दुकान की चिंता में लौटाते सम्मान!

डाॅ. वेदप्रताप वैदिक

कुछ साहित्यकारों के साथ-साथ अब कुछ कलाकार और वैज्ञानिक भी शामिल हो गए हैं। ये गिने-चुने लोग अपने सम्मान लौटा रहे हैं। इन्हें सम्मान लौटाते हुए देखकर मुझे बड़ा संतोष हो रहा है। साहित्य अकादमी के लगभग एक हजार सम्मानितों में से सिर्फ 25-30 ने ही लौटाए। अगर पांच-सात सौ लेखक या उनके परिवारवाले लौटा देते तो मेरी खुशी और बढ़ जाती, क्योंकि फिर मालूम पड़ता कि हां, हमारे लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और खिलाडि़यों का भी अंतःकरण है और वह बड़ा जागरुक है। वरना, अभी तक समाज में यही छवि बनी हुई है कि इस वर्ग के लोग घोर स्वार्थी और आत्म-केंद्रित होते हैं। वे अपने से बेहतर किसी को नहीं समझते। पुरस्कारों और सम्मानों के लिए या तो वे तलवारें खींचे रखते हैं या अपनी झोलियां फैलाकर उन नेताओं और अफसरों के आगे गिड़गिड़ाते रहते हैं, जिन्हें वे अपने आगे दो कौड़ी का भी नहीं समझते। इस वर्ग के लोग अपने आपको समाज का नवनीत (भद्रलोक) मानते हैं। ये लोग खतरा मोल नहीं लेते। खतरा मोल लेने को ये मूर्खता मानते हैं। ये मूर्खों को मूर्ख बनाकर अपने लिए उनसे विदेश यात्राएं पटाते हैं, बोतलानंद करते हैं, रति-लाभ पाते हैं और नगद-नारायण भी।

अब समस्या यह आन पड़ी है कि भारत की जनता की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। उसने दिल्ली में संघ की सरकार बिठा दी है। संघ के स्वयंसेवकों को वाम-दक्ष और उत्तिष्ठ-उपविश् करने के अलावा कुछ नहीं आता। 68 साल से तिरंगे रसगुल्ले उड़ा रहे इस भद्रलोक को अब अंदेशा है कि उसे गुड़ के गुलगुले भी नसीब नहीं होंगे तो वह अब क्या करे? उसमें इतना दम नहीं है कि मोदी सरकार पर वह सीधा हमला बोल दे या उसकी निर्भीक आलोचना करे, जैसा कि कुछ लोग कर रहे हैं। इसमें खतरा है। उन्होंने बिना खतरे का रास्ता पकड़ लिया है। ऐसा रास्ता, जिसमें हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा आए। सम्मान वापस करो। क्या सम्मान कभी वापस हो सकता है? कोई मरा आदमी कभी जिंदा हो सकता है? लेकिन इस भेड़चाल में लोग इसीलिए फंस गए कि सम्मान मिलते वक्त उन्हें किसी ने नहीं जाना। अब लौटाते वक्त कम से कम उनका नाम तो हो जाएगा। यह भी कैसी अजीब बात है कि आपको राम ने सम्मान दिया और आप श्याम को लौटा रहे हैं? क्या सम्मान आपको नरेंद्र मोदी ने दिए थे? इन्हें लौटाकर आप उनका अपमान कर रहे हैं, जिन्होंने आपको इस लायक समझा था। जिन हत्याओं का बहाना आपने बनाया है, वे सब किसके राज में हुई हैं? उन्हीं के राज और राज्य में जिन्होंने आपको सम्मान दिए थे। ये हत्याएं घोर अपराध और पापपूर्ण हैं। उनकी मैंने डटकर भत्र्सना की है लेकिन मुझे यह बिल्कुल समझ में नहीं आया कि अब ये सम्मान लौटानेवाले लोग उस समय कौनसी अफीम खाकर सोए पड़े थे, जब आपात्काल थोपा गया था, जब 1984 में हजारों सिख और 2002 में सैकड़ों गुजराती हिंदू और मुसलमान मारे गए थे? सम्मान लौटाने का असली कारण हत्या की ये दो-तीन घटनाएं नहीं, अपनी दुकान चैपट होने का अंदेशा है।

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