
—विनय कुमार विनायक
द्रोण; प्रतिभा अमर होती
नाश हो सकती नहीं
किसी घातक वार से
जैसे कि ऊर्जा मिटती नहीं
किसी धारदार औजार से
अस्तु हथियार डाल देती
हकीकत की दीदार से
कृष्णार्जुन की जोड़ी थी
नाकाफी द्रोण बध के लिए
काफी था स्वजन का मृत्यु अहसास
‘अश्वस्थामा हतो’ की अनुभूति
अश्वस्थामा संज्ञा नहीं थी
नर या कुंजर की
अश्वस्थामा संज्ञा है
उस महामाया की चादर की
जो आत्मा-आत्मा में
विभेद का पर्दा डालती
शबाब हो सकता
किसी के लिए किसी की हत्या
किन्तु लख्तेजिगर का
मृत्यु अहसास मार देता जीते जी
अमर जीव को भी!