवला और प्रधानमंत्री आवास योजना के माध्यम से गरीब और वंचित आबादी के बुनियादी हित साधने की अहम् पहल की है। लेकिन जब तक किसान की उपज को बाजिव दाम नहीं मिलते हैं, तब तक उसकी आजीविका और रहन-सहन के इंतजाम पुख्ता होने वाले नहीं है।
2014 में जब अरुण जेटली ने अपना पहला बजट प्रस्तुत किया था, तब जिन पांच क्षेत्रों में ध्यान देने की जरूरत जताई गई थी, उनमें खेती से होने वाली आय सबसे ऊपर थी। लेकिन 2014 और फिर 2015 में सूखा और बाढ़ के प्रकोंपो के चलते 2016 और 2017 में खेती से होने वाली आमदनी निचले स्तर पर लुढ़क गई। नतीजतन किसान आत्महत्याओं का सिलसिला जारी रहा। किसान सड़कों पर फसल फेंकने को मजबूर हुए। किसानों का सड़कों पर गुस्सा फूटने की आवृत्ति भी बढ़ी। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के मुताबिक 2014 में जहां किसान आक्रोश से जुड़े प्रदर्शनों की संख्या 628 थी, वह 2016 में बढ़कर 4837 हो गई। यह बढ़ोत्तरी 670 फीसदी है। यही नहीं मध्य-प्रदेश के मंदसौर में किसानों का जो गुस्सा बीते साल फूटा, उसमें नियंत्रण के बहाने पुलिस द्वारा चलाई गोलियों की जद में आए छह किसानों ने दम भी तोड़ दिया था। देश की आबादी का पेट भरने वाले उत्पादक समाज की यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। लिहाजा सरकार के पास यह अखिरी मौका है कि वह फसल का न्यूनतम सर्मथन मूल्य बढ़ाकर किसान की आमदनी में वृद्धि का नीतिगत उपाय करे।
सरकार सप्रंग की रही हो या राजग की अकसर पिछले दरवाजों से वाणिज्यिक खेती के द्वार खोलने की कोशिशें होती रही हैं। दरअसल कृषि क्षेत्र में करीब 60 प्रतिशत लोग सेवारत हैं। बावजूद हमारी जीडीपी में उनका योगदान महज 14 फीसदी है। इसलिए इस मर्ज की दवा यह बताने की कोशिश की जाती है कि वाणिज्यिक खेती का रास्ता प्रशस्त किया जाए। मघ्य-प्रदेश सरकार व्यापारियों को लीज पर कृषि भूमि देने का प्रारूप मंत्रीमंडल से पारित भी करा चुकी है। यही नहीं कार्पोरेट खेती के इन उपायों में ऐसे नीतिगत प्रबंध करने की मंशा भी है कि इस खेती में विदेशी पूंजी निवेश के रास्ते भी खोल दिए जाएं। जिससे किसान वैसी फसलें उगाने को अनुबंधित हो जाए, जिनका बाजार में मूल्य व्यवसायी को अधिकतम मिले। परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने भी रायपुर में संपन्न हुए राष्ट्रीय कृति मेले में यही मंशा जताते हुए कहा है कि किसान वही फसलें उगाएं, जो फायदेमंद हैं। लेकिन वाणिज्यिक कृषि लाने से संकट घटने की बजाय बढ़ेगा ही। दूसरे किसान अनुबंध के जरिए नौकरशाह और कुटिल व्यापारियों के ऐसे चुंगल में फंस जाएगा कि उसे भविष्य में अपने स्वत्व की भूमि मुक्त कराना भी मुश्किल हो जाएगा। विडंबना यह भी है कि जिन राज्यों में कृषि का बाजारीकरण हुआ है, वहां के किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्याएं की हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और पंजाब में मरते किसान इसी छद्म की परिणती हैं। अब मध्य-प्रदेश और उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र भी इसी दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं। जबकि इसके उलट पुरानी तकनीक और देशज संसाधनों से खेती-बाड़ी करने वाले बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं। सिक्किम ने तो जैविक खेती के जरिए उत्पादन में वृद्धि के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। साफ है, खेती का बाजारीकरण कृषि और किसान की समस्या का उचित समाधान नहीं है।
लघु उद्योग क्षेत्र में मनमोहन सरकार ने विदेशी कंपनियों के निवेश की 24 प्रतिशत की सीमा खत्म कर दी थी। इधर हाल ही में नरेंद्र मोदी सरकार ने खुदरा ब्रांड में 100 फीसदी निवेश की छूट देकर एक तरह से लघु उद्योगों और गली-मोहल्ले के दुकानदारों को संकट में डालने का काम किया है। आजादी के बाद से सरकार लघु उद्योगों को सरंक्षण देती रही है। इस सरंक्षण की वजह से देशभर में ऐसे उद्यमियों को अपने उद्योग खड़े करने का मौका मिला, जिनके पास बड़ी पूंजी नहीं थी और जो स्वतंत्र रूप से अपना काम चलाने की इच्छा रखते थे। एक समय में लगभग 816 उत्पाद इस क्षेत्र के लिए आरक्षित थे। वर्तमान में ऐसे उत्पादों की संख्या 124 ही रह गई है। भूमंडलीकरण के पहले तक बड़ी संख्या में लघु उद्योग, बड़े और मझोले उद्योगों की सहायक इकाइयों के रूप में भी काम करते थे। गुणवत्ता के कड़े मापदंडों की वजह से सहायक इकाइयों की भूमिका उत्तरोत्तर घटती गई। बहुत से लघु उद्योगों ने इसलिए दम तोड़ दिया, क्योंकि उनके लिए आरक्षित बहुत से उत्पादों का चीन और दूसरे देशों से सस्ता आयात होने की वजह से प्रतिस्पर्धी बाजार में खड़े रह पाना, उनके लिए संभव नहीं रहा। शायद वैश्वीकरण उनके लिए यही नियति लिखकर लाया था। गोया, लघु उद्योग, खुदरा ब्रांड और कृषि में निवेश, किसे कितना बचा पाएगा और किसे तारेगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में जरूर है, लेकिन सरकार के पास अंतिम अवसर है कि वह इस बजट में इन्हें तारने के कारगर उपाय करे। क्योंकि सरकार और वित्तमंत्री भलीभांति जानते है कि मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद किसानों के कर्ज तो महज 75000 करोड़ रूपए के माफ किए गए है, लेकिन 2016-17 में ही बैंकों ने चुपचाप औद्योगिक घरानों के 77,123 करोड़ रुपए का फंसा कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया। नतीजतन एनपीए बढ़कर 9.5 लाख करोड़ हो गया। उद्योग जगत की आर्थिक स्थिति बहाल रखने के उपाय जब नीतिगत रूप से किए जा रहे हैं, तो फिर किसान की माली हालत सुरक्षित रखने के उपाय क्यों नहीं किए जा सकते हैं।
प्रमोद भार्गव