कुछ दिन के लिये,
लेखनी कभी रुक सी जाती है।
कोई कविता या कहानी,
जब नहीं भीतर कसमसाती है,
तब कोई बन्दिश पुरानी,
याद आती है,
कोई सुरीली तान मन में,
गुनगुनाती है।
कहीं से शब्द जुड़ते हैं,
कहीं पर भाव मुड़ते हैं,
कोई रचना तभी,
काग़ज पर उतरके आती है।
कोई पढ़े या न पढ़े ,
ये ज़रूरी भी नहीं,
फिरभी लेखनी है कि,
चलती जाती है।
अविरल , अविराम,तनिक विश्राम,
अर्धविराम आते हैं,
पूर्ण विराम लग जाये,
यदि लेखनी मेरी रुक जाये,
तो नींद कहाँ मुझे आती है।
चित्रकार की तूलिका समान,
लेखनी रंग बिखेरे जाती है।
शब्दों और रंगों की सीमा में,
अभिव्यक्ति की नहीं कोई सीमा,
हर बार कोई नई बात,
उभर कर आती है।
जब लगा लेखनी रुकने सी लगी है,
तब ऊर्जा नई ,
कहीं से न कहीं से आती है।