पहचान और श्रम मूल्य के संकट से जूझती घरेलू कामगार महिलायें

उपासना बेहार

घरेलू काम दुनिया के सबसे पुराने रोजगार के साधनों में से एक रहा है। सूखा, खेती में हानि, रोजगार के विकल्प का ना होना, विकास के नाम पर जमीन का अधिगृहण, विस्थापन, दलित वर्ग का उत्पीड़न, चिकित्सा, पानी इत्यादि मूलभूत सुविधाओं का अभाव जैसे विभिन्न कारणों के चलते गाँव से लोग शहर की ओर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं। पलायन करने वाले ये लोग ज्यादातर गरीब और वंचित तबकों से होते हैं और इन्हें शहर में असंगठित क्षेत्र में ही काम मिलता है। मंहगाई और कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण महिलाओं को भी काम करना पड़ता है। महिलाओं में शिक्षा और कौशल की कमी के कारण इनके लिए सबसे आसान आजीविका घरेलू काम ही होता है और वे इसे करने को मजबूर होती हैं।

घरेलू कामगारों द्वारा 35 तरह के कार्य संपादित किए जाते हैं। मोटे तौर पर देखें तो बागवानी, बच्चों को संभालना, खाना पकाना, घर की साफ-सफाई, कपड़े-बर्तन धोना, बीमार व वृद्धों की देखभाल, वाहन चलाना, बाहर से सामान खरीदना इत्यादि काम करते हैं। हालांकि इनमें से कुछ काम पुरुष घरेलू कामगारों द्वारा किये जाते हैं। बाकि सभी काम ज्यादातर महिला घरेलू कामगार द्वारा किया जाता है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक भारत में करीब छह करोड़ घरेलू कामगार महिलाएँ हैं। वही नेशनल सैम्पल सर्वे 2011-12 के अनुसार देश में 2,38,92,791 घरेलू कामगार महिलाऐं है जिसमें से4,05,831 महिलाऐं गाँव में और 21,79,403 शहर में कार्यरत् हैं। सन् 1999-2000 और 2004-05 के मध्य के 5 वर्षों में ही घरेलू काम करने वाली महिलाओं की संख्या में 22.5 लाख की बढ़ोतरी हुई है। इस कारण महिलाओं की कार्यशील आबादी में इनका हिस्सा 11.8 प्रतिशत से बढ़कर 27.5 प्रतिशत हो गया है।

घरेलू कामगार महिलाओं को घर और कार्यक्षेत्र दोनों जगह कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक तरफ घर पर उन्हें खुशगवार माहौल और सहयोग नही मिलता है तो दूसरी ओर कार्यस्थल में भेदभाव और असुरक्षा की स्थिति होती है। घरेलू कामगार महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया अच्छा नही होता है। इनके काम को गरिमापूर्ण नही माना जाता है एवं इनके काम को अहमियत नही दी जाती है और उन्हें कामगार की जगह नौकर माना जाता है। घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है। ज्यादातर घरेलू कामगार महिलाऐं दलित और पिछड़े वर्ग समुदाय की होती हैं  इस वजह से जातिगत भेदभाव का सामना करती हैं और कार्यस्थल में इनके लिए अलग से बर्तन होते हैं जिन्हें वे खुद ही धो कर अलग रखती हैं। घरेलू कामगार महिलाओं को नियोक्ता समय समय पर बासी भोजन, फटे-पुराने कपड़े, जूते, चप्पल आदि सामान देते हैं लेकिन यह उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचता है पर उसे नियति मान कर चुपचाप सहन कर जाती हैं। अगर कार्यस्थल में इनके साथ यौन उत्पीड़न की घटनाऐं हो जाये तो समाज भी इन्ही को दोषी मानता है। घरेलू कामगार महिलाए पूरी राशि परिवार में लगा देती हैं, फिर भी परिवार के निर्णयों में ज्यादातर कोई भागीदारी नही होती है। इन महिलाओं को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है। इन महिलाओं के पति अपनी मजदूरी से शराब का सेवन करते हैं इससे पूरे घर को चलाने की जिम्मेदारी इन महिलाओं के कंधे पर आ जाती है। ये महिलाऐं जब उम्र-दराज हो जाती हैं तो इनके लिए कोई सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा नही होती है। घरेलू कामगार महिलाओं के संगठन नही है। इस कारण इनके साथ कोई अन्याय हो तो कोई लड़ने वाला नही होता है। संगठन के अभाव में इनकी माँगें सार्वजनिक नहीं हो पाती हैं।

घरेलू कामगार महिलाए को रोज लगभग 14 से 18 घंटे काम करती है जिससे थकान, जोड़ों में दर्द, पीठ दर्द, कमर दर्द होता है। काम के दौरान इनके हाथ ज्यादातर समय डिटरजेंड के पानी के सम्पर्क में रहते है जिससे हाथों की ऊंगलियों में घाव हो जाते हैं, ठंडे पानी के उपयोग से उंगलिया अकड़ जाती है, हड़ड़ियों में ठंड भर जाता है। कार्यस्थल में इन्हें शौचालय इस्तेमाल करने नही दिया जाता है जिसके कारण वे कम पानी पीती हैं इससे अक्सर इनके पेशाब के रास्ते खुजली और इन्फेकशन की संभावना होती है। कम पानी पीने की वजह से आगे चल कर किड़नी में प्रभाव पड़ता है।

कई बार कार्यस्थल में इनके साथ हिंसा, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, अमानवीयता व्यवहार होता है। ह्यूमन राइट्स वॉच की एक शोध के मुताबिक भारत में घरेलू नौकरों को भयंकर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। महिला और बाल विकास विभाग ने फरवरी 2014 में राज्यसभा में बताया कि देश में घरेलू कामगार महिलाओं के साथ हिंसा के मामले बढ़ें हैं और वर्ष 2010 से 2012 के बीच देश में घरेलू कामगारों के प्रति अपराध के 10503 केस दर्ज हुए हैं जिसमें 2012 में 3564, 2011 में 3517 व 2010 में 3422 केस दर्ज हुए। वही मध्यप्रदेश में 2010 से 12 के बीच 183 मामले दर्ज हुए। अगर किसी घर में चोरी हो जाये तो सबसे पहला शक इन्ही पर किया जाता है। काम के दौरान इन स्त्रियों को अन्य कामगारों की तरह छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बीमारी की दशा में उपचार, क़ानूनी सुरक्षा जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं होती है। कार्यस्थलों में अगर कोई दुर्घटना हो जाये तो नियोक्ता उसके इलाज का खर्चा नही देते हैं।

देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता है, इन्हें कामगार का दर्जा नही दिया जाता है। इस वजह से उनका कोई एकसार और वाजिब मेहनताना ही तय नहीं होता है। घरेलू कामगार महिलाओं को जो वेतन मिलता है वो देश में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। प्लेसमेंन्ट एजेंन्सियों द्वारा भी इनको झूठे और बड़े बड़े वादे किये जाते हैं लेकिन कई बार इनका आर्थिक और दैहिक शोषण करते हैं।

केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा किये जा रहें प्रयास

घरेलू कामगार महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करने को लेकर 1959 में डोमेस्टिक वर्कर्स (कंडीशन्स ऑफ इम्प्लॉयमेंट) नामक विधेयक बना, जो व्यवहार में न आ सका। फिर असंगठित कामगार सुरक्षा अधिनियम 2008 (घरेलू कामगार भी शामिल) बना पर इसके प्रावधानों को सही तरीके से लागू नही किया। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने 16 जून 2011 को घरेलू कामगार कन्वेंशन (189) में घरेलू कामगारों के अधिकार एवं नीति, सिद्धान्त की घोषणा की। भारत ने इसमें सहमती दर्ज की है। 2015 में पुनः घरेलू कामगार के लिए श्रम कल्याण ने राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार किया है जिसमें न्यूनतम वेतन, कार्य के घंटे,वेतन के साथ वार्षिक अवकाश, चिकित्सा अवकाश, मातृत्व अवकाश, सामाजिक सुरक्षा, दुर्घटना व स्वास्थ्य बीमा और यौन शोषण से सुरक्षा, घरेलू कामगार और नियोक्ताओं के बीच कॉन्ट्रैक्ट जैसे मसले शामिल है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना और ‘‘कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ लैगिंक उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013’’ में घरेलू कामगारों को शामिल किया गया है।

देश के सात राज्यों आध्रंप्रदेश, बिहार, झारखंड़, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा और राजस्थान में घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी तय की गई है, केरल, तमीलनाडू व महाराष्ट्र ने घरेलू कामगार वेल्फेयर बोर्ड का गठन किया है, छत्तीसगढ़ सरकार ने श्रमिक का दर्जा दिया है, मध्यप्रदेश ने मुख्यमंत्री शहरी घरेलू कामकाजी महिला मानते हुए वैतनिक अवकाश की पात्रता दी है। दिल्ली में प्लेसमेंट एजेंसीज बिल लागू किया हुआ है।

घरेलू कामगार के काम को श्रमिक का दर्जा ही नही दिया गया है। यही कारण है कि न्यूनतम मजदूरी, कार्य के घंटे, व्यावसायिक खतरों से सुरक्षा आदि को लेकर बने कानूनों में घरेलू कार्य करने वाली महिलाओं की उपेक्षा की गई है। गरीब, वंचित और निम्न वर्ग से ताल्लुक रखने वाले घरेलू कामगारों के पास न तो ताकत होती है और ना तो बोलने की आजादी। ऐसे में नियोक्ता सस्ते और आसानी से मिल जाने वाले इस श्रम का भरपूर शोषण करता है। घरेलू कामगार महिलाऐं अच्छी मजदूरी न मिलना, काम का बेहतर माहौल और तयशुदा काम के घंटे का ना होना, हिंसा, गाली-गलौज, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, दलालों और प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा शोषण, जबरन प्रवास के लिए मजबूर, कल्याणकारी योजनाओं की कमी और आगे बढ़ने के अवसरों के अभाव जैसे प्रमुख दिक्कतों का सामना करती हैं। सबसे बड़ी समस्या उनका कोई संगठन का ना होना है जिससे उनकी मोलभाव करने की ताकत कम है और वे अपने मुद्दों को ठीक से उठा भी नही पाती हैं।

सतत विकास लक्ष्य में भी 2030 तक महिला और बालिकाओं के जेंडर समानता और सशक्तिकरण एक लक्ष्य है। भारत सरकार ने इस पर हस्ताक्षर किया है। अतः घरेलू कामगार महिलाओं को श्रमिक के रुप में पहचान और उनके काम को महत्व देने के लिए सरकार को गंभीरता से प्रयास करने होगें। इसके लिए सरकार को घरेलू कामगारों के लिए जल्द से जल्द राष्ट्रीय नीति लानी होगी, प्रशिक्षण देकर उनकी दक्षता और कौशल को बढ़ाया जाना चाहिए, नियोक्ता व घरेलू कामगारों के बीच अनुबंध होना चाहिए। प्रत्येक घरेलू कामगार महिला को कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न को लेकर बने कानून की जानकारी अनिवार्य रुप से दी जानी चाहिए। सरकार को ज्यादा से ज्यादा कल्यांणकारी योजनाएं बनानी होगीं जैसे परिवहन के लिए स्मार्ट कार्ड या बैक लोन के ब्याज में छूट। साथ ही घरेलू कामगारों को अपने हक़ की लड़ाई के लिए संगठित होना होगा और मज़दूरों के व्यापक संघर्ष के साथ अपने को जोड़ना होगा तभी उन्हें और उनके काम को मान-संम्मान और हक मिल पायेगा।( चरखा फीचर्स)

 

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