जब अपने सृष्टा कवियों से दुखी हो कविताओं ने की सामूहिक आत्महत्या

आत्माराम यादव पीव

विश्व के तमाम देश के कवि अपना दिमाग लगाकर जितनी कविताए एक साल में लिखते है, उतनी कविताए भारत देश के तथाकथित कविगण एक सप्ताह में लिख लेते है। या कहिए भारत एकमात्र देश है जिसके हर शहर, मोहल्ले, गली ओर हर गाँव में एक से एक धुरंधर कवि मिल जाएँगे। या गर्व कर सकते हो की भारत में प्रचुर मात्रा में कविताए ओर कवियों का उत्पादन होता है। भारत वह देश है जहा विश्व के सभी कवियों के मन में उठने वाली जिज्ञासाओं से हटकर एक से एक अमूमन शब्द उनकी विद्रुप सोच के साथ अराजक मनस्थितियों से उनके रोम-रोम में ऐठते है ओर तमाम तरह के तनावों के बीच दिमाग फाड़कर पैदा होते है। कुछेक जन्मजात कवियों के पास डायरी होती है। कुछेक अच्छी नई डायरी रखते है तो कुछेक लापरवाह दिखते हुये ऐसी डायरियों का प्रयोग करते है जिनके पन्नों की अंतड़िया चीर-चीर कर एक ही कविता अनेक पन्नों में फैली होती है जिसे वाचन करते समय वे माइक के समक्ष इन बिखरे अस्तव्यस्त पन्नों को जोड़ते हुये दिखते है। भारत ही अनूठा ओर अजूबा देश है जहा कवियों की पैदावार खरपतवार की तरह है ओर चोबीसों घंटे यह खरपतवार कविता पैदा करने में लगी है। दुनिया के किसी देश को जो मुकाम ओर गौरव हासिल नहीं है वह भारत को है। यहा के कवि दुनिया के तमाम देशों में अपनी कविताओं का झण्डा गाड़ कर आ चुके है ओर गाड़ते जा रहे है ओर भविष्य में गाड़ते रहने का जज़्वा उनमें चरम पर है परंतु विश्व के किसी देश का कवि भारत में होने वाले कवि सम्मेलनों में आया हो ओर वह अपने देश का या कविता का झण्डा गाड़कर गया हो यह खबर आजादी के बाद से न तो किसी समाचार पत्र की हैडिंग बनी है ओर न ही आज तक किसी चैनल न इसे दिखाया है तो स्पष्ट है पूरी दुनिया में भारत के कवियों ने अपनी कविता के माध्यम से अपना परचम लहराकर अपना, अपनी कविता का ओर अपने देश का नाम आसमान की ऊंचाइयों तक पहुचाकर कवि ओर कविता के मामले में विश्वविजेता बना हुआ है। जब हमने दुनिया के किसी कवि को नहीं सुना ओर न पढ़ा तो हम उसकी विशेषता का बखान भी नहीं कर सकते है लेकिन हाँ भारत के कवियों के रग रग से हम वाकिफ है इसलिए यहा कि कविताओं में प्रमुखतया प्रेयसी के प्रेम को लेकर भटकाव, ठिटकाव है, सरकारों के वायदाखिलाफी के प्रति आक्रोश में गुर्राहट है, स्थानीय पुलिस व्यवस्था ओर तत्कालीन घोटालों, देशों के बीच टकराव पर चौट करने व बलप्रदर्शन से उत्साह भरने का हुनुर पता है। एक ओर कवि अज्ञेय विषय पर सम्पूर्ण प्रभावोत्पादक काव्य सृजन में रत है जिन्हे ऋषि कवि माना जा सकता है जो अपनी कविता में समाज को संदेश के साथ जीने का मंत्र प्रतिपादित कर रहा है । पर आज देश में जिस तरह कविताओं में अराजकता कि गंध आ रही है वह गंभीर रूप से चिंतन का कारण बनती जा रही है। जिस देश की तरक्की के लिए लोगों का दिमाग काम नहीं करता उस देश की हर गली, मोहल्ले, सड़क, फुटपाथ पर बैठे नस्सुनुमा होशियार लोग है जो कवि नहीं,लेकिन बुद्धि में कम भी नही, वे एक कुशल अभिनेता की तरह अपने चेहरे पर विभिन्न हावभाव लाकर अपनी याद की हुई भावपूर्ण ओजस्वी कविता सुनाकर उस दिन अपनी जरूरत पूरी कर मौज कर रहे है जबकि सच्चाई यह है कि वे कोई कवि नही बल्कि दूसरों के दर्जनों नही सेकड़ों कविताओ को कंठस्थ कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले है जिन्हे आम रास्तो पर अपनी कविताओं को फैलाने का हुनुर पता है,अगर उनसे किसी बड़े मंच पर अपनी कविता सुनाने को कहेंगे तो उनकी घिग्घी बंध जाएगी। कुछ वर्ग या प्रतिशत ऐसे कवियों का है जो अन्य कवि की लिखी कविताओं को भेड़िये कि शक्ल में शेर की खाल पहनकर अपनी वसीयत का ठोस दावा करते है, इससे पाठकों को या दूसरों को कोई फर्क नहीं पड़ता किन्तु जिस सृष्टा कवि कि यह कविता है अगर वह दूसरे के मुख पर जाने पर अपनी कविता का शब्दहरण होते देखता है तो वह शर्म से गढ़ जाता है तब कविता उस कवि के चंगुल से खुद को बचाने ओर अपनी अस्मिता को जिंदा रखने के लिए अपने अंदर ही अंदर घुटन महसूस करती है ओर सोचती है कि मेरी फरियाद के लिए भी मूलकविता ओर मूलकवि के पक्ष में ओर नकल के प्रति विद्रोह का निर्णय हो ओर उसकी चाह होती है कि असल को जिंदा रखने के लिए नकल के खिलाफ महाअभियोग चले। कविता में प्राण नही होते, लेकिन वह मृत्यु की सेज पर बैठे व्यक्ति में प्राण फूँक सकती है। अगर कविता में प्राण संचार हो जाये तो वह अपनी अस्मिता की लड़ाई खुद लड़ने में सक्षम हो सकेगी। कविता की इज्जत को जो तार-तार कर रहे है वह ऐसे नामुरादों के प्रति ओर जो कविता का सृष्टा कवि शब्दों के प्रयोग में अपने लाभ के लिए अपनी प्रशंसा के लिए उस रचित कविता को उधेड़कर उसके एक एक शब्द के वस्त्र को उतारकर लज्जाहीन कर दे तो वह अपने सृष्टा कवि के विरुद्ध भी महाअभियोग चलाने से नहीं चूकेगी।अगर यह संभव हो तो साहित्यजगत के लिए यह सुखद बात होगी। यहा प्रश्न उठता है की मुकदमेवाजी के लिए या महाभियोग के लिए फरियादी कौन हो सकता है, कवि या कविता? कविता का तर्क है की उसका जन्मदाता कवि का नाम उस कविता के जन्म के बाद एक विशाल मंच पर हजारों लोगों ने सुना जिससे कवि को सराहना मिली ओर कविता लोगों के दिमाग में घुस कर अपना स्थान बना चुकी है ओर उसी का पाठ करके उसका सृष्टा कवि समूचे देश के मंचों से महिमामंडित होकर प्रसिद्धि के पायदान चढ़ता गया । कवि जो अपने कोरे दिमाग पर अपनी कल्पनाओं से कविता को पैदा करता है तब कविता शब्दपिता से बिना रक्त के पैदा हुई उसकी पुत्री ही है लेकिन जब कविता का सृष्टा/पिता कवि अपने दोहरे चरित्र का प्रदर्शन करके जब भी किसी ठसाठस भरे सभागार में, राजनीति की आमसभा या मंच पर हजारों की संख्या में बैठे जनसमूह के बीच या काव्यमंचों पर अनेक कवियों की मौजूदगी में खचाखच भरे मैदान पर अपने मुख से कवितापाठ में क्रांति ओर विद्रोह का शंखनाद करता है तब एक पिता ही सबसे पहले अपनी पुत्री कविता को विशाल जनमंच से उसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ शुरू करता है ओर लोगो की वाह वाह की आवाजों में वह भूल जाता है कि वह कविता के लिए एक शर्मनाक समझोतापरस्त भाषा का उच्चारण कर गंभीर अपराध कर रहा है। जब भी कविता के माध्यम से कोई कवि व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करता है तो वह जनता को आंदोलित नहीं करता बल्कि आंदोलित करने का नाटक करता है ओर कविता के माध्यम से सच कहते हुये अपनी कायराना परिस्थिति से स्वंम अपनी आत्मरक्षा का कवच तलाशता है। कविता अपने सृष्टा की इस दोगली नपुसंकता के खिलाफ है। कवि क्षणिक खोखला जोश कविताओं में भरता है। कवि ने अपनी कविताओं से देश के युवाओं को सरकारी तंत्रो के षड्यंत्र के खिलाफ कभी खड़ा नही किया। देश के जन कविता खाकर पेट नही भर सकते है या कविता सुनकर उनकी भूख शांत नही हो सकती। कविताए बहुत पैदा कि जा चुकी है, कविताओं का जितना वस्त्र हरण इस देश में हुआ है, उतना कही नही हुआ है। कवितायें अब अपने विषय में खुद सोचने लगी है ओर वे अपने प्रति किए गए किसी भी अपराध के लिए मुकदमेवाजी में या महाअभियोग चलाने में यकीन नही करती। खुद कवियों ने कविताओं के सृजन में इस देश कि न्याय व्यवस्था पर हमले किए है ओर बता दिया कि भारत में न्याय पाने के लिए न्यायालयों से पास समय नही है,गरीब व्यकित को कभी जीते जी न्याय मिल जाये तो यह बड़ा आश्चर्य है, हा हाई कौर्ट हो या सुप्रीम कौर्ट पैसे वालों के लिए, नेताओं के लिए आधी रात को सुनवाई कर फैसला दे देती है किन्तु देश के आम व्यक्ति के लिए अपने जीते जी उच्च न्यायालय या सुप्रीम कौर्ट से न्याय मिलना एक सपना है। यह सब समझकर कविताओं ने महाअभियोग चलाने का विचार त्याग दिया ओर भारत के आमव्यक्ति कि तरह ही कविताए आमकविता बन सार्वजनिक रूप से आत्महत्या करने को तत्पर हुई। अपने ही सृष्टा द्वारा सार्वजनिक मंचों से दोहरी मानसिकता का परिचय देते हुये कविताओं को असभ्य आंखो के सामने असभ्य शब्दों के साथ असभ्यता से शाब्दिक निवस्त्र करने से दुखी हुई ये सभी कविताओं ने मंच पर ही आत्महत्या करना शुरू कर दिया ओर धड़ाम धड़ाम कि आवाज के साथ कविताओं की लाशे गिरने लगी किन्तु उन लाशों के साथ ही किसी कि भी आँख में पानी आया हो, या किसी कि आँख डबडबाई हो, या किसी सृष्टा कवि के चेहरे पर अपनी पुत्री कविता के आत्महत्या करने पर आंखो में पश्चाताप या शर्म नही दिखी। कविताओं ने सार्वजनिक आत्महत्या कि हत्यारा कौन है अब इसके लिए देश में बहस शुरू हो गई ओर नेताओं ने न्यायिक जांच दल गठित कर दिया ताकि हत्यारे तक पहुंचा जाकर उसे दंडित कर कविताओं को न्याय दिलाया जा सके, जो भारत में मिलना संभव नही।

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