दूषित सोच से लोकतंत्र का कमजोर होना

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ललित गर्ग-

पिछले दिनों हमारी संकीर्ण सोच एवं वीआईपी संस्कृति में कुछ विरोधाभासी घटनाओं ने न केवल संस्कृति को बल्कि हमारे लोकतंत्र को भी शर्मसार किया है। एक घटना गुजरात की है जिसमें गुजरात विधानसभा अध्यक्ष के द्वारा गलत जगह पार्किंग करने पर गार्ड द्वारा सही पार्किग लगाने की सलाह देना उसके लिये नौकरी से हाथ धोने का कारण बनी, वही दूसरी दिल्ली के गोल्फ क्लब में नस्ली भेदभाव की घटना जिसमें परम्परागत पोशाक जैनसेम पहनकर आने पर मैनेजर द्वारा उसे बाहर कर देने की घटना भी हमारे लिये चिन्ता का कारण बनी है। शालीन व्यवहार, संस्कृति, परम्पराएं, विरासत, व्यक्ति, विचार, लोकाचरण से लोकजीवन बनता है और लोकजीवन अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति, मर्यादा एवं संयमित व्यवहार से ही लोकतंत्र को मजबूती देता है, जहां लोक का शासन, लोक द्वारा, लोक के लिए शुद्ध तंत्र का स्वरूप बनता है। लेकिन यहां तो लोकतंत्र को हांकने वाले लोग ही उसे दूषित कर रहे हैं।
असल में सत्तर सालों की आजादी के बावजूद गुलामी की मानसिकता हमारे अवचेतन मन पर ऐसी छाई है कि हम इस प्रकार की घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेते। आए दिन आम बातचीत में हम यह सुनते रहते हैं कि वह तो अमुक मंत्री या नेता का खास आदमी है और कोई भी काम चुटकियों में करा सकता है या उसका राजनीतिक दबदबा इतना है कि चुटकियों में कुछ भी कर सकता है। दरअसल, यह सामंतशाही दृष्टिकोण, भेदभाव की प्रवृत्ति और जी-हजूरी वाली संस्कृति ही इस लोकतंत्र की विसंगति बनने का बड़ा कारण है।
गांधीनगर के सिविल अस्पताल में आंखों की जांच कराने गए और गाड़ी गलत पार्किंग करने वाले विधानसभा अध्यक्ष के चेहरे पर तो लिखा नहीं था कि वे विधानसभा अध्यक्ष हैं और उन्हें इस तरह गलत पार्किग करने की स्वतंत्रता मिली हुई है। अब वहां मौजूद बेचारा गार्ड अपनी ड्यूटी से मजबूर था और अध्यक्ष महोदय को पहचानता भी नहीं था लिहाजा उसने उन्हें वहां से गाड़ी हटाने के लिए कहा। सुबह-शाम जी-हुजूर सुनने वाले नेताजी भला यह गुस्ताखी कैसे बर्दाश्त करते! पहले तो उन्होंने अपने तरीके से उसको डांट लगाई और फिर बाद में गार्ड को अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा। बात यहीं तक खत्म नहीं हुई। अस्पताल ने उस गार्ड को नौकरी पर रखने वाली सुरक्षा एजेंसी का करार ही रद्द कर दिया। अब अस्पताल वाले चाहे लाख सफाई दें कि इसका विधानसभा अध्यक्ष महोदय से कोई संबंध नहीं है लेकिन कोई बच्चा भी समझ सकता है कि यह सब किसके इशारों पर हुआ है। यह शायद हमारे महान लोकतंत्र के सामंतवाद का नया संस्करण है।
हमारी विरोधाभासी सोच ही है कि हम यूरोपीय और अन्य देशों में प्रवासी भारतीयों के साथ नस्ली भेदभाव पर तो चिन्ता व्यक्त करते हैं। जब किसी भारतीय के साथ बुरा व्यवहार होता है या उसे दोयम दर्जे के नागरिक की तरह अपमानित किया जाता है तो समूचे भारत में पीड़ा महसूस की जाती है। लेकिन दिल्ली के गोल्फ क्लब में भारतीयों ने ही मेघालय की महिला ताइलिन लिंगदोह को इसलिए अपमानित किया कि वह परम्परागत पोशाक जैनसेम पहनकर वहां गई थी। वह अपनी पोशाक से नौकरानी जैसी लगती थी। जबकि इसी जैनसेन को पहनकर वह लन्दन, संयुक्त अरब अमीरात और कई देशों में घूम चुकी है लेकिन कहीं उसको अपमानित नहीं किया गया लेकिन राजधानी दिल्ली के गोल्फ क्लब के मैनेजर ने उसे बाहर जाने को कह दिया। नस्लभेद की घटनाएं मानव समाज के लिए काफी दुःखद हैं। हमारे यहां इस तरह की घटनाओं के अपवाद भी मौजूद हैं, बंगलुरु में एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर ने माननीय राष्ट्रपति के काफिले के बीच एक एम्बुलेंस को निकलने का रास्ता दिया। इंस्पेक्टर के इस कदम की आम जनता से लेकर उच्च अधिकारियों तक सभी ने जम कर प्रशंसा की। एक तरफ बंगलुरु वाली खबर जहां नई उम्मीद जगाती है वहीं गांधीनगर-गोल्फ क्लब दिल्ली की घटना डराती है।
निजी क्लबों, निजी पार्टियों में ड्रैस कोड होते हैं जहां नियमों का पालन किया जा सकता है लेकिन किसी परम्परागत पोशाक पहने महिला को बाहर जाने को कहना असभ्यता है, असंवैधानिक है। इस देश की विडम्बना है कि ताइलिन लिंगदोह के साथ जो हुआ, वह भारत की सामाजिक व्यवस्था में कहीं न कहीं भीतर तक बैठा हुआ है। आखिर सभ्य समाज में ऐसी मानसिकता क्यों कायम है? कौन से ऐसे पूर्वाग्रह हैं जो सभ्य समाज में बाधक बन रहे हैं। कभी पूर्वोत्तर की महिलाओं पर अश्लील टिप्पणियां की जाती हैं, कभी उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, कभी मारपीट की जाती है। कभी दक्षिण अफ्रीकी देशों के छात्रों से मारपीट की जाती है, कभी उन्हें काला बन्दर कहकर पुकारा जाता है। भारत में इन घटनाओं को होना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन उससे भी बड़ी विडम्बना है कि हम ऐसी त्रासद एवं दुःखद घटनाओं को बड़े चटकारे लेकर सोशल मीडिया के जरिये दुनिया भर में शेयर करते हैं। जिससे हमारी संकीर्ण मानसिकता एवं ओछी सोच उजागर होती है, इसका नुकसान देश को उठाना पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं का विरोध किया ही जाना चाहिए।
लेकिन हमारी विरोध की ताकत भी किन्हीं संकीर्णताओं की शिकार है। यही कारण है कि इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का लोकतंत्र कहलाने वाला भारत आज अराजकता के चैराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चैराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश की कल्पना अनुशासन एवं शालीन व्यवहार के बिना कैसे की जा सकती है?

 

इसी प्रकार राष्ट्रीय जीवन में कितनी ही विसंगतियों एवं विरोधाभासों के छिद्र हैं जिनसे रात-दिन जहरीली गैसें निकलती रहती हैं। वे जीवन समाप्त नहीं करतीं पर जीवन मूल्य समाप्त कर रही हैं। हमारे राष्ट्रीय चरित्र की भी यही स्थिति है। कई प्रकार के जहरीले दबावों से प्रभावित है। अगर राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठाता है तो लगता है यह कोई विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुसाया जा रहा है। जिस मर्यादा, सद्चरित्र और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही है, सामाजिक व्यवस्था बनी रही है, जीवन व्यवहार चलता रहा है वे लुप्त हो गये। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था, हमने उसको उतार कर खूंटी पर टांग दिया है। मानो वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब काम की नहीं रही।
राष्ट्रीय चरित्र न तो आयात होता है और न निर्यात और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। इसे देश, काल, स्थिति व राष्ट्रीय हित को देखकर बनाया जाता है, जिसमें हमारी संस्कृति, सभ्यता एवं लोकतंत्र शुद्ध सांस ले सके। आवश्यकता है उन मूल्यों को वापस लौटा लाने की। आवश्यकता है मनुष्य को प्रामाणिक बनाने की। आवश्यकता है लोकतांत्रिक मूल्यों को जीवंतता देने की। आवश्यकता है राष्ट्रीय हित को सर्वाेपरि रखकर चलने की, तभी देश के चरित्र में नैतिकता आ सकेगी।

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