कोरोना महासंकट में लोकतंत्र भी संकट में

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ललित गर्ग

कुछ सरकारों एवं राजनीतिक दलों ने अनियंत्रित होती कोरोना महामारी एवं बढ़ती मौतों के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन किया है। असंख्य लोगों की जीवन-रक्षा जैसे मुद्दों के बीच में भी राजनीति करने एवं राजनीतिक लाभ तलाशने की कोशिशें जमकर हुई है। कोरोना की त्रासदी एवं पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव साथ-साथ होने के कारण समूचे चुनाव-प्रचार के दौरान हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने एक गैर-जिम्मेदाराना अलोकतांत्रिक व्यवहार का उदाहरण ही पेश किया है। सत्ता की राजनीति को प्राथमिकता देने वाले हमारे नेता यह भूल गये कि जनतंत्र में राजनीति सत्ता के लिए नहीं, जनता के लिए, जनता की रक्षा के लिये होनी चाहिए।
स्वतंत्र भारत का लोकतंत्रात्मक संविधान एवं व्यवस्था पूर्णतः सह-अस्तित्व, जनता की रक्षा, समता और संयम पर आधारित है। जनतंत्र में जनता की सरकार होती है और जनता के लिए होती है। इन सरकारों को चुनने का कार्य चुनाव के द्वारा होता है, जब ये चुनाव ही आम जनता के हितों की उपेक्षा करने वाले हो तो इन्हें लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। इन चुनावों में कोरोना महामारी के लिये जारी किये गये प्रावधानों, बंदिशों एवं निर्देशों का उल्लंघन होना एक त्रासदी से कम नहीं है। इन चुनावों में भारी भीड़ जुटाना, रैलियां करना, राजनैतिक सभाओं का आयोजन करना और ये सब आम जनता की रक्षा की उपेक्षा पर होना, भयंकर भूल है, लोकतंत्र के लिये अभिशाप है।
भारत में कोरोना की स्थिति भयावह है एवं दुनिया में सर्वाधिक चरम स्थिति यही देखने को मिल रही है। यह दूसरी लहर कुछ ज्यादा ही खतरनाक सिद्ध हो रही है। लोगों के कोरोनाग्रस्त होने, मरीज के लिए अस्पतालों के दरवाजे बंद होने, जरूरी दवाओं और ऑक्सीजन की कमी होने, श्मशान में लगातार चिताओं को जलाने के लिये स्थान कम होने की खबरें जब डराने लगी थी, तब चुनाव प्रचार जारी रहना हमारे राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं के विडम्बनापूर्ण व्यवहार को उजागर कर रहा था, उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि राजनेताओं की नासमझी एवं दुर्भाग्यपूर्ण सोच ने कोरोना महामारी को फैलाने एवं जनता के जीवन को संकट में डालने का ही काम किया है। संभवतः इसके लिये चुनाव आयोग की भूमिका भी संदेहास्पद बनी है और यही कारण है कि मद्रास हाई कोर्ट ने दूसरी लहर के तेजी से फैलने के लिये अकेले चुनाव आयोग को जिम्मेदार करार दिया है। कोर्ट ने कहा कि चुनाव आयोग सबसे जिम्मेदार संस्थान है, इसके अधिकारियों के खिलाफ हत्या के आरोपों का मामला दर्ज किया जा सकता है। निश्चित रूप से जब स्कूल-कालेज बन्द किये जा सकते हैं, 10वीं बोर्ड की परीक्षाएं न करके बच्चों को सीधे ग्यारहवीं में ले जाने एवं 12वीं बोर्ड की परीक्षाएं टाली जा सकती है, हरिद्वार में लगे कुंभ के मेले को बीच में ही रोक देने का निर्णय लिया जा सका तो चुनाव पर ऐसे निर्णय लेने में क्यों कोताही बरती गयी?
निश्चित ही कोरोना महामारी की दूसरी लहर को तेजी से जानलेवा बनाने में चुनाव की भूमिका रही है। देश के अनेक हिस्सों में जब कड़े नियम सामने आ रहे थे। ऐसे निर्णय करने वाले राजनीति के शीर्ष लोगों द्वारा पश्चिम बंगाल में जाकर विशाल चुनावी सभाएं करना आखिर क्या दर्शाता है? कोरोना की बढ़ती सुनामी पर चिंता जताने वाले चुनावी-सभा में उमड़ी भीड़ को देखकर क्यों आनंदित हो रहे थे! ‘जहां तक नजर जाती है वहां तक लोगों की भीड़’ देखकर पुलकित होने वालों को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं थी कि उस भीड़ में आधे से अधिक लोगों ने मास्क नहीं पहन रखे थे। जिस ‘दो गज दूरी’ की बात हमारे राजनेता बढ़-चढ़ कर रहे थे, चुनाव के परिप्रेक्ष्य में उसे क्यों भूल गये? जनता की जीवन-रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों हो गया चुनाव-प्रचार? सभी दलों के नेताओं को ‘मास्क’ या ‘दूरी’ की बात क्यों नहीं याद रही? हमारे नेताओं ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए जिस तरह की लापरवाही बरती है, उससे चुनावों में भले ही उन्हें कुछ लाभ मिल जाये, पर देश की जनता को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है, यह लोकतंत्र के इतिहास के काले पृष्ठ के रूप में अंकित रहेगा।
इन जटिल एवं परेशान करने वाली स्थितियों में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी अधिक प्रभावपूर्ण तरीके से सामने आने की थी, चुनाव आयोग चाहता तो विवेक एवं अपने जिम्मेदारी का परिचय देते हुए चुनावी रैलियों पर प्रतिबंध लगा सकता था। पर उसने पता नहीं क्या सोच कर ऐसा नहीं है? क्यों नहीं किया? चुनाव प्रचार को रोकने का निर्णय उसे लेना ही चाहिए था, क्योंकि यह सीधे रूप से कोरोना महामारी के फैलने का कारण था। चुनाव आयोग के साथ-साथ यह कदम चुनावी प्रचार में लगे हर नेता को उठाना चाहिए था। सत्तारूढ़ पक्ष, भले ही वह केंद्र का हो या पश्चिम बंगाल का, को इस दिशा में पहल करनी चाहिए थी। वह विफल रहा, यह विफलता लोकतंत्र को धुंधलाने एवं कमजोर करने का बड़ा कारण बनी है।
कोरोना के विरुद्ध लड़ाई के हर मोर्चे पर केवल प्रधानमंत्री ही दृढ़ता से खड़े और लड़ते नजर आते रहे हैं। फिर उन्होंने चुनाव-प्रचार में अपनी ‘जनता के लिये शासन’ की नीति को क्यों भूला दिया? अपनी इस भूल को उन्होंने जल्दी ही सुधार भी लिया। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने देर से ही सही, यह निर्णय लिया है कि अब प्रचार के लिए विशाल सभाएं नहीं होंगी। उन्होंने इसी के साथ लोकतंत्र के सजग एवं सक्षम प्रहरी के रूप में कोरोना महामारी पर नियंत्रित स्थापित करने की कमान को अपने हाथ में ले लिया, उसी का प्रभाव है कि बहुत कम समय में कोरोना के बढ़ते मामलों में ठहराव ही नहीं आया, बल्कि गिरावट भी देखने को मिली है।
प्रधानमंत्री आक्सीजन, दवाओं की व्यवस्था के साथ विदेशों से सहयोग के लिये भी हाथ फैलाये हैं। उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि दुनियाभर से हमें मदद मिलने लगी है। अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडन ने कहा है कि जब हम मुश्किल में थे, भारत हमारे साथ था। अब भारत मुश्किल में है तो हम उसके साथ है। बात अमेरिका की नहीं है दुनिया के बड़े एवं शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र आॅक्सिजन, वेटिलेटर, पीपीई किट भेज रहे हैं। यह वातावरण तभी संभव हुआ है जब भारत ने जरूरत के समय इन देशों की मदद की थी। उस समय विपक्ष ने केन्द्र सरकार के इस मानवीय निर्णय की खूब आलोचना की थी।
लोकतंत्र के सफल संचालन में जितनी सत्ता पक्ष की भूमिका होती है, उतनी ही विपक्ष की भी। समूचे कोरोना संकटकाल में विपक्ष ने केन्द्र सरकार की टांग खिंचाई के अलावा कोई भूमिका नहीं निभाई। जब पहली बार लॉकडाउन लगाया गया तो विपक्ष ने आक्रामक होकर इस पर आपत्ति की। कहा कि ये मजदूरों की रोजी-रोटी छीनने और अंबानी-अडानी को फायदा पहुँचाने की साजिश है! फिर उन्होंने प्रवासी मजदूरों को इतना डराया-बहकाया-भरमाया कि वे पैदल घर की ओर निकल पड़े। उल्लेखनीय है कि उस समय भी उन्होंने उनकी कोई मदद नहीं की, उलटे उनमें डर और घबराहट का माहौल तैयार किया। फिर वैक्सीन पर सवाल खड़े किये और कहा कि ये वैक्सीन प्रामाणिक एवं विश्वसनीय नहीं हैं, ये वैश्विक मानकों पर खरे नहीं उतरते। वैक्सीन के प्रति जनमानस के मन में अविश्वास पैदा करने में उन्होंने कोई कोर-कसर छोड़ी हो तो बताएँ? फिर वैक्सीन के कथित दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट्स) का रोना रोया। फिर अब कहना शुरु किया कि वैक्सीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है। और अब वैक्सीन के आवंटन में भेदभाव का आरोप। विपक्ष ने हमेशा गलत का साथ दिया, देश के सम्मुख खड़े संकट को कम करने की बजाय बढ़ाने में ही भूमिका निभाई। नासिक का होला-मोहल्ला कार्यक्रम में सरदारों का उपद्रव हो या दिल्ली के बोर्डर पर किसान आन्दोलन के नाम पर पनप रही कोरोना महासंकट की स्थितियां, विपक्ष कहीं भी अपनी भूमिका को सकारात्मक नहीं कर पाया। टिकैत अभी भी धरने पर बैठने और पचास हजार से अधिक की भीड़ जुटाने के दावे व अपील कर रहा है। लोग मर रहे हैं और वह तथाकथित किसान एकता के नाम पर इफ्तार पार्टियों का आयोजन हो रहे हैं, ऐसी राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में साथ देकर विपक्ष क्या जताना चाहता है? जब विपक्ष के लिए जानलेवा विपदा भी सत्ता हथियाने एवं सरकार को नाकाम साबित करने का एक मौका मात्र हो तो लोकतंत्र कैसे मजबूत हो सकता है? राजनीतिक दलों की सकारात्मकता ही कोरोना महामारी एवं उससे जुड़ी समस्याओं का समाधान है। उनके जितने भी नकारात्मक भाव (नेगेटिव एटीट्यूट) हैं, वे कोरोना महामारी एवं उससे जुड़ी समस्याओं से लडने की प्रणाली को कमजोर बनाते हैं और इससे लोकतंत्र की ताकत भी कमजोर होती है।

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