शिक्षा से वंचित बीड़ी मजदूरों की बेटियां

अशोक सिंह

झारखण्ड के संताल आदिवासी बहुल क्षेत्र संताल परगना में वैसे तो बीड़ी जैसे घरेलू उद्योग का कारोबार बहुत बड़े पैमाने पर नहीं है लेकिन यहाँ के कुछ खास जिलों के चुनिंदा प्रखण्डों में सैकडों परिवार बीड़ी बनाने के कार्य में लगें हैं और यही उनकी जीविका का मुख्य साधन भी है। इस क्षेत्र के जरमुण्डी और सरैयाहाट प्रखण्ड, पाकुड और साहेबगंज जिले के कई प्रखण्डों के साथ-साथ जामताड़ा एवं देवघर में भी बीड़ी बनाने वाले परिवारों की एक बड़ी आबादी शामिल है। पाकुड़ और देवघर जिले इसके लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। चूंकि आदिवासी समुदाय में बीड़ी पीने का प्रचलन नहीं है, यह समुदाय हड़िया और पोचई (स्थानीय मदिरा) के सेवन का आदि रहा है। इसके विपरीत दलित एवं पिछड़े समुदायों में दारू-ताड़ी की अपेक्षा बीड़ी सेवन का प्रचलन ज्यादा दिखता हैं। शायद इसलिए आदिवासी समुदाय का बीड़ी के कारोबार से कोई ताल्लुक नहीं हैं। जबकि दलित समुदाय में इसके सेवन की अधिकता के कारण यह समुदाय इसके कारोबार से जुड़ा है। एक और मुख्य वजह जो यह देखने-सुनने और समझने को मिलता है कि आदिवासी समुदाय के पास पर्याप्त जमीन है इसलिए वे सीधे खेती-बाड़ी से जुड़े हैं। ठीक इसके विपरीत दलित समुदाय के पास पर्याप्त जमीन नहीं हाती है इसलिए यह समुदाय खेती-बाड़ी की अपेक्षा अपने घरेलू कारोबार से ज्यादा जुड़ा दिखाई देता है और वह मुख्य कारोबार बीड़ी बनाने का है। गुरबत के कारण बीड़ी बनाने के कारोबार में लगे ऐसे परिवारों के बच्चे विशेषकर लड़कियाँ सीधे तौर पर व्यवसाय से जुड़ी दिखाई पड़ती हैं, जिसके कारण वे स्कूली शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार से वंचित अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं। जो इस क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है।

पाकुड़ और साहेबगंज जिले में भी बीड़ी बनाने वाले लोगों में ज्यादातर दलित समुदायों के ही लोग हैं जो आर्थिक रूप से अत्याधिक कमजोर हैं। इसी के कारण ही इस समुदाय के बच्चों में शिक्षा का अलख नहीं जग पा रहा है। हालांकि सरकार द्वारा स्कूल में लागू मध्‍याह्न भोजन का काफी प्रभाव पड़ा है और अब पहले की अपेक्षा इनके बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। बीड़ी बनाने के काम में लगे मजदूरों के बच्चे और उनमें शिक्षा के स्तर को जानने के लिए जब जनमत शोध संस्थान द्वारा एक सैंपल सर्वे किया तो पाया गया कि उनमें शिक्षा का स्तर औसत से भी काफी नीचे है। कॉलेज स्तर तक की पढ़ाई करने वाले तो उंगली पर गिनने के लिए दो-चार ही हैं। उधवा प्रखण्ड के एक गाँव में करीब 25 घरों में बीड़ी मजदूर इस करोबार से लगे हैं। उन परिवारों में तीन-चार सदस्य ही हैं, जो कॉलेज तक पहुँच जाये परंतु वह भी पढ़ाई अधूरी ही छोड़ कर मजदूरी के काम में लग गये हैं। इस समुदाय में आम तौर पर यह देखा गया कि बच्चों को स्कूल तो भेजा जाता है परंतु जैसे ही उनकी उम्र समझदारी के लायक होती है उन्हें बीड़ी कारोबार में धकेल दिया जाता है।

सर्वे में जो सबसे चिंता की बात सामने आई वह है लड़कियों की शिक्षा का अति निम्न स्तर का होना। जब बीड़ी बनाने वाले परिवारों में लड़कियों की स्कूली शिक्षा को लेकर बात की गयी तो पता चला कि कोई भी लड़की मिडिल स्कूल से ऊपर नहीं पढ़ पाई है। इसके कई कारणों में एक संकीर्ण विचारधारा का हावी होना है। पुरूषसत्तावादी परंपरागत विचारधारा से जुड़े लोगों ने महिलाओं को पढ़ने-लिखने पर रोक लगा रखी थी और बाद में सरकार ने भी इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया परिणामस्वरूप इसका नकारात्मक प्रभाव दलित और निचले तबके की महिलाओं पर पड़ा। पाकुड़ और साहेबगंज में मोटे तौर पर देखा गया कि आज भी गाँव की शत-प्रतिशत बालिकाएँ स्कूल नहीं जा पा रही हैं। विषेशकर 15 साल के बाद आगे की पढ़ाई जारी रखना उनके लिए मुष्किल साबित हो रहा है। परिवार की इच्छा नहीं होती है, या फिर आर्थिक संकट मंडराने लगता है। गांव-देहातों में यह आम धारण्ाा हैं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना ठीक नहीं हैं। कहीं कहीं तो स्कूल की दूरी की वजह से भी लड़कियां आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख पाती हैं।

गांव की अपेक्षा शहरों में बीड़ी बनाने के काम में लगे मजदूरों की बेटियाँ कुछ हद तक स्कूल जा पाती हैं, परंतु इसे भी सफल नहीं कहा जा सकता है क्योंकि कुछ ने अपना नाम लिखने तक पढ़ कर छोड़ दिया तो कुछ लड़कियों के पैरों को उनके घर की कमजोर आर्थिक दशा ने स्कूल जाने से रोक दिया। कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें पढ़ने का मौका भी मिला तो उनकी कम उम्र में ही शादी हो गयी और फिर शिक्षा से हमेशा हमेशा के लिए नाता टूट गया। दरअसल परिवार वालों में यह मानसिकता घर कर चुकी है कि यदि बेटी को पढ़ाया जाये तो फिर उसके अनुसार लड़का खोजना होगा और फिर एक मोटी रकम दहेज में भी खर्च करना पड़ेगा। ऐसे में शिक्षा पर होने वाले खर्च को बचाकर उसके लिए दहेज की रकम जुटाना ज्यादा बेहतर सौदा नजर आता है। हालांकि अब शहरी वातावरण में रहने के कारण इन बीड़ी मजदूरों की मानसिकता में भी तेजी से बदलाव देखा जा रहा है और बेटियों के शिक्षा के संबंध में उनमें भी जागृति आ रही है। उन्हें अब इस बात का अहसास होने लगा है कि यदि बेटी को कॉलेज तक नहीं भी पढ़ा पाये तो कम से कम मैट्रिक तक तो पढ़ा ही लेना चाहिए। समाजिक मानसिकता में हो रहे इस बदलाव के पीछे नई नस्ल का एक बड़ा रोल है जो अपनी शादी के लिए पढ़ी-लिखी लड़की खोजते हैं। भले ही इन समुदायों में शिक्षा के प्रति चेतना जागृत हुई है और वे बच्चियों को स्कूल भेजने लगे हैं, मगर अभी भी लड़के और लड़कियों में शिक्षा के स्तर पर भेद स्पष्‍ट दिखता है। आर्थिक स्थिती कमजोर होने का सबसे बड़ा नुकसान लड़कियों को ही उठाना पड़ता है। जिन्हें घर के लड़कों के लिए अपने अंदर जल रही शिक्षा की लौ को न चाहकर भी बुझाना पड़ता है।

आवश्‍यकता है इन बीड़ी मजदूरों के अंदर शिक्षा के प्रति विशेष रूप से जागरूता अभियान चलाने की। ऐसे समय में जब देश में शिक्षा अधिकार अधिनियम लागू हो चुका है और हर जाति वर्ग-समुदाय के बच्चों को स्कूली शिक्षा से जोड़ने की मुहिम तेज हो गयी है, ऐसे में बीड़ी बनाने के काम में लगे दलित परिवारों के बच्चों विशेषकर बालिकाओं को आज भी स्कूलों से बाहर अपने माता-पिता के साथ घर की दहलीज पर बीड़ी गुंथते हुए देखा जाना कहीं न कहीं धरातल पर हमारी योजनाओं की कमियों की ओर इशारा कर रही हैं। सच तो यही है कि इन समुदायों में शिक्षा के प्रति जागरूकता उस वक्त तक संभव नहीं है जब तक उन्हें आर्थिक रूप से सबल नहीं बनाया जाता है। इसके लिए बिचौलिया राज खत्म करके सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी अदा की जाए तथा असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों (इनमें बीड़ी मजदूर भी शामिल हैं) के लिए सरकार द्वारा बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं से उन्हें लाभान्वित करवाया जाए। अन्यथा योजनाओं के रहते हुए भी इन बीड़ी मजदूरों की बेटियों में शिक्षा के प्रति ललक धुंए में उड़ती चली जाएगी। (चरखा फीचर्स)

(लेखक झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कई वर्षों से कार्य कर रहे हैं साथ ही स्वंतत्र पत्रकार के रूप में विभिन्न विषयों पर लेखन कार्य के माध्यम से नीति निर्धारकों का ध्यान भी आकृष्‍ट करते रहे हैं) 

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