–मनमोहन कुमार आर्य
हम विगत अनेक वर्षों से इस संसार में रह रहे हैं। सभी मनुष्यों की अपनी–अपनी जन्म तिथी है। यह जन्म तिथि किसकी है? क्या यह हमारी आत्मा की जन्म तिथि है या हमारे शरीर की है? वस्तुतः यह हमारे शरीर की जन्म तिथि है। आत्मा की जन्म तिथि तो कोई भी नहीं जानता? यह सिद्धान्त है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु होना निश्चित है। हम देखते हैं कि हमसे पूर्व जो मनुष्य उत्पन्न हुए थे, हमनें उन्हें अपने जीवन काल में मरते हुए देखा है। जो बचे हुए हैं उनकी भी एक दिन मृत्यु होना निश्चित है। जन्म व मृत्यु के ही रहस्य को सभी जानते व मानते हैं। जो हमसे आयु में छोटे हैं वह भी आने वाले समय में आगे–पीछे मरेंगे। यह शाश्वत् सिद्धान्त है। ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च’ यह गीता का वचन है जिसमें कहा गया है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होनी निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म होना निश्चित होता है। हमारा जन्म होना आत्मा की उत्पत्ति नहीं है अपितु यह परमात्मा के नियमों के अनुसार हमारे शरीर की उत्पत्ति को कहा जाता है। आत्मा तो अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर तथा अविनाशी है। आत्मा चेतन तत्व है। चेतन का अर्थ है कि आत्मा को शरीर से संयुक्त होने पर ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सुख व दुःख की अनुभूति होती है। शरीर के भीतर सुख व दुःख की अनुभूति जिस पदार्थ व सत्ता को होती है उसी को आत्मा कहा जाता है। शरीर तो जड़ पदार्थों से बना हुआ है जिसका धर्म ज्ञानयुक्त पदार्थ न होकर जड़ता आदि गुणों से युक्त पदार्थ है। जड़ पदार्थ भौतिक पदार्थों को कहते हैं। इन भौतिक पदार्थों को सुख व दुःख की किसी भी प्रकार से अनुभूति नहीं होती। यही कारण है कि मृत्यु होने पर मृतक शरीर को लकड़ियों पर रखकर वैदिक रीति से जलाया जाता है परन्तु जड़ शरीर में अग्नि से जलने पर भी सुख व दुःख की अनुभूति नहीं होती जबकि जीवित शरीर का कोई एक स्थान भी अग्नि के सम्पर्क में आ जाये तो वह पीड़ा से चिल्ला उठता है। मृतक शरीर को काटा जाये तब भी उसे कुछ भी पीड़ा नहीं होती। इसका कारण यह होता है कि शरीर से आत्मा सूक्ष्म शरीर सहित निकल कर ईश्वर की व्यवस्था से अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म लेने के लिए भावी पिता व उसके बाद माता के शरीर में प्रवेश करती है। यह वैदिक सिद्धान्त है जो कि सत्य व प्रामाणिक है।
प्रश्न है कि मनुष्य का शरीर तो जन्म के बाद आगे के 100 वर्षों व उससे कुछ कम व अधिक आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। क्या यही आत्मा की भी आयु है? इसका उत्तर है कि नहीं, शरीर की मृत्यु वा उसकी आयु आत्मा की आयु नहीं है। आत्मा की तो कभी उत्पत्ति ही नहीं हुई और न कभी इसकी मृत्यु, नाश वा अभाव होता है। इस कारण से आत्मा को अनादि कहा जाता है। अनादि का अर्थ है कि जिसका आदि वा आरम्भ न हो। यह जानने योग्य तथ्य है कि संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं। यह पदार्थ हैं ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर व जीव चेतन पदार्थ हैं जबकि प्रकृति जड़ है। यह तीनों अनादि पदार्थ सूक्ष्म हैं। ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म है जबकि आत्मा मूल व कारण प्रकृति से अधिक सूक्ष्म तथा प्रकृति आत्मा से किंचित स्थूल होने पर सूक्ष्म ही होती है। यदि आत्मा व अन्य दो नित्य पदार्थों को अनादि नहीं मानेंगे तो फिर इनकी उत्पत्ति माननी होगी। उत्पत्ति को मानेंगे तो फिर यह बताना होगा कि इन्हें बनाने वाला निमित्त कारण कौन है और उपादान कारण क्या है? यदि यह कहते हैं कि निमित्त कारण ईश्वर है तो फिर जीव व प्रकृति का उपादान कारण बताना होगा जो कि कोई नहीं जानता क्योंकि जीवात्मा और मूल प्रकृति का उपादान कारण है ही नहीं। ईश्वर का अस्तित्व स्वयंभू है और वह हमेशा से है। किसी सत्तावान पदार्थ का उपादान कारण उसे कहते हैं जिससे कि वह व उससे इतर कोई पदार्थ बनता है। मिट्टी से घड़ा बनता है अतः मिट्टी घड़े का उपादान कारण कहलाती है। कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है, उसे निमित्त कारण कहते हैं। प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म है। उससे सूक्ष्म जड़ पदार्थ अन्य कोई नहीं है। अतः यह सूक्ष्मतम भौतिक जड़ पदार्थ किस पदार्थ से बना, इसका उत्तर यही है कि प्रकृति बनी नहीं है और न ही बनायी गयी है अपितु यह सदा से, अनादि काल से अपने कारणरूप में रहती है और यही सभी जड़ व भौतिक पदार्थों का उपादान कारण है जिससे परमात्मा सृष्टि की रचना करते हैं। जीव व परमात्मा भी अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ व सत्तायें हैं, इनका उपादान कारण न होने से यह संसार वा आकाश में सदा से रहते हैं। इनकी कभी किसी अन्य पदार्थ से उत्पत्ति नहीं हुई है। अतः ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि सत्तायें हैं। यह तीनों पदार्थ निमित्त व उपादान कारण से रहित सिद्ध होते हैं।
हमने शरीर की आयु के विषय में बता दिया है कि यह मनुष्य के जन्म से आरम्भ होकर आगामी 100 वर्ष से कम व कुछ अधिक हो सकती है तथा सभी मनुष्यों की अलग अलग होती है। जीवात्मा आयु से रहित है। यह सदा से अर्थात् अनादि काल से है और हमेशा अर्थात् अनन्त काल तक रहेगा। इसका कभी अन्त अर्थात् मृत्यु वा नाश नहीं होगा। जीवात्मा के अनादि होने का अर्थ है कि हमारी आत्मा की कभी उत्पत्ति नहीं हुई। इससे यह जाना जा सकता है कि हम सदा से हैं और इस प्रकार पूर्व व भूतकाल में हमारे भिन्न भिन्न योनि में असंख्य व अनन्त बार जन्म हो चुके हैं। हम संसार में जितनी भी योनियां देखते हैं उनमें हम अनेक अनेक बार जन्म ले चुके हैं और उतनी ही बार मर भी चुके हैं। वेद विहित सत्कर्मों को करने के परिणाम से हमारे अनेक बार मोक्ष भी हो चुके हैं। यह सिलसिला हमेशा जारी रहेगा। इस कारण मृत्यु आने पर यदि यह वृद्धावस्था में होती है तो हमें दुःखी नहीं होना चाहिये अपितु यह जानना चाहिये कि मृत्यु के बाद हमारा हमारे कर्मों के अनुसार श्रेष्ठ व निकृष्ट जन्म होगा। हम जन्म से पूर्व पहले पिता के शरीर में व फिर माता के गर्भ में रहेंगे। फिर हमारा जन्म होगा और हम पुनः शिशु बनेंगे। इसके बाद किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और पुनः वृद्धावस्था से गुजर कर मृत्यु को प्राप्त होंगे। इस प्रकार हमारी आत्मा की वर्तमान आयु अनादि काल अर्थात् न जान सकने योग्य सुदीर्घ काल है जिसे अनन्त वर्ष भी कह सकते हैं। भविष्य में भी हमारी आत्मा हमेशा रहेगी और मनुष्यों में किए कर्मों के अनुसार इसे भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म-मरण सहित मोक्ष की प्राप्ति होती रहेगी।
मनुष्य जन्म का उद्देंश्य क्या है? इसका उत्तर है कि शरीर की उन्नति सहित हमें आत्मा की उन्नति और अपनी सामाजिक उन्नति करनी है। शरीर की उन्नति से हमारी आयु बढ़ने सहित ज्ञान प्राप्ति की क्षमतायें बढ़ती है और ऐसा होने पर हमारी आत्मिक उन्नति से हमारे ईश्वर, आत्मा तथा भौतिक पदार्थों के ज्ञान की वृद्धि भी होती है। ईश्वर ज्ञानमय है। आत्मा भी ईश्वर की संगति व उपासना अथवा स्वाध्याय आदि से ज्ञान की प्राप्ति करती है। ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानानुरूप कर्म करने से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होती है और वह मृत्यु के बाद श्रेष्ठ मनुष्य व देव योनि में उत्पन्न होती है। जिनका ज्ञान व कर्म श्रेष्ठ होते हैं उन्हें जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही आत्मा व मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। मोक्ष आनन्द की अवस्था है। मोक्ष प्राप्त होने पर सभी दुःखों का नाश हो जाता है। आत्मा दीर्घ अवधि तक मोक्ष सुख को भोग कर पुनः माता-पिता से मनुष्य जन्म को प्राप्त करती है। अतः सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषि ग्रन्थों सहित उपनिषदों, दर्शनों व वेद आदि साहित्य का अध्ययन करना चाहिये और ईश्वरोपासना आदि श्रेष्ठ कार्यों को करके अपनी आत्मा की उन्नति वा विद्या की वृद्धि सहित मोक्ष प्राप्ति करनी चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य