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एकात्म मानववाद के प्रवर्त्तक पंडित दीनदयाल उपाध्याय

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अशोक प्रवृद्ध

एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को अत्यधिक महत्त्व देते हुए उस पर सदा आरूढ़ रहने वाले भारतीय जनसंघ के नेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय (जन्म – 25 सितम्बर 1916– मृत्यु 11 फ़रवरी 1968) भारतीय जनता पार्टी के लिए न केवल वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं, बल्कि देश के अन्यतम राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ और भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति के पुरोधा भी थे। पंडित दीनदयाल मज़हब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का ज़िम्मेदार मानते थे। राष्ट्र के सजग प्रहरी व सच्चे राष्ट्र भक्त के रूप में भारतवासियों के प्रेरणास्त्रोत रहे पण्डित दीनदयाल के जीवन का उद्देश्य- अपने राष्ट्र भारत को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में उतुंग उचाईयों पर अर्थात बुलंदियों तक पहुंचा हुआ देख सकने की थी ।पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा के सूत्रधार एवं समर्थक थे, जिसमें राष्ट्रभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी । राजनीति में कथनी और करनी में अन्तर न रखने वाले इस महापुरुष ने भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी गहरी आस्था बनाये रखी । हिन्दुत्ववादी चेतना को वे भारतीयता का प्राण समझते थे । राष्ट्रनिर्माण के कुशल शिल्पियों में से एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय न केवल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे, बल्कि उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद नामक विचारधारा दी। मजबूत और सशक्त भारत की इच्छा रखने वाले एक समावेशित विचारधारा के समर्थक पंडित दीनदयाल की राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में लिखे कई लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। वे एक राजनीतिक विचारक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ साहित्यकार, चिंतक, अनुवादक व पत्रकार भी थे । उन्होंने राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकाएँ प्रारम्भ की और उनका कुशल सम्पादन भी किया । चिन्तक और लेखक के रूप में उनकी कुछ प्रमुख  कृतियाँ – राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, सम्राट चन्द्रगुप्त, जगद्गुरु शंकराचार्य, एकात्म मानववाद, राष्ट्र जीवन की दिशा, एक प्रेम कथा आदि पुस्तकें लोकप्रिय हैं । भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकुल रूप में सामंजित कर देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा देने वाले  महान चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के दर्शन पर श्रेष्ठ विचार व्यक्त करते हुए अपनी पुस्तक एकात्म मानववाद (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) में साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की है। उन्होंने एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित कानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ प्रस्तुत किया है। दीनदयाल की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। उनका मानना था, “भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संस्कृति किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र आदि की वे बातें, जो उसके मन, रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता की सूचक होती हैं, पर विचार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है।“


राष्ट्र की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान (फरह) ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय और उनकी माता का नाम रामप्यारी था। उनकी माता अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे में जलेसर रोड स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर थे। रेलवे की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय घर के बाहर ही व्यतीत होता था, और कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही उनका  घर पर आगमन हो पाता था। दो वर्ष बाद जन्म लेने वाले दीनदयाल के छोटे भाई का नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। उस समय दीनदयाल के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धानक्या, जयपुर, राजस्थान में स्टेशन मास्टर थे। नाना का परिवार बहुत बड़ा था, जो उनके पैतृक गाँव आगरा जिले के फतेहपुर सीकरी के गुड़ की मड़ई में रहता था, और दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ ही पलकर बड़े हुए। दीनदयाल के तीन वर्ष के होने पर उनके पिता का देहांत हो गया। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा, और वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग की क्षय रोग की बीमारी हो गई थी। जिसके कारण 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। उस समय दीनदयाल की आयु मात्र सात वर्ष थी। बचपन में ही माता और पिता का देहावसान हो जाने पर उनके मामा राधारमण शुक्ल ने ही उनका लालन-पालन किया ।

1926 में नाना चुन्नीलाल की भी मृत्यु हो गई। 1931 में उनकी पालन कर्त्ता मामी का निधन हो गया। 18 नवम्बर 1934 को अनुज शिवदयाल ने भी सदा के लिए दुनिया से विदा ले ली। 1935 में उनकी स्नेहमयी नानी का भी स्वर्ग गमन हो गया। बाल्यकाल से ही उनका जीवन मायूसी से भरा और अत्यंत गमगीन रहा और 19 वर्ष की अवस्था तक पंडित दीनदयाल ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया । फिर भी आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दीनदयाल जी का कल्याण हाईस्कूल, सीकर, राजस्थान में अपना नामांकन करवाया गया, वहां से उन्होंने दसवीं की परीक्षा में बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अजमेर बोर्ड से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान लेकर उत्तीर्णता प्राप्त करने के बाद सबको उनकी मेधावी प्रतिभा शक्ति का परिचय तब हुआ। 1937 में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में पुनः बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। मैट्रिक और इण्टरमीडिएट-दोनों ही परीक्षाओं में उन्हें गोल्ड मैडल मिला। उसके बाद उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज कानपुर से प्रथम श्रेणी में स्नातक, आगरा के सेंट जोन्स कॉलेज से आंग्ल भाषा में  स्नातकोतर की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करके अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया । बीमार बहन रामादेवी की शुश्रूषा में लगे रहने के कारण वे उत्तरार्द्ध न कर सके। बहन की मृत्यु ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। मामाजी के बहुत आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक परीक्षा दी, उसमे उन्होंने उत्तीर्णता भी प्राप्त की,  परन्तु अंगरेज सरकार की नौकरी उन्होंने ग्रहण नहीं की। 1941 में प्रयाग से शिक्षक अध्यापक प्रशिक्षण से सम्बन्धित  बी०टी० की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु स्नात्तक व बी०टी० करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। 1937 में कानपुर से स्नात्तक करते समय विद्यार्थी जीवन में ही अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये और संघ की विचारधारा से प्रभावित होकर उसमें शामिल होने का निर्णय ले लिया । संघ के संस्थापक डॉ० हेडगेवार का सान्निध्य कानपुर में ही मिला। उनकी ही प्रेरणा से लखीमपुर से जिला प्रचारक के रूप में1942 से उन्होंने पूरी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए कार्य करना शुरू किया और आजीवन उन्हीं के सिद्धान्तों पर चलते रहे ।

पंडित दीनदयाल ने पढ़ाई समाप्त होने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के जीवनव्रती प्रचारक होकर आजीवन संघ के प्रचारक रहे। संघ के माध्यम से ही पंडित दीनदयाल राजनीति में आये, और गुरु गोलवलकर जी की प्रेरणा से 21 अक्टूबर 1951 को डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई।1952 में कानपूर में सम्पन्न इसके प्रथम अधिवेशन में उपाध्याय जी इस दल के महामंत्री बने। इस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से सात अकेले उपाध्याय जी ने प्रस्तुत किये।उस समय डॉ० मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता से प्रभावित होकर कहा- यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ। 1967 तक उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 1967 में कालीकट अधिवेशन में उपाध्याय जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। व्यक्तिगत जीवन तथा राजनीति दोनों में ही सिद्धान्त और व्यवहार में समानता रखने वाले दीनदयाल जी को राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़ते ही काफी विरोधों का सामना करना पड़ा, किन्तु राष्ट्रभक्ति से ओत- प्रोत दीनदयाल को उनके उद्देश्यों से कोई नहीं डिगा सका । उनके मात्र 43 दिन के जनसंघ के अध्यक्ष रहने के काल में ही उनके विरोधियों में हडकंप मच गया और 10- 11 फरवरी 1968 की रात्रि में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या कर दी गई। ग्यारह फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा संख्या 1276 के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली। शव प्लेटफार्म पर रखा गया तो शव को देखते ही लोगों की भीड़ ने उन्हें भारतीय संघ के अध्यक्ष पंडित दीन दयाल उपाध्याय का शव घोषित कर दिया। उनके निधन की समाचार से सम्पूर्ण देश में शोक की लहर फ़ैल गई । देश व समाज के लिए कार्य करते हुए 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय स्टेशन पर उनका पार्थिव शरीर रहस्यमय परिस्थितियों में प्राप्त होने की घटना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी सदस्यों और नेताओं के लिए किसी आघात से कम नहीं थी । यही कारण है कि आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी के कार्यक्रमों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी प्रमुख रूप से पूजनीय और गुण – गान के प्रतीक माने जाते हैं और सदैव ही स्मरण, नमन किये जाते हैं ।

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