-मनमोहन कुमार आर्य
हमारे देश भारत में नाना प्रकार की समस्यायें है जिनका हल सरकार व सभी मतों व इतर विद्वानों के पास भी नहीं है। कुछ विद्वान जानकर भी कुछ ऐसे उपायों का उल्लेख करने से डरते हैं जिससे कि समाज के कुछ वर्गों व मत-सम्प्रदाय के लोगों के उचित-अनुचित हित जुडे़ हुए होते हैं। महर्षि दयानन्द भारत में एक निर्भीक, साहसी, सच्चे ज्ञानी, ईश्वर और देश भक्त महापुरुष हुए हैं जिन्होंने देश व विश्व की सभी समस्याओं पर संकीर्णता से ऊपर उठकर विचार किया व उनके समाधान प्रस्तुत किये हैं। उनके जीवन दर्शन का अध्ययन कर यह स्पष्ट विदित होता है कि यदि देश को सही अर्थों में उन्नति करनी है तो उसके लिए देश के सभी ज्ञानी व विद्वानों को मत-मतान्तरों व नाना सामाजिक वर्ग-सम्प्रदायों, गुरुडमों आदि से ऊपर उठकर निष्पक्ष भाव से वेद के आलोक में देश की प्रमुख समस्याओं पर विचार करना होगा। ऐसा करने पर सभी समस्याओं के समाधान प्राप्त हो सकेंगे। इसमें पहली मुख्य बात तो यह होगी कि हम समस्या के सत्य व असत्य स्वरूप को जान सकेंगे और सत्य को हटा कर असत्य विचारों को देश से दूर करेंगे। सत्य को जानने व प्राप्त करने के उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए ही वेदों के सच्चे अधिकारी ऋषि दयानन्द ने अपने अध्ययन व जीवन के निष्कर्षों पर आधारित ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा। यदि इस ग्रन्थ को निष्पक्ष भाव से पढ़कर समझ लिया जाये तो निश्चय ही देश की सभी समस्याओं का हल प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा होना तभी सम्भव है कि जब हम अपने व पराये मत का पक्षपात छोड़ कर सत्य को जानने व उसे स्वीकार करने की प्रतीज्ञा करें व उसका सही व व्यवहारिक रूप में पालन भी करें। ऐसा होने पर हम सत्य शिक्षा, सत्य संस्कारों, सद्धर्म वेद और सच्चरित्रता को प्रत्येक नागरिक के जीवन में प्रविष्ट कराना होगा। ऐसा करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य भी है। सभी देशवासी अपने जीवन में सुशिक्षा व सद्ज्ञान को प्राप्त करें, अच्छे संस्कारों से युक्त हों और वेदानुरूप ईश्वर व समाज हित के कार्यों को करते हुए सब सच्चरित्र बन कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करे इसका प्रबन्ध देश की सरकार व समाज के प्रमुख बुद्धिजीवियों को करना चाहिये। यही सच्ची उन्नति व विकास है। यदि यह नहीं किया गया तो फिर कितनी भी भौतिक उन्नति कर ली जाये वह यथार्थ न होकर केवल कथन मात्र के लिए उन्नति होगी, यथार्थ में नहीं। समस्यायें बढ़ेगीं, कम नहीं होंगी। देश कमजोर होगा और जैसे मतान्तर होकर विश्व के अधिकांश देश बने हैं वैसा ही भारत हो जायेगा जिसमें सच्चा वेद धर्म, पुनर्जन्म व परजन्म के विचार तथा कर्म फल सिद्धान्त आदि सब खो जायेंगे।
शिक्षा किसे कहते हैं? शिक्षा उसे कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य इस संसार को जानता है, जीवन के सत्य व असत्य, उचित व अनुचित कार्य, कर्तव्य व अकर्तव्य, भलाई व बुराई, स्वहित, समाजहित, देशहित व वैश्विक कल्याण को जानकर उन सभी कार्यों को करता है व उनका अन्यों में प्रचार कर उन्हें वैसा करने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित करता है। शिक्षा एक प्रकार से नेत्र के समान है जिससे वह पदार्थों व सभी विषयों के सत्य व असत्य स्वरूप को जानता है। अविद्या का नाश कर विद्या की वृद्धि ही शिक्षा का उद्देश्य व लक्ष्य होता है। सम्प्रति शिक्षा के अन्तर्गत वर्णोच्चारण शिक्षा से लेकर अष्टाध्यायी, महाभाष्य आदि ग्रन्थों के अध्ययन व अनेक भाषाओं का ज्ञान प्रदान करने वाले साहित्य के अध्ययन को भी सम्मिलित कर सकते हैं। उदाहरणार्थ अंग्रेजी की वर्णमाला व उसके व्याकरण व शब्दकोश के ज्ञान व भाषा के उच्चारण व इसी प्रकार अन्य भाषाओं के ज्ञान व उसमें अध्ययन अध्यापन की क्षमता व सामर्थ्य सहित उस भाषा को अधिकारपूर्वक बोलने की दक्षता प्राप्त करने को मान सकते हैं। जिन जिन भाषा में जो महत्वपूर्ण साहित्य है उसका ज्ञान व उससे लाभ उठाना भी हमारे विचार में कुछ कुछ शिक्षा में ही आता है। भाषा का इतना अधिक प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता जितना की मनुष्य उस भाषा में उपलब्ध अच्छे व बुरे साहित्य को पढ़कर उन्नत व पतन को प्राप्त होता है। जो परा व अपरा विद्या अर्थात् आध्यात्मिक व भौतिक ज्ञान वेदों में है वह ज्ञान अन्य किसी भाषा के ग्रन्थों में नहीं है। अतः ईश्वर प्रदत्त सम्पूर्ण सद्ज्ञान के ग्रन्थ वेदों की भाषा वैदिक संस्कृत का ज्ञान सबको होगा तभी ज्ञान व विज्ञान सहित शिक्षा, संस्कार व नैतिक गुणों के महत्व व उसके लाभों को देश के सभी लोग जान सकते हैं। संस्कृत, वैदिक भाषा का दूसरा विकल्प हिन्दी का ज्ञान होना भी है। इसका कारण यह है कि वेदों के हिन्दी भाष्य व प्रायः अधिकांश वैदिक साहित्य हिन्दी भाषा में अनुवाद के रूप में उपलब्घ है। यदि अन्य भाषा का शिक्षित कोई मनुष्य संस्कृत व हिन्दी भाषाओं को नहीं जानता तो वह ईश्वर की वाणी वेदों को जानकर उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। ऐसा ही सम्प्रति देश व विश्व में हो रहा है जिसके कारण समाज में अनेक प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हो गई हैं। इसमें सबसे बड़ी समस्या साम्प्रदायिकता वा मत-मतान्तरों की परस्पर विरोधी व हानिकारक मान्यताओं को कह सकते हैं। इसका एक ही उपाय है कि सभी मतों में से एक दूसरे के अकारण व अनावश्यक विरोध की बातों को हटाया जाना चाहिये। यही बात ऋषि दयानन्द जी ने कही थी और सर्वमान्य सिद्धान्तों को भी सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला में प्रस्तुत किया था। ऋषि ने एक बार कहीं यह कहा भी कहा है कि इस पृथिवी के लिए वह दिन सबसे उत्तम, स्वर्णिम व श्रेष्ठ होगा कि जब पूरे विश्व व देश में एक भाषा, एक भाव, एक सुख-दुख व एक समान सोच व विचारधारा सभी मनुष्यों में देखने को मिलेगी। वेद भी मनुष्य का यही लक्ष्य बताता है कि सभी मनुष्यों के विचार, मन, भावनायें, हित-अहित आदि एक समान हो। वेद के संगठन सूत्र के चार मंत्रों में यही सन्देश दिया गया है।
हमने देश उन्नति के कुछ प्रमुख साधनों का शीर्षक में उल्लेख किया है। इनमें से यदि एक साधन को भी सिद्ध कर लिया जाये तो देश की उन्नति पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ सकता है। शिक्षा को ही लें, यदि देश के सभी लोग वेदों व वेदोपागं शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त आदि के अध्ययन सहित अन्य भाषाओं व ज्ञान विज्ञान का अध्ययन करें तो उसका प्रभाव देश के सभी नागरिकों के जीवन, संस्कारों आदि पर पड़ेगा जिससे वह वर्तमान की अपेक्षा अधिक सभ्य व सच्चरित्र हो सकते हैं। ऋषि दयानन्द जी व अन्य आर्य महापुरुषों के जीवन पर जब दृष्टि डालते हैं तो लगता है कि यदि ऐसे कुछ ही महान व्यक्ति हमारे देश में हों जायें तो देश का कायाकल्प हो सकता है। वेदों व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का जिन लोगों ने अध्ययन कर उसमें निहित विचार व ज्ञान को जान लिया है, वह व्यक्ति अपने भावी जीवन में सच्चा ईश्वरोपासक, समाजसेवी, देशभक्त व विश्व के कल्याण की भावना से युक्त हो सकता है। ऋषि दयानन्द के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन भी वेद व धर्म संस्कृति की शिक्षाओं के कारण ही महान जीवन बना और इन्होंने ऐसे कार्य किये जो सभी का मार्ग दर्शन करते हैं।
लेख को विराम देने से पूर्व हमें लगता है कि देश के सभी नागरिक वैदिक शिक्षा सहित आधुनिक ज्ञान विज्ञान की शिक्षा से भी अलंकृत होने चाहिये। वेदों के संगठन सूत्र से प्रेरणा लेकर देश के सभी नागरिकों को समान विचार व समान हृदय सहित समान मन, बुद्धि व अन्तःकरण वाला होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं होगा तो देश वर्तमान की तरह कमजोर होगा। छोटी से छोटी समस्या का समाधान भी देश के लोग नहीं निकाल पायेंगे जैसा कि स्वतन्त्र भारत में अयोध्या विवाद का हल न निकाल पाना। आईये, नैतिक शिक्षा व गुणों को प्राप्त करने के लिए वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन की शरण लें और देश को समस्याओं से मुक्त एक मन, हृदय, विचार, भावना, ज्ञान, सुख-दुख वाला आदर्श देश बनायें। ओ३म् शम्।