अराजकता बढ़ाएगी पेटोलियम कंपनियों को दाम बढ़ाने की छूट

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petrolप्रमोद भार्गव

केंद्र सरकार मंहगार्इ बढ़ाकर जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। पहले रेल में किराया वृद्धि और अब ज्वलनशील व खाध तेलों को मंहगा करने के उपायों को अंजाम देकर सरकार ने आम आदमी को जबरदस्त आर्थिक संकट में डाल दिया है। पेटोलियम पदार्थों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करके कंपनियों के हवाले कर देना जनविरोधी फैसला है। कंपनियों का हर माह व हर साल के हिसाब से डीजल, पेटोल, केरोसिन और रसोर्इ गैस को मंहगा व सब्सड़ी मुक्त करने की छूट दी गर्इ है, यह स्थिति कंपनियों को निरंकुश अराजकता की ओर ले जाएगी। यही नहीं कैबिनेट समिति ने खाध तैलों पर ढार्इ प्रतिशत आायात शुल्क का फैसला लेकर आम जनता को बड़ी मार झेलने के लिए विवश कर दिया है। जबकि अभी तक कच्चे तेल का आयात निशुल्क होता चला आ रहा था। दरअसल तेल कंपनियों को खुली छूट देने की पृष्ठभूमि तो मनमोहन सिंह सरकार ने उसी समय रच दी थी जब जयपाल रेडडी को हटाकर वीरप्पा मोइली को पेटोलियम मंत्री बनाया गया था। रेडडी ने तो संसद में कंपनियों के मुनाफे के आंकड़े देकर इस भ्रम को तोड़ा था कि कंपनियां घाटे में हंै।

विजय केलकर समिति की सिफारिषों को आधार बनाकर केंद्रीय कैबिनेट ने तेल कंपनियों को दाम बढ़ाने के लिए खुल्ला छोड़ दिया है। समिति ने डीजल की कीमत हर महीने 60 पैसे प्रति लीटर बढ़ाने की सिफारिश की थी। सरकार ने इसे 10 पैसे घटाकर 50 पैसे तक बढ़ाने की छूट दी है। इसी तरह केरोसिन की कीमत अगले दो साल तक प्रति साल 10 रुपए बढ़ार्इ जाएगी। कैबिनेट ने सब्सड़ी वाले रसोर्इ गैस सिलेंडरों की संख्या जरुर 6 से बढ़ाकर 9 कर दी है, लेकिन अगले चार साल तक प्रति वर्ष हर सिलेंडर की कीमत में 130 रुपये की वृद्धि भी की जाएगी। इन कीमतों को बढ़ाने का कारण, इन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों तक ले जाना है। जिससे तेल कंपनियां घाटे में न रहें। कंपनियों का ऐसा दावा है कि उन्हें रोजाना 384 करोड़ का घाटा उठाना पड़ रहा है, जिसकी पूर्ति सरकार अनुदान राशि देकर करती है। 2012-13 में कंपनियों को 1लाख 66 करोड़ की सब्सड़ी दी गर्इ। फिलहाल कंपनियों को सरकार डीजल पर 10.16 रुपए, केरोसिन पर प्रति लीटर 32.17 और 14.2 किलोग्राम के रसोर्इ सिलेंडर पर 490.50 रुपए की सब्सड़ी देती है। तेल विषेशज्ञों का अनुमान है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के बढ़ते मूल्य और डालर की तुलना में रुपए के घटते मूल्य के कारण 2013-14 में यह घाटा 1लाख 65 हजार करोड़ तक पहुंच सकता है।

वित्तमंत्री पी. चिदंबरम देश के चालू खाते के लगातार बढ़ रहे घाटे को कच्चे तेल के आयात को मान रहे हैं।जबकि इसमें सोने का आयात और उर्वरक भी शामिल हैं। हमें 80 फीसदी पेटोलियम पदार्थ कच्चे तेल के रुप में दूसरे देशों से आयात करने होते हैं। सरकार मानकर चल रही है कि इसी कारण भुगतान संतुलन के खतरे का सामना करना पड़ रहा है और घटती विदेशी मुद्रा की मुख्य वजह भी यही तेल है। लेकिन हकीकत यह नहीं है। तेल का आयात कोर्इ बहुत ज्यादा नहीं बढ़ा है, किंतु निर्यात में बेतहाशा गिरावट आर्इ है। औधोगिक क्षेत्र का निर्यात यूरोप और अमेरिका की मंदी के चलते चिंताजनक स्तर तक घट गया है। सरकार को उम्मीद थी कि देश में प्रत्यक्ष विशी निवेश बढ़ने से विशी मुद्रा भंडार का संकट दूर हो जाएगा। इसीलिए केंद्र ने अपने असितत्व को दांव पर लगाकर खुदरा व्यापार में एफडीआर्इ की मंजूरी दी थी। लेकिन इसके नतीजे उत्साहजनक नहीं रहे। डालर की बढ़ोतरी नहीं हुर्इ।

सरकार को इस सच्चार्इ से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि हमारी सबसे ज्यादा विशी मुद्रा पेटोलियम उत्पाद के आयात में खर्च होती है। उपर से डालर की तुलना में रुपये के मूल्य का घट जाना, जलती आग में घी डालने का काम करता है। कच्चे तेल की कीमतें भी अतंरराष्ट्रीय बाजार में छलांग लगाती रहती हैं। ऐसे में बार-बार तेल के दाम बढ़ाकर राजस्व घाटा कम करने के फौरी उपाय जन-कल्याणकारी नहीं हैं। सरकार को पैटोलियम सब्सड़ी के सवाल पर नए सिरे से सोचने की जरुरत है। सरकार क्यों नहीं ऐसी नीति को अमल में लाती, जिससे नए कार और मोटर कारखानों पर अंकुश लगे। विदेशी मंहगी, बड़ी और डीजल अथवा पेटोल पीने वाली कारों के निर्यात पर प्रतिबंध लगे। एक ही घर में दर्जनों कारें क्यों हों ? जिनकी मासिक आय लाखों में है, उन्हें सब्सड़ी का लाभ क्यों मिलें ? सब्सड़ी का लाभ केवल कम आमदनी वाले गरीब को देने की जरुरत है, न कि धनाढयों, सांसद-विधायकों और आला अधिकारियों को ? कमजोर तबको के हितों की रक्षा करना किसी भी सरकार का लोकतांत्रिक दायित्व है। लेकिन पेटोलियम छूट का जिस तरह से बेज़ा इस्तेमाल हो रहा है, उससे भी समस्या गंभीर बनी है। डीजल की बड़ी मात्रा मंहगी कारों में खप रही है और केरोसिन डीजल में मिलाया जा रहा है। घरेलू गैस सिलेंडर का उपयोग गैस से चलने वाली कारों और सभी तरह के होटलों में धड़ल्ले से हो रहा है। इसे वितरण की विसंगति कह लें या कालाबाजारी, नियंत्रित करने की प्रशासनिक-दक्षता न केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों में दिखार्इ दे रही है। ऐसे दुरुपयोगों की ही वजह है कि जीडीपी दर 5.3 पर आकर अटक गर्इ है।

केंद्र सरकार पेटोलियम कंपनियों के घाटे का रोना व्यर्थ रो रही है। जब पेटोलियम मंत्रालय जयपाल रेडडी के हाथों में था, तब उन्होंने लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तेल कंपनियों के लाभ के आंकडें पेश किए थे। सार्वजनिक क्षेत्र की इन तेल कंपनियों द्वारा सभी प्रकार के कर चुकाने के बाद शुद्ध लाभ का ब्यौरा इस प्रकार था, 2010-11 में ओएनजीसी ने 18,924 करोड़ रुपये का, आर्इओसी ने 7445 करोड़ का, बीपीसीएल 1547 करोड़ का और एचपीसीएल ने 1539 करोड़ का शुद्ध मुनाफा कमाया था। यही नहीं इन कंपनियों के कर्मचारी-अधिकारियों पर वेतन-भत्तों और विदेश यात्राओं पर भी खूब धन लुटाया गया है। इन आंकड़ों और खर्चों से तय होता है कि कंपनियों के घाटे से जुड़ी चिंता, घडि़याली आंसुओं की तरह है।

सरकार ने तेल कंपनियों की तर्ज पर ही खाध तेल उधोग को प्रोत्साहित करने के नजरिए से खाध तेल पर 2.5 प्रतिशत आयात शुल्क तय कर दिया है। आयात शुल्क से किसान और मजदूर को कोर्इ राहत मिलने की बजाए मंहगे खाध तेल खरीदने की और मार झेलनी होगी। इसे भी सरकार व्यापार घाटा कम करने की वजह मान रही है।इससे केवल तेल उधोग से जुड़े व्यापारियों को लाभ होगा। हमारे देश में खाध तेलों का खपत की तुलना में उत्पादन नहीं होता, इस वजह से ये तेल आयात करने की मजबूरी उठानी पड़ती है। सोयाबीन का उत्पादन करीब 115 लाख टन हो रहा है, जबकि सोया संयंत्रों की पिरोर्इ क्षमता 225 लाख टन से अधिक की है। क्यों नहीं सरकार ऐसे उपाय करती जिससे सोयाबीन के उत्पादन में बढ़ोतरी हो और सोया-संयंत्र पिरार्इ क्षमता का सदुपयोग कर सकें। यदि उत्पादन और पिरार्इ में संतुलन बन जाता है तो तेल का आयात भी कम करना पड़ेगा। तेल-वर्ष 2011-12 ;नवंबर से अक्टूबर के दौरान कुल वनस्पति तेलों का आयात 1.09 करोड़ टन रहा था, जो एक कीर्तिमान था। इस तेल का अभी तक आयात निशुल्क होता था। केवल रिफाइड खाध तेल पर 7.5 प्रतिशत निर्यात कर शुनिश्चित था। भारत सरकार के कृशि मंत्रालय ने कच्चे खाध तेल पर शुल्क बढ़ाने का प्रस्ताव इसलिए किया था,ताकि पाम उगाने वाले उत्पादकों के हितों की रक्षा की जा सके। आंध्रप्रदेश में सबसे ज्यादा पाम उत्पादक किसान हैं। लेकिन यहां सोचनीय पहलू यह है कि जब अन्य देशो से सस्ता तेल आयात बिना किसी परेशानी के हो रहा है,तो इस पर आयात शुल्क किसलिए?इससे तो आम आदमी को तेल और मंहगे ही खरीदने पड़ेंगे? आयात की बजाए हमें तेल पिरार्इ के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने की जरूरत है। बहरहाल इन उपायों से न तो आम आदमी को राहत मिलने वाली है और न ही अर्थव्यवस्था कुलांचे भरने लग जाएगी,यह उम्मीद की जा सकती है। जयपुर में कांग्रेस के चल रहे चिंतन शिविर में पेट्र्रोलियम नीति पर भी नए सिरे से पुनर्विचार व चिंता करने की जरूरत है।

 

2 COMMENTS

  1. सरकार के फैसले वर्ल्ड बैंक और अमेरिका के हिसाब से सब्सिडी घटाने के होते हैं उनको इस बात से मतलब नही के आम आदमी पर इस का क्या असर पड़ेगा अलबत्ता वे अमीर लोगों के एजेंट के रूप में जरूर काम क्र रहे हैं.

  2. कुछ बातें मेरी समझ से परे हो जाती हैं उन्हीं में से एक है डीजल और उसका मूल्य निर्धारण .डीजल का इस्तेमाल दो पहिया वाहनों और छोटे कारों में नहीं होता,अतः समाज के मध्यम वर्ग के लिए उसका विशेष उपयोग नहीं है।डीजल बड़े गाड़ियों के लिए इंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है,जो कम कीमत में डीजल बेचे जाने का खुला दुरूपयोग है।डीजल का उपयोग वहां भी होता है,जहां बिजली पहुंचाई जानी चाहिए थी,जैसे किसानो के लिए पम्प और ऐसे ही कृषि की उपयोग की चीजें।डीजल का उपयोग सार्वजनिक वाहनों के लिए होता है,वहां उसके विकल्प के रूप में सीएनजी के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए था। वही बात ट्रकों के लिए भी लागू होती है। शहरों और अब तो देहातों में भी बड़े बड़े डीजी सेटों का इस्तेमाल होता है।आखिर क्यों ?इससे प्रदूषण कितना बढ़ता है,क्या किसीने इस पर ध्यान देने की आवश्कता समझी? क्यों नहीं ऐसे सब जगहों पर बिजली पहुंचाई जा सकती?डीजल की कीमत को कृत्रिम रूप से कम रखने पर यह बोझ उनपर भी पड़ता है जो दो जून की रोटी जुटा पाने में भी असमर्थ हैं और सबसे अधिक लाभ समाज के ऊँचे तबके को होता है। क्या डीजल की कीमत घटाए जाने की वकालत करने वालों ने इन मुद्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता कभी महसूस की?

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