विकास की अंधी दौड़ से हो रहा प्रकृति का नाश

world environment day

हर साल पूरे विश्व में पांच जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनायाजा रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिवस पर्यावरण के प्रति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए मनाया जाता है। जब से इस दिवस को सिर्फ मनाया जा रहा है तबसे इसके मनाए जाने को दिखाया या जताया जा रहा है तभी से लगातार पूरे विष्व में पर्यावरण की खुद की सेहत बिगडती जा रही है। इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि आज जब ये विश्व पर्यावरण दिवस को मनाए जाने की खानापूर्ति की जा रही है। तो प्रकृति भी पिछले कुछ दिनों से धरती के अलग अलग भूभाग पर, कहीं ज्वालामुखी फटने के रूप में, तो कहीं सुनामी, कहीं भूकंप और कहीं ऐसे ही किसी प्रलय के रूप में इस बात का ईशारा भी कर रही है कि अब विश्व समाज को इन पर्यावरण दिवस को मनाए जाने जैसे दिखावों से आगे बढ कर कुछ सार्थक करना होगा। विष्व के बडे-बडे विकसित देश और उनका विकसित समाज जहां प्रकृति के हर संताप से दूर इसके प्रति घोर संवेदनहीन होकर मानव जनित वो तमाम सुविधाएं उठाते हुए स्वार्थी और उपभोगी होकर जीवन बिता रहा है जो पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहे हैं। वहीं विकासशील देश भी विकसित बनने की होड में कुछ-कुछ उसी रास्ते पर चलते हुए दिख रहे हैं। जो कि पर्यावरण और धरती के लिए लिए घातक सिध्द हो रहा है।

पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी आंकड़ों में यह खुलासा हुआ कि पूरे विश्व में भारतीय शहर ग्वालियर, इलाहाबाद, पटना और रायपुर को क्रमशः दूसरे, तीसरे, छठे और सातवें सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले सात शहरों में शामिल हैं। आंकड़ों के अनुसार नई दिल्ली 11वां सबसे प्रदूषित शहर है। जिसे 2014 में वायु प्रदूषण के मामले में सबसे खराब शहर का दर्जा मिला था। कई उपायों के बाद प्रदूषण के लिहाज से दिल्ली में यह बदलाव सामने आया है जो केंद्र और दिल्ली सरकार दोनों की ओर से उठाये गए। इसमें पर्यावरणीय उपकर लगाया जाना और सम-विषम वाहन योजना लागू करना शामिल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से विश्व के 67 देशों के 795 शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति पर जारी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि हवा में पार्टिक्युलेट मैटर यानी मानव स्वास्थ्य के लिए घातक धूल के बेहद बारीक कणों के मामले में दिल्ली की आबो हवा में पहले से काफी सुधार हुआ है। इसके लिए सरकार की ओर से किए गए प्रयास प्रभावी साबित हुए हैं। और सम-विषम योजना की वजह से वायु प्रदूषण में भारी कमी आयी है। अगर लोग देश में निजी वाहनों कि जगह सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करें तो सम-विषम जैसे फॉर्मूले कि जरूरत ही नहीं पडेगी और वायु प्रदूषण में भी कमीं आएगी, इसके लिए लोगों को खुद सोचना होगा।

आज यदि धरती के स्वरूप को गौर से देखा जाए तो साफ पता चल जाता है कि आज नदियां , पर्वत, समुद्र, पेड, और भूमि तक लगातार क्षरण की अवस्था में हैं। और ये भी अब सबको स्पष्ट दिख रहा है कि आज कोई भी देश, कोई भी सरकार, कोई भी समाज इनके लिए उतना गंभीर नहीं है जितने की जरूरत है। बेशक लंदन की टेम्स नदी को साफ करके उसे पुनर्जीवन प्रदान करने जैसे प्रशंसनीय और अनुकरणीय प्रयास भी हो रहे हैं मगर ये ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। ऐसे अनुकरणीय प्रयास भारत में भी हो सकते हैं जिसके द्वारा भारत की प्रदूषित नदियों को निर्मल और अविरल बनाया जा सकता है चाहे वो गंगा नदी हो या यमुना नदी इस सबके लिए जरूरी है दृढ इच्छा शक्ति की जो की भारतीय सरकार के साथ-साथ भारत के हर इंसान में होनी चाहिए। भारत में गंगा की स्वच्छता को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जल संसाधन और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने प्रतिबद्धता जतायी है। अब देखना होगा कि नमामि गंगे योजना धरातल पर कब तक उतर पायेगी। आज जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण पृथ्वी के ऊपर से हरा आवरण लगातार घटता जा रहा है जो पर्यावरणीय असंतुलन को जन्म दे रहा है। पर्यावरणीय संतुलन के लिए वनों का संरक्षण और नदियों का विकास अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अब समय आ गया है कि धरती को बचाने की मुहिम को इंसान को बचाने के मिशन के रूप में बदलना होगा क्योंकि मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है। पर्यावरण यदि प्रदूषित हुआ, तो इसका प्रभाव मनुष्य पर पड़ेगा और मनुष्य का स्वास्थ्य बिगडेगा और जनस्वास्थ्य को शत-प्रतिशत उपलब्ध कर सकना किसी भी प्रकार संभव न हो सकेगा। सभी जानतें हैं कि इंसान बडे बडे पर्वत नहीं खडे कर सकता, बेशक चाह कर भी नए साफ समुद्र नहीं बनाए जा सकते और, किंतु ये प्रयास तो किया ही जा सकता है कि इन्हें दोबारा से जीवन प्रदान करने के लिए संजीदगी से प्रयास किया जाए। भारत में तो हाल और भी बुरा है। जिस देश को प्रकृति ने अपने हर अनमोल रत्न, पेड, जंगल, धूप, बारिश, नदी, पहाड, उर्वर मिट्टी से नवाजा हो, और उसको मुकुट के सामान हिमालय पर्वत दिया हो और हार के समान गंगा, यमुना, नर्मदा जैसी नदियाँ दी हों यदि वो भी इसका महत्व न समझते हुए इसके नाश में लीन हो जाए तो इससे अधिक अफसोस की बात और क्या हो सकती है।

आज ये सब पर्यावरणीय समस्याएं विश्व के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। विकास की अंधी दौड़ के पीछे मानव प्रकृति का नाश करने लगा है। सब कुछ पाने की लालसा में वह प्रकृति के नियमों को तोड़ने लगा है। प्रकृति तभी तक साथ देती है, जब तक उसके नियमों के मुताबिक उससे लिया जाए। इसके लिए सबसे सरल उपाय है कि पूरी धरती को हरा भरा कर दिया जाए। इतनी अधिक मात्रा में धरती पर पेडों को लगाया जाए कि धरती पर इंसान द्वारा किया जा रहा सारा विष वमन वे वृक्ष अपने भीतर सोख सकें और पर्यावरण को भी सबल बनने के उर्जा प्रदान कर सकें । क्या अच्छा हो यदि कुछ छोटे छोटे कदम उठा कर लोगों को धरती के प्रति , पेड पौधे लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए । बडे बडे सम्मेलनों , आशावादी समझौतों आदि से अच्छा तो ये होगा कि इन उपायों पर काम किया जाए । लोगों को बताया समझाया और महसूस कराया जाए कि पेड बचेंगे, तो धरती बचेगी, धरती बचेगी, तो इंसान बचेगा। सरकार यदि ऐसे कुछ उपाय अपनाए तो परिणाम सुखद आएंगे।

आज विवाह, जन्मदिन, पार्टी और अन्य ऐसे समारोहों पर उपहार स्वरूप पौधों को देने की परंपरा शुरू की जाए। फिर चाहे वो पौधा, तुलसी का हो या गुलाब का, नीम का हो या गेंदे का। इससे कम से कम लोगों में पेड पौधों के प्रति एक लगाव की शुरूआत तो होगी। और लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता आएगी और ईको फ्रेंडली फैशन की भी शुरुआत होगी। और सभी शिक्षण संस्थानों, स्कूल कालेज आदि में विद्यार्थियों को, उनके प्रोजेक्ट के रूप में विद्यालय प्रांगण में, घर के आसपास, और अन्य परिसरों में पेड पौधों को लगाने का कार्य दिया जाए। यदि इन छोटे छोटे उपायों पर ही संजीदगी से काम किया जाए तो ये निःसंदेह कम से कम उन बडे-बडे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों से ज्यादा ही परिणामदायक होगा। और इससे अपने पर्यावरण और अपनी धरती को बचाने की दिशा में एक मजबूत पहल होगी। अब सोचना छोडिये और खुद से कहिए कि चलो ज्यादा नही पर हम एक शुरुआत तो कर सकते हैं। सच पूछें तो पर्यावरण की सुरक्षा के लिए हमे कुछ ज्यादा करना भी नहीं है। सिर्फ एक पहल करनी है यानी खुद को एक मौका देना है. हमारी छोटी-छोटी, समझदारी भरी पहल पर्यावरण को बेहद साफ-सुथरा और तरो-ताजा कर सकती है।

– ब्रह्मानंद राजपूत, दहतोरा, आगरा,

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