नीति नियोजन में मीडिया की भूमिका

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अरुण तिवारी

इण्डिया हैबिटेट सेंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली में एक त्रिदिवसीय आयोजन (07-09 फरवरी, 2018) हुआ। इस त्रिदिवसीय ‘इवेलफेस्ट – 2018’ के दूसरे दिन के अंतिम सत्र की चर्चा का विषय था : प्रमाण आधारित नीति नियोजन में मीडिया की भूमिका। आमंत्रण पाने पर मेरे मन में उठा सबसे पहला सवाल यही था कि नीति क्या है ? जवाब आया कि नीति एक ऐसा मार्गदर्शक निर्देश होता है, संबंधित योजना और कार्यक्रमों का नियोजन तथा क्रियान्वयन करने वक्त जिसका हर हाल में पालन किया जाना चाहिए। अतः किसी भी विषय को लेकर नीति पहले बननी चाहिए, योजना व कार्यक्रम बाद में।

नीतिगत मसलों पर काम करने वाले इतने सारे अध्ययन व शोध के संस्थान व विषय विशेषज्ञ दबाव समूह, देश में पहले से ही मौज़ूद हैं; फिर मीडिया को कोई भूमिका निभाने की क्या आवश्यकता है ? उत्तर मिला कि शोध समूहों के अध्ययन व निष्कर्ष, सीमित संख्या में लिए गये नमूनों के विश्लेषण पर आधारित होते हैं। इसलिए गलत निष्कर्ष की संभावना, हमेशा संभव है। मतदान पश्चात् व पूर्व के नमूना सर्वेक्षणों के निष्कषों के हमेशा सही होने की गारंटी का न होना, इसका एक प्रबल उदाहरण है। दूसरा उदाहरण देखिए। ज्यादातर अध्ययन संस्थान आज भी मानते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा कारण दहेज की मांग, गरीब और अशिक्षा है। इसके मुताबिक तो बिहार (916), उत्तर प्रदेश (908) व उड़ीसा (978) जैसे राज्यों के लिंग अनुपात में  लड़कियों का प्रतिशत, लड़कों की तुलना में सबसे कम होना चाहिए था, जबकि यह सबसे कम क्रमशः दमन-दीव (618), दादर-नागर हवेली (775) के बाद चंडीगढ़ (828) और दिल्ली (866) जैसे ऐसे शहरों का है, जहां दहेज की मांग, अशिक्षा और गरीबी जैसे अभिशाप देश के कई इलाकों के तुलना में बेहद कम है।

कितनी संभावना ?

मुझे यह भी लगा कि किसी भी देश में मीडिया के जितने अधिक स्तर, जितनी व्यापक ज़मीनी पहुंच तथा उनमें जितनी अधिक वैचारिक विविधता मौजूद होती है, उतनी अध्ययन व शोध संस्थानों के लिए संभव नहीं है। एक बात यह भी है कि सीमित संख्या में होने के कारण अध्ययन व शोध संस्थानों को पक्षपात के लिए प्रभावित करना, उतना दुष्कर कार्य नहीं है, जितना कि किसी देश के समूचे मीडिया को एक साथ प्रभावित करना। चिकित्सा तथा और आर्थिक क्षेत्र में मानकों व आंकड़ों की हेराफेरी की खबरें, इसकी प्रमाण हैं। इस नाते हम कह सकते हैं कि किसी मसले पर किसी भी स्तर की नीति बनानी हो, तो मीडिया की भूमिका संभव है।

मीडिया, विशेषज्ञ शोधों की ज़मीनी पड़ताल कर सकता है। आज, जब आंकड़ों तक को प्रभावित किया जा रहा है; मीडिया, वास्तविक आंकडे़ प्रस्तुत कर विरोधाभास को सामने ला सकता है। भारत, विविधता से भरपूर देश है। यहां यह संभव है कि एक मसले पर एक स्थान अथवा समुदाय की स्थिति एक हो, दूसरे स्थान अथवा समुदाय की दूसरी। ऐसी स्थिति में खास तौर पर आंचलिक मीडिया, जहां स्थानीय हक़ीक़त से अवगत कराकर नीति निर्माताओं की दृष्टि विस्तृत कर सकता है, वहीं जनसंवाद का जनतांत्रिक मंच बनकर जनाकांक्षा से अवगत कराने में अहम् सहयोगी भूमिका अदा कर सकता है। किंतु क्या वाकई यह अपेक्षा है ?

कितनी चाहत ?

क्या हमारे नीति नियोजक अथवा देश के शासकीय नीति नियोजक संगठन चाहते हैं कि मीडिया, नीति नियोजन में कोई भूमिका निभाये ? क्या नीति आयोग, इससे पहले के योजना आयोग अथवा किसी राज्य के किसी नीति नियोजन संगठन ने कभी मीडिया को आमंत्रित कर कहा कि वह फलां मसले पर नीति बनाना चाहते हैं; मीडिया उस मसले की ज़मीनी हक़ीक़त को अपने संचार माध्यम पर प्रमाणिक तरीके से प्रस्तुत कर दृष्टि साफ करने में सहयोग करे ?

इसी से जुड़ा एक प्रश्न यह भी है कि क्या भारत के बहुमत मीडिया समूह, स्वयं यह चाहते हैं कि प्रमाण आधारित नीति नियोजन में वे जनहितैषी भूमिका निभायें ? क्या उनके पास इतनी फुर्सत और सामथ्र्य है ? यदि हां, तो क्या मीडिया की भूमिका, नीति नियोजक विशेषज्ञ संगठनों के बताये एजेण्डे व पक्षों का विस्तार प्रस्तुत करने मात्र की है अथवा नीतिगत मसलों पर नीति नियोजकों के समक्ष कोई जनहितैषी एजेण्डा प्रस्तुत करना भी मीडिया की ही भूमिका है ?

क्यों ज़रूरी भूमिका ?

भारत में घोषित तौर पर खुली आर्थिकी के 27 वर्ष पूरे हो चुके हैं। मेरा मानना है कि किसी भी आर्थिक प्रयोग के प्रभावों की दिशा बताने के आने के लिए 27 वर्ष काफी होते हैं। आर्थिक उदारवाद के अच्छे-बुरे प्रभावों के असर चैतरफा हैं; नीतियों पर भी, नीति नियोजक शासकीय-गैर शासकीय संगठनों पर भी, जनसामान्य के मानस पर भी और मीडिया पर भी। पहले हमें खुलासा करना पड़ता था कि नीतियां, प्राथमिक तौर पर ठेकेदारों के द्वारा, ठेकेदारों के हित को प्राथमिकता में रखते हुए निर्मित की जाती हैं; अब भारत सरकार के केंद्रीय जलसंसाधन मंत्रालय के राष्ट्रीय जल योजना दस्तावेज़ के मुख्य पृष्ठ पर ही लिखा मिल जाता है कि उसका प्रारूप विश्व बैंक ने तैयार किया है। यह आर्थिक उदारवाद का ही प्रभाव है कि सर्व श्री मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलुवालिया से लेकर ऊर्जित पटेल, अरविंद पनगढ़िया तक जिन शख्सियतों को खास आर्थिक व नीतिगत पदों पर बैठाया गया, इनका भारतीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसे किसी कर्जदाता संगठन अथवा विकसित देशों के हितसाधक संगठनों, शैक्षिक संस्थानों से जुड़ाव अथवा वैचारिक झुकाव रहा है।

हक़ीक़त यही है कि भारत का शासन, अब किसी दल अथवा संवैधानिक पद पर बैठे किसी माननीय की अगुवई में नहीं, अपितु कर्जदाता व कारपोरेट दबंगों द्वारा संचालित किया जा रहा है। कारपोरेट हितों की पूर्ति में बाधा पैदा करने वाले मंत्री और अफसरों का विभाग बदलवाने में उन्हे वक्त नहीं लगता। श्री जयराम रमेश के बतौर पर्यावरण मंत्री कार्यकाल को याद कीजिए। राजनैतिक दलों के ब्लाॅक स्तर से लेकर केंद्रीय स्तर तक के सांगठनिक पदों पर पैसेवालों की बढ़ती संख्या को भी याद रखने की ज़रूरत है। कारपोरेट दुष्प्रभाव का आकलन करते मीडिया को खुद से भी प्रश्न करना चाहिए; पूछना चाहिए कि एक मीडिया प्लेटफार्म एक मसले के एक पक्ष को, तो दूसरा उसी मसले के दूसरे पक्ष को आगे बढ़ाने की कवायद करता क्यों नज़र आता है ? ऐसा क्यों है कि एक कुछ छिपाता है, तो दूसरा कुछ उजागर करता है ? नीतिगत मसलों व खास घटनाक्रमों पर भ्रम फैलाने की यह भूमिका मीडिया किसके इशारे पर करता है और क्यों ?

इस स्थिति को सामने रखकर यह भी समझा जा सकता है कि भारत में नीति निर्माण के आधार बदले-बदले से क्यों हैं ? क्या यह सच नहीं कि भारत में नीतियों का निर्माण अब सर्वोदयी और इसमें भी अन्तोदयी को प्राथमिकता पर रखकर नहीं, बल्कि कारपोरेट मुनाफे और टैक्स को प्राथमिकता पर रखकर किया जा रहा है ? यदि हां, तो हमें मान लेना चाहिए कि नीति निर्माण के इस दौर में मीडिया की एक स्वैच्छिक और ज़रूरी भूमिका भी है।

क्या हो भूमिका ?

यह भूमिका है, व्यापक लोकहित में नीति-निर्माण हेतु सरकारों को बाध्य करने की। इस भूमिका के तहत् मीडिया चाहे तो उचित दबाव समूहों को शक्ति प्रदान करने का दायित्व निभा सकता है अथवा खुद भी दबाव समूह की भूमिका में आ सकता है। दबाव बनाने के लिए प्रमाणिक अभियान चला सकता है। टेलीविजन और वेब मीडिया के पास कैमरे की एक ऐसी तकनीकी शक्ति है, जिसकी आंखों देखी को नकारना, किसी आंकडे़, कागज़ तथा ज़िम्मेदार पद के बस की नहीं है।

क्या है बुनियादी शर्त ?

इस भूमिका को निभाने की पहली बुनियादी शर्त यह है कि संपादकों को प्रबंधक न बनाया जाये और प्रबंधक, संपादक बनने की कोशिश न करें। मीडिया का संपादन विभाग, अपने विज्ञापन व प्रबंधन विभाग के दबाव से मुक्त हो। संपादक, संवाददाता तथा प्रबंधकों को किसी शासकीय-प्रशासकीय, राजनीतिक व कारपारेट अनुकम्पा अथवा राज्यसभा सांसदी की चाहत न हो। ऐसी चाहत न रखने वाले मीडिया घरानों में व्यावसायिक होड़ के बावजूद, नैतिक एकता हो। किंतु इस एकता की नीयत, अराजकता फैलाना कतई न हो। क्या देश के प्रथम पचास प्रभावशाली मीडिया समूहों में से दस भी इस दम को दिखाने के लिए तैयार है ?

विशेषज्ञता को पहल की दरकार

दबाव के तथ्य प्रमाणिक हों तथा आकलन सटीक। इसके लिए विषय की विशेषज्ञता का होना, दूसरी बुनियादी शर्त है। ‘नाॅलेज आॅफ आॅल, मास्टर आॅफ नन’ – हालांकि पत्रकारों के बारे में कही यह उक्ति अब धूमिल पड़ रही है। भारत  में विषय विशेषज्ञता आधरित पत्रकारिता की पढ़ाई का अभी विस्तार नहीं हुआ है; बावजूद इसके सुखद है कि भारत के पत्रकार धीमी गति से सही, लेकिन अब धीरे-धीरे विषय विशेष आधारित विशेषज्ञता की ओर बढ़ रहे हैं। विशेषज्ञ शोध व स्वयंसेवी संस्थान चाहें तो इच्छुक पत्रकारों को सतत् संवाद के अवसर उपलब्ध कराकर, उनकी विशेषज्ञता और दृष्टिकोण को ज्यादा स्पष्ट करने में मदद कर सकते हैं। मीडिया प्रबंधन को चाहिए कि वह अपने संपादक व संवाददाताओं को ऐेसा अवसर मुहैया कराने के लिए स्वयं पहल करें।

एकता और नैतिकता की जुगलबंदी ज़रूरी

निस्संदेह, मीडिया की शक्ति बड़ी और व्यापक होती है। यदि वह नैतिक तौर पर मज़बूत हो, तो उसका मुंह बंद करना, कठोर से कठोर से सत्ता के बस की भी बात नहीं। किसी लोकतांत्रिक ढांचें  में तो बिलकुल नहीं। यदि पत्रकार जगत, प्रमाणिक नीति निर्माण में सचमुच बंधनमुक्त नैतिक भूमिका चाहता है, तो इसका एक मार्ग है। हम विशेषज्ञता के विषय के आधार पर लेखक व पत्रकारों के साझा संगठन खडे़ करें; मसलन, आर्थिक लेखक व पत्रकार संघ, पर्यावरण लेखक व पत्रकार संघ। ये विशेषज्ञ संगठन, समीचीन नीतिगत मसलों पर अपने प्रमाणिक अध्ययन व निष्कर्ष समय-समय पर जारी करें। ऐसा करके, वे नीति निर्माताओं को सहयोग भी कर सकते हैं और दबाव भी बना सकते हैं।

इस विचार के पीछे की मूल संभावना यह है कि यदि पत्रकारों की बड़ी संख्या पूरी एकजुटता के साथ कोई प्रमाणिक अध्ययन तथा ईमानदार निष्कर्ष जारी करे, तो शायद ही कोई सत्ता उसे चुनौती देना चाहे। शर्त है, तो बस एक यह कि ऐसे विशेषज्ञ संगठनों के सदस्य केवल ऐसे पत्रकार व लेखक ही हों, जो कि किसी दल के पक्ष-विपक्ष में खड़े होकर नहीं, अपितु मुद्दे के पक्ष-विपक्ष में तार्किक बहस खड़ी करने को संकल्पित हों और बिकने को तैयार न हों। यह संभव भी है और व्यावहारिक भी। क्या कोई पहल करेगा ?

पंचपीठ की राय

इस लेख को अंतिम रूप देने से पहले मैने करीब तीन सैकड़ा लोगों से इस पर सुझाव मांगे थे। इनमें पत्रकार, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, विद्यार्थी से लेकर कारोबारी तक शामिल थे। उनमें से मात्र पांच ने इसे जवाब देने लायक समझा। चूंकि आमंत्रण निजी था, अतः नाम सार्वजनिक नहीं कर रहा हूं।

मैं इन पांच  उत्तरदाताओं को ही पंच परमेश्वर मानूं, तो इस पंचपीठ ने बहुमत पत्रकारों की विषय विशेष आधारित समझ, निष्पक्षता और ईमानदारी तथा पत्रकारिता के उसूलों के प्रति मीडिया घरानों के मालिकों की निष्ठा पर शंका व्यक्त की। प्रश्न किया कि ऐसे में जब हम देख रहे हैं कि मीडिया की नीति, अपनी ज्यादातर जगह /समय को सिर्फ और सिर्फ अपराध, खेल, राजनीति और मनोरंजन समाचारों के लिए आरक्षित करने की बन गई है, तो फिर मीडिया के पास देश के लिए नीति निर्माण का वक्त कैसे बचेगा और ज़मीनी सरोकारों की समझ कैसे बनेगी ? एक तरह से उक्त शंका और आक्षेप का उत्तर देते हुए एक राष्ट्रीय दैनिक के पत्रकार ने, सरकारी चपरासियों से भी कम तनख्वाह से उपजी बेबसी को सामने रखते हुए सवाल किया कि भूखे को भोजन की रखवाली कहकर उससे ईमानदारी की अपेक्षा करना कितना उचित है ? जो पत्रकार, खुद अपने लिए मजीठिया वेज बोर्ड पर न्यायालयी आदेश की पालना कराने में समर्थ नहीं हैं, उनसे देशहित की बोली बुलंद करने की अपेक्षा व्यर्थ है; बावजूद, इस निराशा के तीन की राय थी कि मीडिया को नीति निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

एक ने किसी भी नई नीति निर्माण से पहले, पूर्व निर्मित नीतियों को व्यवहार में उतारने की जांच को ज़रूरी माना। उन्होने कहा कि इसकी जांच में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। मीडिया को चाहिए कि एक निश्चित अंतराल के बाद नीतियों की समीक्षा करते रहने की भूमिका निभाये। मीडिया, इसके लिए विषय/मुद्दे का उसकी अंतिम परिणति तक पीछा करे। इसके लिए मीडिया के ज्यादातर दोस्तों को विषय विशेष आधारित समझ हासिल करने के बारे में सोचना चाहिए। मैं समझता हूं कि अभी इस विषय पर और बहस की ज़रूरत है। बहस चालू रहे।

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  1. प्रिंट मीडिया और मजीठिया बेजबोर्ड की सिफारिशें लागू करवाने को लेकर सबके अपने अपने अनुभव रहे हैं। श्री तिवारी जी की तो मुझे नहीं मालूम किन्‍तु क्‍यों कि दिल्‍ली में केजरीवाल सरकार और बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने और कुछ किया हो या नहीं किन्‍तु लेबर कोर्टों में जब भी सुस्‍ती आयी उसका पूराध्‍यान रखा है। अब जहां तक उत्‍तर प्रदेश की बात है । यहां कुछ भी ठीक नहीं है। प्रदेश के लेबर कोर्टों में से अधिकांश में जज ही न्‍युक्‍त नहीं हैं। लेटेस्‍ट में बरेली लेबर कोर्ट के मुकदमें वाराणसी भेज दिये गये हैं। अब शायद वाराणसी का लेबर कोर्ट भी खाली है। अलीगढ कमिश्‍नरी के मुकदमें पहले से ही आगरा में हस्‍तांतरित किये हुए हैं। पूर्व लेबर कमिश्‍नर श्री पी के महंती के कार्यकाल में उप श्रमायुक्‍तों और श्रमायुक्‍तो को मुकदमें सुनने का अधिकार संबधी एक शासनादेश जारी हुआ था। वह श्री महंती के सेवानिवृत्‍त होने के बाद राज्‍य निर्वाचनायुक्‍त पद पर नियुक्‍ति हो जाने के बाद ही पत्रकारों के हाथ पड सका। राज्‍य के जो उपश्रमायुक्‍त या सहायक श्रमायुक्‍त मामलों की सुनवायी कर रहे थे श्रमजीवी पत्रकार एक्‍ट के तहत अपने को अक्षम पा रहे थे। जो भी हो सरकार का रोल उत्‍तर प्रदेश में अब तक बहुत ही गैर जिम्‍मेदाराना है। पिछले एक साल में उ प्र विधान सभा सत्र में एक भी विधायक ने पत्रकारों के वेतन मामलो से संधित एक भी प्रश्‍न नहीं पूछा ।प्रशासनिक अधिकारियों सेटकराव और कई जनपदो में जुलूस निकालने जैसी नाराजगी जताने की प्रक्रियायें भी हुई । बस मारपीट और तबंचे जैसे अहिंसक कृत्‍य नहीं हुए। बाकी भाई मधुसूदन जी पर है जो चाहे निष्‍कर्ष निकालें। मौजूदा सरकार कांग्रेस की इंस्‍पैक्‍ट्री करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकी है। न उसे नीति की जरूरत है और नहीं नियोजन की। गुणी पत्रकार होने के बावजूद आप भी शायद एक फर्म का मालिक अपने मनपसंद को बनवाने का फार्मूला नहीं जानते हों किन्‍तु यम पी में लखनऊ वालों ने कर दिखाया है। यमुना एक्‍सप्रेस वे का मालिकाना हक कुछ ही दिनो में गुजरात के अडानी ग्रुप को हस्‍तातरित होने जायेगा। ताजमहल आगरा में है किन्‍तु उसके नाम का हवाई अडडा जैबर में बनेगा। अब इस प्रकार के नीतिवान महानुभावों का क्‍या इलाज है आप खुद ही अनुमानित कर सकते हैं।

    • राजीव सक्सेना जी, आपकी टिप्पणी पढ़ कर ऐसा लगा कि पत्रकार हो अथवा कोई और, लोग केवल पापी पेट के लिए ही जी रहे हैं| कोई अच्छी पगार दिलवा दे और जब पगार मिल जाए तो देश जाए भाड़ में, कोई बेकार काम करने में भी कोई आपत्ति नहीं है| यदि स्वयं भारतीय मीडिया द्वारा आरम्भ से ही कांग्रेस की इंस्‍पैक्‍ट्री की गई होती तो आज मौजूदा राष्ट्रवादी सरकार को इस झमेले में पड़ने की कोई आवश्यकता ही न होती| आप बेशक मौजूदा सरकार को कोसें लेकिन पिछले सत्तर वर्षों में आपके लेबर कोर्ट और जज कहाँ रहे हैं जो आज दिखाई नहीं देते? निरर्थक लेबर से जैबर हवाई अड्डे पर आ अटक राजनैतिक तेवर दिखाते आप नीतिवान का इलाज ढूंढते हैं! हाँ, जब अडानी ग्रुप की बात कही तो मैं सोचता हूँ कि आज राष्ट्रवादी नेता महाराणा प्रताप बन किसी भामाशाह द्वारा देश के भाग्य जगाने में लगे हैं| आओ सब मिल भारत को स्वच्छ, सुन्दर, सशक्त, और समृद्ध देश बनाएं|

  2. *प्रमाण आधारित नीति नियोजन में मीडिया की भूमिका* आलेख पढ गया. पर कोई उपाय प्रभावी नहीं दिखाई देता. कारण (१) मीडिया ही बिका हुआ है. (२) जो बिके हुए नहीं है, उन्हें कैसे ढूँढे ? (३) प्रमाण आधारित निकष कौन और कैसे बनाएगा? (४) दहेज का उदाहरण आपने दिया, पर गहराई में चौखट के(Thinking out of the box) बाहर से सोचना इने गिने लोगों को जमता है. और उसके सामने भी तर्क यह होता है; कि आप नियमों के बाहर जाकर तट्स्थता को त्यज रहे हो. ……आपको (क) बुद्धिमान (ख) निष्पक्ष (ग) समर्पित मीडिया का पत्रकार चाहिए. मैं जितना आप का आलेख समझ पाया उसके आधारपर टिप्पणी की है. मेरी स्वयं की भी मानसिकता भ्रान्त हो सकती है. लगता है कि यह समस्या सुलझाई नहीं जा सकती……. इस समस्या की गम्भीरता स्वीकार करता हूँ, पर सामान्य पत्रकार इसे प्राथमिकता क्यों देगा? अरुण तिवारी जी ने असामान्य विषय की ओर ध्यान खींचा. धन्यवाद.

  3. अरुण तिवारी जी द्वारा नई दिल्ली में त्रिदिवसीय आयोजन पर लिखे उनके आलेख को पढ़ मैं पहले पहल “इवेलफेस्ट” २०१८ के प्रायोजकों व आयोजन के हितधारकों को जानने और समझने को आतुर हो उठा| अकस्मात् “प्रमाण आधारित नीति नियोजन में मीडिया की भूमिका” सत्र पर विचार-विमर्श हेतु उनके निमंत्रण पाने में मुझे ऐसा लगा कि मैं स्वयं १९५५ के कृषि-प्रधान भारत में दिल्ली स्थित प्रगति मैदान पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक प्रदर्शनी में आ पहुंचा हूँ| सोचता हूँ कि वहां मेरा एक दिन का मनमोहक अभ्यास मनोरंजन ही तो था! उसका प्रमाण आधारित मूल्यांकन भारतीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम २०१३ में साक्षात् दृष्टिगोचर होता है जिसके अंतर्गत आज दो-तिहाई भारतीय जनसमूह रियायती खाद्य-पदार्थ प्राप्त करने को बाध्य है| जहां रोटी के लाले पड़े हों वहां कोई आकर हमें बिस्कुट खाने को कहे तो अवश्य ही आश्चर्य होना चाहिए| भारत में सर्व-व्यापक अभाव में उत्पन्न कुरीतियों व कठिनाइयों को हमें स्वयं अपने ढंग से सुलझाना होगा|

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