विकास परियोजनाओं में बैंकों की सीधी भागीदारी का वक्त

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

केंद्र में नई सरकार बने छह माह बीत चुके हैं, इन गुजरे महिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने देश के विकास के लिए ऐसा बहुत कुछ  नया किया है जिसे बताया जाए तो संभवत: शब्द भी कम होंगे, किंतु इसके बाद भी विपक्ष द्वारा सरकार को कई मुद्दों पर लगातार घेरने की कोशि‍शे जारी हैं। प्रतिपक्ष के सरकार घेरने के इन प्रयासों में एक मुद्दा यह भी है कि जब देश की बैंक अधोसंरचना से संबंधि‍त मंजूर हो चुके तथा जो प्रोजेक्ट चल रहे हैं, उनके विनिर्माण के लिए धन मुहैया नहीं करायेंगी तो देश का अधि‍कतम विकास कैसे संभव होगा। जिस पर कि चालू वित्त वर्ष में आयकर रिफंड में वृद्धि के कारण पहले से ही राजकोषीय घाटे के कारण देश पर दबाव बना  हुआ है।

वैसे सरकार ने वित्त वर्ष 2014-15 के लिए राजकोषीय घाटा 5.31 लाख करोड़ रुपये तय किया था । लेकिन अप्रैल से सितंबर तक पहली छमाही में ही राजकोषीय घाटा 4.38 लाख करोड़ रुपये के आंकड़े को छू गया है। जिसे आज हम बजट अनुमान का 82.6 प्रतिशत मान सकते हैं। हालांकि‍ इस घाटे को कम करने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए जा रहे हैं किंतु इससे देश के विकास की इबारत कैसे लिखी जा सकती है ? जो धन सरकार बचाएगी वह कुछ सीमा तक ही विकास के पायदान पर अपना सहयोग दे सकता है।  भारत के चहुंमुखी विकास में बैंक शुरू से अपना व्यापक योगदान देती आ रही हैं, उनके सहयोगात्मक रवैये के बि‍ना यह बिल्कुल संभव नहीं कि केंद्र सरकार अपने बूते कुछ कर पाए। लेकिन वर्तमान में बैंक की अपनी दिक्कतें हैं,  जो वाजिब नजर आती हैं, वस्तुत: इसका एक बड़ा हिस्सा कई परियोजनाओं के कारण फंसे कर्जे (एनपीए) में तब्दील हो चुका है। जिस कारण से बैंक कई संस्थाओं को दोबारा कर्ज देने के लिए आगे नहीं आ रहे, और इस कारण देश के विनिर्माण में बहुत सीमा तक बाधा उत्पन्न हो रही है।  

इस पूरे मसले को बैंक के नजरिये से देखें तो वह सही प्रतीत होती हैं। आखि‍र बैंक भी क्या करें, उन्हें भी अपनी साख और सेहत दोनों का ख्याल रखना है। तभी तो वह सरकार के लाख कहने पर भी फंसी परियोजनाओं को कर्ज देने के लिए आगे आने को लेकर अभी तक पूरा मन नहीं बना पा रहे हैं, जिसमें उन्हें आर्थ‍िक हानि होने का जरा भी अंदेशा रहता है वे अपने को उससे किसी ना किसी बहाने से दूर कर लेती हैं । इन परिस्थि‍तियों में मोदी सरकार ने इससे निपटने के लिए जो रास्ता अख्तियार किया है उसकी आज खुले मन से तारीफ की जानी चाहिए।

वस्तुत: बैंक के हितों और देश के विकास की निरंतरता को लेकर मोदी सरकार का निर्णय उम्मीद की एक नई किरण जगाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लम्बे समय से चला आ रहा गतिरोध जल्द समाप्त होगा। क्यों कि अब बैंकों को लुभाने के लिए सरकार के इस नए तरीके के बाद जरूर भारतीय बैंक अधूरी या स्वीकृत परियोजनाओं में अपना धन सीधे लगाने को तैयार हो जायें। क्यों कि  परियोजनाओं में बैंको की सीधी हिस्सेदारी सुनिश्चित हो जाने के बाद बैंक को यह भरोसा रहेगा कि किसी भी योजना में लाभ का जो अंश होगा उसका एक भाग सीधे उन्हें भी मिलेगा । इसलिए यह भी उम्मीद की जा सकती है कि इक्विटी होने से बैंक अटकी हुई परियोजनाओं को कर्ज देने में कोताही नहीं बरतेंगे। इसके अलावा एक पहलु यह भी है कि वित्त मंत्रालय की तरफ से भारतीय बैंक के लिए इस मुख्य सुझाव में कहा गया है कि अगर बैंकों को इनमें हिस्सेदारी दी जाए तो इन प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने में बैंक के ज्यादा सक्रिय होंने की संभावना है।  क्यों कि इसमें लाभ यह है कि यदि कोई कंपनी मुनाफा कमाती है तो बैंकों को इसमें सीधा हिस्सा मिलेगा। जिसमें वह किसी प्रोजेक्ट का भाग होने के कारण अपने फंसे कर्जे की वसूली भी कर सकती है।

अच्छी बात ये भी है कि इस बारे में बैंकों पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं होगी, जो भी नियम बनेंगे उसे लागू करना है या नहीं इसका अंतिम फैसला बैंकों को ही करना होगा। वित्त मंत्रालय की पहल पर इसे ले‍कर  रिजर्व बैंक और सेबी के बीच बातचीत का सिलसिला आरंभ हो चुका है। सभी को विश्वास है कि आगे इस दिशा में चल रहे परिणाम सकारात्मक आएंगे। सरकार को आस भी है कि इस कदम से फंसे कर्जे (एनपीए) की वसूली में फायदा होगा।  वैसे तो आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने कई वजहों से फंसी परियोजनाओं को कर्ज देने वाले बैंकों को राहत देने के लिए कुछ नए उपाय करने की बात कुछ माह पहले कह कर भारतीय बैंकिग क्षेत्र को यह संदेश देने की कोशि‍श की ही थी कि मोदी सरकार को देश की सभी बैंकों की चिंता है। वह उनके किसी भी विकास के प्रोजेक्ट में लगाए धन को डूबने नहीं देगी। देश की इन लंबित व अटकी हुई परियोजनाओं में बैंक ने जो पहले काफी कर्ज दिया है, उसे सूद सहित किसी ना किसी रास्ते से उन तक वापिस पहुंचाया जाएगा। वक्त बीतने के साथ सरकार के संकेत को आज ठीक से अपने फायदे को लेकर बैंक भी समझने लगी हैं। यह भी देश के लिए अच्छा ही है। 

मसलन, इस समय विकास परियोजनाओं में बैंकों की सीधी भागीदारी का वक्त है, ऐसा मानकर बैंक सरकार के साथ बैठकर इस मामले में यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि लंबित परियोजनाओं के शेयरों की कीमत कंपनी और उसके बीच तय करने का फार्मूला क्या होना चाहिए ? इसके लिए वह दूसरे देशों में प्रचलित नियमों का अध्ययन कर अपना निर्णय ले सकती है। वस्तुत: देश की बैंके इस दिशा में जितनी जल्दी निर्णय लेंगी और केंद्र सरकार को खुलकर अपना समर्थन देंगी, उतना ही आने वाला समय उनके लिए फायदेमंद होगा साथ में तेजी से देश के विकास में उनका योगदान बढ़ेगा सो अलग बात है। आशा की जाए कि बैंक जो सदैव देश के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं वह लंबित परियोजनाओं को जल्द राशि‍ उपलब्ध कराने में अब कोई देरी नहीं करेंगे। 

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  1. डाक्टर साहब,आपने लिखा है ,केंद्र में नई सरकार बने छह माह बीत चुके हैं, इन गुजरे महिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने देश के विकास के लिए ऐसा बहुत कुछ नया किया है जिसे बताया जाए तो संभवत: शब्द भी कम होंगे,पर एक साधारण जनता यानि आम आदमी के रूप में तो मुझे कहीं कुछ ऐसा दिखाई नहीं देता.एक बात अवश्य है ढिंढोरा पीटने का काम बड़े जोर शोर से चल रहा है.

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