-अशोक “प्रवृद्ध”-
हमारे देश भारतवर्ष की उन्नति और समग्र विकास तथा देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण स्थान है और भारतवर्ष में आवश्यक खाद्यान्न की लगभग पूरी की पूरी आपूर्ति कृषि के माध्यम से ही की जाती है । आदिकाल से ही भारतीय कृषि देश के निवासियों के लिये जीवन-निर्वाह का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन रही है और आज भी है। भारतवर्ष विभाजन के पश्चात देश में धुआँधार औद्योगिकीकरण, शहरीकरण के बावजूद वर्तमान में भी कृषि उद्योग भारतवर्ष की अधिकांश जनता को रोज़गार प्रदान करती है, और आज भी देश की 52 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। कृषि की महता इससे भी प्रमाणित होती है कि देश के कुल निर्यात व्यापार में कृषि उत्पादित वस्तुओं का प्रतिशत काफ़ी अधिक रहता है। देश में दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही बेरोज़गारी की समस्या की स्थिति में कृषि कार्य में रोजगार मिलना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है । यद्यपि हरित क्रान्ति के पश्चात फसलोपज में हुई आशातीत वृद्धि से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली भारतीय कृषि देश की उन्नति ,समृद्धि और खुशहाली के लिए अत्यन्त लाभदायक व आवश्यक सिद्ध हुई है ,परन्तु हरित क्रान्ति में हुई फसलोपज में अधिकाधिक वृद्धि के पश्चात अब कृषि भूमि की उपज क्षमता में एक प्रकार से ठहराव आ गयी है। इस स्थिरता अर्थात ठहराव की समस्या को दूर करने के लिए कृषि वैज्ञानिकों के सलाह पर देश में बेकार पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाने, फसलाच्छादन क्षेत्रफल बढाने आदि के कार्य किये जाने आवश्यक हो जाते हैं ताकि देश की भावी पीढ़ी के पेट भरने की दिशा में आवश्यक संसाधन अधिकाधिक मात्र में उपलब्ध कराने की दिशा में कदम बढ़ाया जा सके ।
ऐसी परिस्थिति में कृषि भूमि की उपज क्षमता में एक प्रकार से ठहराव आ जाने की समस्या के स्थायी निराकरण के लिए झारखण्ड के कृषि विभाग के द्वारा क्रमबद्ध तरीके से प्रदेश की बेकार पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाने का बीड़ा उठाये जाने का प्रदेश के कृषि से जुड़े लोगों ने हर्षपूर्वक स्वागत किया है । लोगों का कहना है कि प्रदेश की कृषि उत्पादकता में आ चुकी एक प्रकार की स्थिरता की समस्या को दूर करने के लिए मौजूदा कृषि रकबे को बढ़ाने की दिशा में वर्तमान सरकार के द्वारा प्रयास शुरू किया जाना एक प्रशंसनीय कदम है । कृषि योग्य भूमि में वृद्धि से कृषि उत्पादन तो बढ़ेगा ही साथ ही प्रदेश के किसानों को लाभ भी प्राप्त होगा। झारखण्ड प्रदेश में कुल 38 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है, जिसमें से सिर्फ 25-26 लाख हेक्टेयर भूमि में ही वर्तमान में खेती की जा रही है। अर्थात 12-13 लाख हेक्टेयर भूमि खेती योग्य होने के बावजूद बेकार पड़ी है, जिसमें खेती नहीं होती । झारखण्ड के कृषि विभाग ने अब क्रमबद्ध तरीके से इस बेकार पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाने का अर्थात उत्पादन क्षेत्रफल बढाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। जिसका जानकार क्षेत्रों में व्यापक स्वागत किया जा रहा है । बेकार पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाने के क्रम में वर्तमान वित्तीय वर्ष 2015-16 में 1.20 लाख हेक्टेयर परती भूमि को कृषि योग्य भूमि में तब्दील किये जाने का निर्णय सरकार के स्तर से लिया गया है । इसके तहत प्रदेश के प्रत्येक जिले में औसतन 5000 हेक्टेयर परती भूमि को कृषि योग्य भूमि में बदला जाएगा। उत्पादन क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए फसल आच्छादन क्षत्रफल अर्थात कवरेज एरिया बढ़ाने के क्रम में शुरुआती दौर में इन क्षेत्रों में कम पानी की फसलों मसलन अरहर, कुल्थी व सरगुजा की खेती किये जाने की योजना बनाई गई है । बाद में इसे धान व अन्य फसलों के उपयोग में लाया जाएगा। कृषि योजना अर्थात प्लान के तहत भूमि सर्वे का काम शुरू कर दिया गया है। सर्वे में कृषक मित्रों की मदद ली जा रही है। विभाग की योजना इस खरीफ काल में खरीफ फसल के दौरान इस क्षेत्र को उपयोग में लाने की है। झारखण्ड प्रदेश के कृषि निदेशक जटाशंकर चौधरी के द्वारा किये गए घोषणा के अनुसार गाँवों में कलस्टर बनाकर परती भूमि को कृषि योग्य भूमि में तब्दील किये जाने की योजना है। इसके लिए कृषि पदाधिकारियों को कलस्टर के लिए गाँवों का चयन करने का निर्देश भी दे दिया गया है। कोशिश यह होगी कि जिस गाँव का चयन किया जाए वहाँ की बेकार पड़ी सारी जमीन को कृषि योग्य भूमि में तब्दील किये जाने का कार्यक्रम बनाया जाए। औसतन एक कलस्टर 500 हेक्टेयर का होगा और प्रत्येक जिले में दस कलस्टर होंगे । कलस्टर के चयन से योजना की मोनिटरिंग की भी सुविधा होगी। प्रदेश के लोगों ने और फिर कृषि पदाधिकारियों ने भी यह स्वीकार किया कि लक्ष्य बड़ा है लेकिन मौजूदा खेती को बढ़ाने के लिए इस दिशा में प्रयास तो करना ही होगा।
दिलचस्प यह है कि झारखण्ड में कृषि विभाग के द्वारा प्रदेश की बेकार पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाने की योजनाओं का क्रियान्वयण कोई नई बात नहीं है, और कृषि उत्पादन लक्ष्य बढ़ाने के लिए सरकार कृषि भूमि के क्षेत्रफल में विस्तार का ताना-बाना वर्षों से तैयार करती रही है। झारखण्ड में कृषि उत्पादकता का मानक 116 प्रतिशत है, अर्थात राज्य में 100 एकड़ में मात्र 16 हेक्टेयर में ही खेती की जाती रही है। सरकार की मंशा इसे राष्ट्रीय औसत 37 हेक्टेयर तक ले जाने की है। इसके लिए वित्तीय वर्ष 2011-12 में रबी कार्यक्रम के तहत 215 हजार हेक्टेयर भूमि में गेहूँ, 30 हजार हेक्टेयर में मक्का, 344 हजार हेक्टेयर में दलहन और 310 हजार हेक्टेयर में तेलहन आच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया था ।यह पिछले वर्ष 2 010- 2011 की अपेक्षा वर्ष 2011-12 में 50 फीसदी आच्छादन क्षेत्रफल बढाने का कृषि विभाग का लक्ष्य था । इसके लिए वर्ष 2011-12 में 50 हजार हेक्टेयर में अगहनी धान की खेती का भी लक्ष्य रखा गया था । रबी 2011-12 के लिए किसानों को 50 फीसदी अनुदान पर 69370 क्विंटल गेहूँ, 2660 क्विंटल मसूर, 4150 क्विंटल मटर, 6600 क्विंटल सरसों का बीज वितरित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था ।
उल्लेखनीय है कि झारखण्ड के कृषि विभाग ने वित्तीय वर्ष 2012-13 में ही ऐसी परती भूमि को कृषि कार्य के लिए उपयोग में लाने की योजना तैयार की थी, जहाँ उस समय तक खेती नहीं की गई थी । कृषि का रकबा बढ़ाने की जुगत में जुटे कृषि विभाग ने वित्तीय वर्ष 2012-13 में 38,372 हेक्टेयर परती भूमि पर खेती की योजना बनाई थी । उस समय सरकार द्वारा प्रदत्त आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में कुल 22,72,845 हेक्टेयर भूमि में खेती की जा रही थी, तथा कुल 16,36,817 हेक्टेयर ऐसी परती भूमि थी, जिस पर कृषि कार्य नहीं किया जा रहा था । योजना के अंतर्गत परती भूमि को कृषि भूमि में रूपान्तरित करने के लिए सरकार के स्तर से किसानों को 4000 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की गई थी । दो चरणों में दी जाने वाली इस राशि से प्रथम चरण में गहरी जुताई, मेड़़बंदी तथा सूक्ष्म समतलीकरण के प्रोत्साहन के तौर पर 2500 रुपये प्रति हेक्टेयर तथा दूसरे चरण में बीज, खाद, उर्वरक तथा कीटनाशक के लिए 1500 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से राशि का भुगतान करने की व्यवस्था की गई थी । वित्तीय वर्ष 2012-13 में किसानों को प्रोत्साहित करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं व अन्य चयनित संस्थाओं को भी 200 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से भुगतान किया भी किया था और किसान विकास केन्द्र अर्थात केवीके को नियमित मानीटरिंग के लिए 100 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से प्रोत्साहन राशि दी गयी थी । अब यह अलग शोद्ध व अनुसंधान की बात है कि सरकारी की इस सारी कवायद का धरातल पर कितना लाभ पहुँच पाया ? यह भी नहीं मालूम कि शुरुआती दौर में ऐसी परती भूमि पर दलहन, तेलहन, मकई व सोयाबीन की खेती सुनिश्चित करने के लिए भी पृथक रूप से आवंटित की गई राशि से कितनी नयी निर्मित कृषि योग्य भूमि पर इन फसलों की खेती की गई थी और उससे कितनी फसलोपज प्राप्त की जा सकी ?परन्तु यह भी सत्य है कि इस दिशा में सार्थक पहल किये जाने से कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि होने से फसलोपज में वांछित लक्ष्य पाने की आशा बलवती हो सकती है ।