तीन बहनों की मौत से उपजे सवाल

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ललित गर्ग-
राष्ट्रीय राजधानी में भूख से तीन बच्चियों की मौत की दर्दनाक एवं शर्मनाक घटना ने समूचे राष्ट्र की चेतना को झकझोर दिया है। यह दिल दहला देने वाली घटना जहां आम आदमी पार्टी सरकार द्वारा गरीबों के लिए कई तरह की सुविधाएं देने के दावों को कठघरे में खड़ा करती है, वहीं यह समाज के असंवेदनशील रवैये को भी उजागर करती है। यह अत्यंत निराशाजनक है कि उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के क्षेत्र पूर्वी दिल्ली में रह रहे परिवार में पिता के नशेड़ी और मां के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण तीन बच्चियों को कई दिनों से खाना नहीं मिला। इन बच्चियों को कभी कोई पड़ोसी खाना दे देता था और कभी ये भूखी ही रह जाती थीं। मकान मालिक के घर खाली करने की बात पर पिता उन्हें दूसरे इलाके में अपने जानकार के पास ले गया, जहां दो-तीन दिन भूखे रहने के कारण अंततः तीनों बच्चियों ने दम तोड़ दिया। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने दिल्ली सरकार की गरीबों के लिए काम करने की पूरी व्यवस्था पर ही सवाल खड़े का दिये हैं।
भूख, गरीबी एवं अभाव से उपजी भुखमरी से बच्चियों का मर जाना हो या किसी व्यक्ति का भिखारी बन जाना – यह राष्ट्र के लिए अभिशाप है क्योंकि देश में प्रगति की बात हो रही है, और आर्थिक स्तर भी ऊँचा होने के सपने दिखाये जा रहे हैं। लेकिन इन सभी के बीच किसी ने शायद गांवों की बात नहीं, राजधानी के उस तबके के बारे में नहीं सोचा, जहाँ फटे-टूटे फूस के आंगन में भूख, भुखमरी और भिखारी एक साथ जन्म लेते हैं। राजनेता से लेकर अर्थशास्त्री तक चाहें कुछ भी कहें, लेकिन उनके खोखले सिद्धान्त जब इन कमजोर एवं त्रासद परिस्थितियों से टकराते हैं तो उनके बड़े-बड़े दावें खोखले नजर आते हैं।
मंडावली में तीन बच्चियों के मरने की घटना लोगों में सामाजिक जुड़ाव खत्म होने और दूसरों के दुख-दर्द से मुंह मोड़ने की विगत कुछ वर्षो में पैदा हुई संवेदनहीनता की प्रवृत्ति का जीता जागता उदाहरण है। यह स्थिति अत्यंत निराशाजनक है। यदि किसी को भरपेट भोजन मिल रहा है और उसके पड़ोस में कोई भूखा मर रहा है तो यह सभ्य समाज में कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसे देखते हुए धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं को आगे आना चाहिए और समाज को संवेदनशील बनाने के प्रयास करने चाहिए। दिल्ली सरकार को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आर्थिक रूप से कमजोर हर व्यक्ति को राशन मिले और भूख से किसी की जान न जाने पाए। केन्द्र सरकार भी इस तरह की त्रासद एवं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिये जिम्मेदार है। क्योंकि वर्तमान आर्थिक नीतियां गरीबों को दिन-ब-दिन गरीब बनाती चली जा रही हैं और अमीरों को और अधिक अमीर बनाती चली जा रही हैं। नरसी मेहता रचित भजन ‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे’’ गांधीजी के जीवन का सूत्र बन गया था, लेकिन यह आज के नेताओं का जीवनसूत्र क्यों नहीं बनता? क्यों नहीं आज के राजनेता, समाजनेता और धर्मनेता पराये दर्द को, पराये दुःख को अपना मानते? क्यों नहीं जन-जन की वेदना और संवेदनाओं से अपने तार जोड़ते? बर्फ की शिला खुद तो पिघल जाती है पर नदी के प्रवाह को रोक देती है, बाढ़ और विनाश का कारण बन जाती है। देश की प्रगति में आज ऐसे ही बाधक तत्व उपस्थित हैं, जो जनजीवन में आतंक एवं संशय पैदा कर उसे अंधेरी राहों मेें, निराशा और भय, गरीबी एवं अभाव की लम्बी काली रात के साये में धकेल रहे हैं। हमारा नेतृत्व गौरवशाली परम्परा, विकास और हर खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर उनकी नेकनीयती की वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है।
तीन बच्चियों ने भूख से मर कर देश की शासन व्यवस्था पर एक कलंक लगाया है और ऐसा कडवा सत्य उजागर किया है कि अब लोगों की आत्मा मर चुकी है। क्या हम इतने निर्दयी और निष्ठुर हो गए हैं कि पड़ोस में भूख से तड़पते बच्चों की आह कानों तक नहीं पहुंचती। कल को यह परिस्थिति यदि हमारे घर हो तो क्या करेंगे? सरकार आंगनबाड़ी से लेकर मिड-डे-मिल, इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन सरीखी कई योजनाएं चलाती है। जिसमें इस तरह के बच्चों की मदद की जाती है। यदि लोग थोड़े से जागरूक होते, पुलिस, बाल आयोग या फिर किसी एनजीओ को फोन कर जानकारी देते तो शायद ये तीनों बच्चियां आज जिंदा होतीं। क्यों दिल्ली का दिल अब भूख देख नहीं पसीजता? नहीं तो क्या कारण है कि चैक चैराहों पर कबूतरों को दाना डालना, पशुओं को भोजन देने में आगे रहने वाले दिल्लीवासियों को बच्चियों की भूख नहीं दिखाई दी। विडम्बनापूर्ण है कि चैड़ी सड़कें, गगनचुंबी इमारतें, फर्राटा भरती मेट्रो और विकास के पैमाने पर सरकार के आंकड़ों की बाजीगरी के बीच तीन सगी बहनों ने दाने-दाने के लिए हफ्तों संघर्ष किया। पड़ोसियों के रहमोकरम पर रुखी-सूखी रोटी भले ही कभी कभार नसीब हो जाती, लेकिन सरकार व प्रशासन तक उनकी पेट की आग नहीं पहुंची, दूरदराज के गांवों की बात तो दूर है। दिल्ली की यह घटना ऐसी है कि जो भी सुने उसका सिर शर्म से झुक जाए।
आज का भौतिक दिमाग कहता है कि घर के बाहर और घर के अन्दर जो है, बस वही जीवन है। लेकिन राजनीतिक दिमाग मानता है कि जहां भी गरीब है, वही राजनीति के लिये जीवन है, क्योंकि राजनीति को उसी से जीवन ऊर्जा मिलती है। यही कारण है कि इस देश में सत्तर साल के बाद भी गरीबी कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है, जितनी गरीबी बढ़ती है उतनी ही राजनीतिक जमीन मजबूती होती है। क्योंकि सत्ता पर काबिज होने का मार्ग गरीबी के रास्ते से ही आता है। बहुत बड़ी योजनाएं इसी गरीबी को खत्म करने के लिये बनती रही हैं और आज भी बन रही हैं। लेकिन गरीब खत्म होते गये और गरीबी आज भी कायम है। हम जिन रास्तों पर चल कर एवं जिन योजनाओं को लागू करकेे देश में क्रांति की आशा करते हैं वे ही योजनाएं कितनी विषम और विषभरी है, इसका अन्दाजा मंडावली की घटना से चल जाता है। सभी कुछ अभिनय है, छलावा है, फरेब है। सब नकली, धोखा, गोलमाल, विषमताभरा। प्रधानमंत्रीजी का लोक राज्य, स्वराज्य, सुराज्य, रामराज्य का सुनहरा स्वप्न ऐसी नींव पर कैसे साकार होगा? यहां तो सब अपना-अपना साम्राज्य खड़ा करने में लगे हैं।
सरकारी योजनाओं की विसंगतियां ही है कि गांवों में जीवन ठहर गया है। बीमार, अशिक्षित, अभावग्रस्त, विपन्न मनुष्य मानो अपने को ढो रहा है। शहर सीमेन्ट और सरियों का जंगल हो गया है। मशीन बने सब भाग रहे हैं। मालूम नहीं खुद आगे जाने के लिए या दूसरों को पीछे छोड़ने के लिए। कह तो सभी यही रहे हैं–बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है। रोटी केवल शब्द नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी परिभाषा समेटे हुए है अपने भीतर। जिसे आज का मनुष्य अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर लेता है। रोटी कह रही है-मैं महंगी हूँ तू सस्ता है। यह मनुष्य का घोर अपमान है। रोटी कीमती, जीवन सस्ता। मनुष्य सस्ता, मनुष्यता सस्ती। और इस तरह गरीब को अपमानित किया जा रहा है, यह सबसे बड़ा खतरा है।
कड़वा सत्य है कि तरक्की के तमाम दावों के बावजूद गरीब कैसी असहायता की हालत में जी रहे हैं और उनके कल्याण की बात करने वाले राजनेता कितनी एय्याशी भोग रहे हैं। सरकारी योजनाओं की जमीन एवं सच्चाई कितनी भयावह एवं भद्दी है, हमारी सोच कितनी जड़ हो चुकी है, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हम रईसों की दुनियां में गिने ही जाते है। यूँ तो गरीबी, भूख, भुखमरी और भिखारी का चोली दामन का साथ है लेकिन इस देश की बदकिस्मती है कि यहाँ भूख, भुखमरी और गरीबी किसी को नजर नहीं आती है।
हम भ्रष्टाचार के मामले में तो दुनिया में अव्वल है ही लेकिन गरीबी के मामले में भी हमारा ऊंचा स्थान है। गतदिनों एक शोध संस्थान द्वारा ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी विश्व भूख सूचकांक जारी किया था। इस सूचकांक ने बताया कि भारत में भुखमरी के कगार पर जीने वालों और अधपेट सोने को मजबूर लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है। अगर गरीबों के साथ अपमानजनक व्यवहार पर कोई अध्ययन हो, तो उसमें भी भारत नंबर एक पर ही दिखेगा।
गांधी और विनोबा द्वारा सबके उदय के लिए ‘सर्वोदय’ की बात की गई। उसे निज्योदय बना दिया गया है। जे. पी. ने जाति धर्म से राजनीति को बाहर निकालने के लिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। जो उनको दी गई श्रद्धांजलि के साथ ही समाप्त हो गया। ‘गरीबी हटाओ’ में गरीब हट गए। स्थिति ने बल्कि नया मोड़ लिया है कि जो गरीबी के नारे को जितना भुना सकते हैं, वे सत्ता प्राप्त कर सकते हैं। कैसे समतामूलक एवं संतुलित समाज का सुनहरा स्वप्न साकार होगा? कैसे मोदीजी का नया भारत निर्मित होगा? सच तो यह है कि भारत की चकाचैंध फैलाने में लगी केन्द्र सरकार रोशनी के नीचे व्याप्त अंधियारे को या तो देखना नहीं चाहती, या वह जानबूझ कर इस कड़वे सच से आँख मूंद वैश्विक पटल पर अपने झंडे गाड़ना चाहती है। तमाम प्रयासों के बाद भी वह न तो गरीब पर अंकुश लगा पायी हैं और न ही गरीबी को दूर कर पायी, जो गहन चिन्तनीय है।

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