फेसबुक और नवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के अनुत्तरित सवाल

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

नौवां विश्व हिन्दी सम्मेलन को समग्रता में देखें तो यह हिन्दी का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला है। इससे हिन्दीसेवा कम हुई। नौकरशाही,कांग्रेस और संघ परिवार के कारिंदालेखकों -हिन्दीसैनिकों एवं सांसदों की मौजमस्ती ज्यादा हुई।

कायदे से राजभाषा संसदीय समिति को इस सम्मेलन की गहराई में जाकर जांच करनी चाहिए और खोजी पत्रकारों को इस सम्मेलन की अंदरूनी अपव्यय गाथा को खोलना चाहिए।

हिन्दी के नाम पर यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। औसतन प्रत्येक प्रतिभागी पर 3-5लाख रूपये का खर्चा आया है ।इसके आयोजन पर करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाए गए हैं। वह भी एक ऐसे देश में जिसमें हिन्दी का व्यवहार कुछ हजारलोग करते हैं।

हिन्दी का यह 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला है।इस घोटाले में शामिल लोग बार बार और जल्दी जल्दी इस तरह के सम्मेलन(घोटाले) की मांग कर रहे हैं। साहित्य में प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह सांस्थानिक भ्रष्टाचार है। इसका नव्य आर्थिक उदारीकरण से गहरा संबंध है।

डीडी न्यूज पर अभी ( 7अक्टूबर 12) रिपोर्ट दिखाई गई उसमें विचार विमर्श के सत्रों और विभिन्न विद्वानों के विचारों की झलकियां तक दिखाना जरूरी नहीं समझा गया। सारा जोर नेताओं और गैर-अकादमिक पहलुओं को पेश करने पर था। डीडी न्यूज ने इतनी खराब रिपोर्ट पेश करके विश्व हिन्दी सम्मेलन के लेखकों की लेखकीय हैसियत का एक तरह से ज्ञान कराया है। कहां सोए हैं जोहानसवर्ग के हिन्दी सैनिक ? रीयलटाइम के युग में इतने दिन बाद रिपोर्ट का मतलब क्या है ?

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जोहानसवर्ग में हिन्दी के नाम पर जो कुछ हुआ उसमें नया कुछ नहीं है।हिन्दीवाले जैसे हैं वैसा ही उन्होंने वहां व्यवहार किया।सरकार जैसी है और जो व्यवहार यहां हिन्दी से करती है वही वहां पर किया।

इसके बावजूद हिन्दी सम्मेलन के नाम पर जिस तरह का अहंकार वहां से लौटे हिन्दीसैनिकों के चेहरे पर दिखा ,वह हिन्दी के लिए ही नहीं सरकार के लिए भी बुरी सूचना है। मनमोहन सरकार करोड़ों रूपये खर्च करके हिन्दी के श्रेष्ठ लेखकों और उनके श्रेष्ठ विचारों को सम्मेलन की ओर खींचने में असफल रही है।किसी भी सत्र में न तो कोई नया विचार पेश किया गया और न ही कोई नया शोधपत्र ही सामने आया।

क्या हिन्दी के प्रोफेसर कुछ इतिहास-विज्ञान आदि के भारत में हो रहे सम्मेलनों से कुछ सीखेंगे ? या फिर अपने उत्सवधर्मी हिन्दीसैनिक के बाने में ही सजे-धजे रहेंगे ? मजेदार बात यह है कि सम्मेलन में पढ़े गए आलेखों के चयन का भी कोई अकादमिक आधार नहीं था। जो जैसा लिखकर ले गए उनको वैसा ही पढ़वा दिया।इस तरह के गैर-अकादमिक सेमीनार और उनमें गैर-अकादमिक स्तरहीन आलेख पाठ सिर्फ हिन्दी में ही संभव हैं।

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हाल ही में जोहानसवर्ग में नौवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में अनेक हिन्दी प्रोफेसरों-पत्रकारों और लेखकों ने हिस्सा लिया था लेकिन अभी तक किसी भी जगह इंटरनेट,ब्लॉग.अखबार आदि में समग्रता में इस सम्मेलन पर किसी भी हिन्दी सैनिक ( सम्मेलन में शामिल लेखक) की कोई विस्तृत रिपोर्ट नहीं छपी है जिससे यह जान सकें कि आखिरकार कितने सारवान सत्र हुए और किसने क्या कहा। हिन्दी के नाम पर आए दिन अखबारों में छपने वाले तथाकथित हिन्दी प्रोफेसरनुमा समीक्षकों की भी लिखी कोई विस्तृत रिपोर्ट नजर से नहीं गुजरी है।

सम्मेलन में भाग लेकर लौटे हिन्दी सैनिकों के हिन्दीप्रेम का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि विदेश मंत्रालय, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की बेवसाइट भी इस संदर्भ में सुनी पड़ी हैं।

करोड़ों रूपये इस सम्मेलन पर खर्च करने के बावजूद भी इसके प्रामाणिक दस्तावेज,रिपोर्ट ,आलेख आदि के बारे में एक व्यापक रिपोर्ट का न होना हिन्दी के लिए क्या शुभ संकेत है ?

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जनसत्ता संपादक ओम थानवी ने फेसबुक पर लिखा-

पता चला है कि द. अफ़्रीका में हाल ही संपन्न विश्व हिंदी सम्मलेन में महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से बारह (12) लोग गए। इनमें कुलपति विभूतिनारायण राय के अलावा विश्वविद्यालय के प्रो-वीसी आदि विभिन्न ओहदेदार शामिल थे। मैंने कल अशोक वाजपेयी जी से पूछा कि आपके कार्यकाल में कितने लोग गए थे? जवाब मिला: “एक भी नहीं। यह विदेश मंत्रालय का आयोजन है। हिंदी के नाम पर पाखण्ड ऊपर से। हम

क्यों भेजें लोग, वह भी उनका अपना काम छुड़ा कर?” यह भी पता चला कि जोहानिसबर्ग में वर्धा विश्वविद्यालय के प्रो-वीसी (डॉ अरविंदाक्षन, जो अध्येता के रूप में जाने जाते हैं) को वर्धा से गए बाकी सहयोगियों के साथ महज़ चार पन्ने का सम्मलेन-बुलेटिन निकालने का काम सौंपा गया; पत्र-वाचन छोड़िए, उन्हें सम्मलेन के एक भी सत्र में शिरकत तक की मोहलत नहीं दी गयी! दिलचस्प बात यह है कि बुलेटिन का काम पहले के दोनों सम्मेलनों में (ठेके पर) अशोक चक्रधर करते थे!

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बंगला ,तमिल,मलयालम आदि में लेखकों एवं संस्कृतिकर्मियों के विश्व सम्मेलन गैर सरकारी खर्चे से होते हैं। इन भाषाओं के लेखक कभी केन्द्र या राज्य सरकार से आर्थिक मदद नहीं मांगते। लेकिन हिन्दी लेखक विश्व हिन्दी सम्मेलन करने के लिए सरकारी मदद के मोहताज हैं।

हिन्दी का यह दुर्भाग्य है कि हिन्दी को अपने सम्मेलन करने के लिए सरकारी मदद की जरूरत पड़ती है। सरकारी मदद से साहित्यसेवा नहीं हो सकती,बल्कि सरकार सेवा और मंत्रीभक्ति हो सकती है।

जोहांनसबर्ग में हिन्दी के वीरपुंगवों की हैसियत कैसी रही है इसका साक्षात प्रमाण है कि वहां पर सरकारी कांग्रेसी सांसदों और सरकारी लेखकों ने मंच घेरा हुआ था। कोई भी हिन्दी का वीरपुंगव लेखक अपने भाषण की यू-ट्यूब नेट पर नहीं दे पाया है। सरकार ने भी इसकी कार्यवाही को विस्तार के साथ ऑडियो-वीडियो रूप में इंटरनेट पर नहीं दिया है।आलेख लेखकों के लेख भी नजर नहीं आ रहे हैं। क्या आपको कोई सामग्री नेट पर नजर आई ?

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जोहांनसबर्ग में हिन्दी 9वें विश्व सम्मेलन के मौके पर 700 धुरंधर एकत्रित हुए थे, लेकिन रोचक बात यह है कि इस सम्मेलन में हरबार की तरह किसी भी मसले पर विचारोत्तेजक बहस नहीं हुई। उत्सवधर्मी ढ़ंग से सब कुछ सिलट गया।

अखबारों की रिपोर्ट बताती हैं कि सम्मेलन में भागलेने वाले अधिकांश प्रमुख वक्ता लोकल अनौपचारिक तकरीर करते रहे। आमतौर पर सम्मेलन वैचारिक विवादों को जन्म देते हैं,लेकिन विश्व हिन्दी सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह अब तक किसी भी साहित्यिक विवाद को जन्म नहीं दे पाया है।जबकि समय-समय पर सभी रंगत के नामी-गिरामी विद्वान इसमें शामिल हुए हैं। यह भी कह सकते हैं सरकारी तम्बू में विचारों की टकराहट के लिए कोई जगह नहीं होती।

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जोहांनसबर्ग में 9वां विश्व हिन्दी सम्मेलन समाप्त हो गया है एक औपचारिक प्रस्ताव पास करके कि हिन्दी को यूएनओ की भाषा बनाया जाय। सवाल यह है कि इस तरह का प्रस्ताव भारत की संसद से पास कराकर उस दिशा में सरकार को प्रयास करना चाहिए। हिन्दी सम्मेलन के बहाने हिन्दी की राजनीति और धंधेखोरी नहीं की जानी चाहिए। यदि सरकार गंभीर है तो वो यूएनओ को अनुरोध करे और तदनुरूप व्यवस्था करे। जहां तक हमें याद है यूएनओ के लोग एक मर्तबा रजामंदी भी व्यक्त कर चुके हैं उन्होंने यही कहा था कि उसके लिए सालाना 100करोड़ का खर्चा आएगा।भारत सरकार यह खर्चा करे तो यूएनओ में हिन्दी में भाषण की व्यवस्था भी हो जाएगी।

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हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को सरकारी भाषा बनाने का प्रस्ताव इस अर्थ में भी अंधभाषावादी एजेण्डा है क्योंकि इससे भाषा के कम्युनिकेशन विस्तार में कोई खास मदद नहीं मिलेगी।हमारे सभी दूतावास और संयुक्त राष्ट्र संघ के जेनेवा स्थित दूतावास में तो साल में एक-दो पत्र तक हिन्दी में नहीं लिखे जाते। यह राजनीतिक नाटक विशुद्ध रूप से भाषा की प्रतिक्रियावादी राजनीति का अभिन्न हिस्सा है।

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हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं के भारत में विश्वस्तरीय अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था न कर पाने वाली भारत सरकार और उसके संस्थानों और उनके साथ जुड़े तथाकथित हिन्दीसेवियों का पहला दायित्व यह है कि वे अपने देश में सभी भातीय भाषाओं के पठन-पाठन की विश्वस्तरीय व्वस्था का निर्माण करें। हिन्दी का उत्थान संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने से नहीं होगा।हिन्दी का उत्थान तो भारत में हिन्दी के पठन-पाठन का स्तर ऊँचा करके होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को कम्युनिकेशन की भाषा बनाने का नारा अंधभाषावाद है। सामान्यभाषा में कहें तो यह अपव्यय है।

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नौवां विश्व हिन्दी सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका में चल रहा है इसमें 700 हिन्दी विद्वान गए हैं इन विद्वानों से एक ही विनम्र अनुरोध है कि वे कम से कम अपने देश के शिक्षित युवाओं से यह पूछ लें कि क्या वे हिन्दी पढ़ना चाहते हैं?

भारत सरकार की भाषानीति का यह दुष्परिणाम है कि अधिकतर शिक्षित युवा हिन्दी पढ़ना नहीं चाहते। त्रासदी यह है कि जो विद्वान और भारत सरकार मिलकर अपने देश के युवाओं में भारतीय भाषाओं के प्रति प्रेम नहीं जगा पाए ,हिन्दी के पठन-पाठन के लिए अनुराग नहीं पैदा कर पाए वे हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग कर रहे हैं।

भारत में आज भी आधी से ज्यादा आबादी हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानती। ऐसे में हिन्दी सम्मेलन की आड़ में यह अंध हिन्दीभाषावाद है।

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नौवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की विदेश मंत्रालय द्वारा सम्मेलन के पहले की गयी प्रेस कांफ्रेस एक नमूना है कि भारत सरकार हिन्दी को अंग्रेजी के बाद स्थान देती है। प्रेस क़ॉफ्रेंस का आरंभ अंग्रेजी से हुआ।इस तरह से क्या हिन्दी विश्वभाषा बनेगी ?

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यह एक खुला सच है कि विश्व हिन्दी सम्मेलन कांग्रेस और संघ परिवार की हिन्दीवादी राजनीति का खुला मिश्रित मंच है। यह नोट करने की बात है कि इसके संचालन में ये दोनों संगठन प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं। दोनों ही संगठनों की हिन्दी के विकास में कम और हिन्दी की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी रही है। आयोजन से लेकर इसमें भागलेने वाले विद्वानों के चयन या शिरकत तक में इस राजनीतिक ध्रुवीकरण की बड़ी भूमिका है। सवाल यह है कि हिन्दी के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को क्या इस तरह की प्रतिस्पर्धा से बचा सकते हैं ? क्या हिन्दी को केन्द्र सरकार के द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने से प्रचार-प्रसार का मौका मिलेगा। यदि ऐसा ही था तो केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में आज तक कोई नोट या सर्कुलर पहले हिन्दी में क्यों नहीं लिखा जाता। कायदे से पहले सर्कुलर हिन्दी में लिखा जाय बाद में अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद हो।लेकिन हो उलटा रहा है। केन्द्र सरकार ने हिन्दी को अनुवाद की भाषा बना दिया है। भाषा का अनुवाद से विकास नहीं होता।यदि ऐसा ही था संस्कृत साहित्य और भाषा को तो सबसे समृद्ध होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी वह अनुवाद की ही भाषा होगी।

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नौवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के मौके पर जो लोग यह मांग करने जा रहे हैं कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनाया जाय उनमें कांग्रेस के नेता बढ़त बनाए हुए हैं कांग्रेस के नेताओं से एक ही सवाल है कि कम से कम वे एक विदेशमंत्री,वित्तमंत्री और गृहमंत्री ऐसा चुनें जो नियमित संसद में हिन्दी में भाषण देना जानता हो। हमने तो अपने मौजूदा विदेशमंत्री को कभी हिन्दी में बोलते नहीं देखा है ऐसे में विदेश मंत्रालय और विश्व हिन्दी सम्मेलन की हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट मांग है। कांग्रेस के लोग इसके बहाने घटिया भाषा राजनीति खेल रहे हैं और इसे उदघाटित किया चाहिए।

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नौवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में शामिल विद्वानों , कांग्रेस के नेताओं और हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग करने वालों से एक ही सवाल है कि उनके बच्चे किस माध्यम से और किन विषयों की शिक्षा प्राप्त रहे हैं? जहांतक मेरा अनुभव है अधिकांश के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं।

कांग्रेसी नीतियों ने हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने वालों के प्रति खासकिस्म की घृणादृष्टि को नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में युवाओं में विकसित किया है। उनमें अत्याधुनिक माध्यमों के जरिए अंग्रेजीप्रेम पैदा किया गया । भारत में विगत 60सालों में दर्जनों भाषा और बोलियां मर गयी हैं और हमारे हिन्दी विद्वान हिन्दी के नाम पर केन्द्र सरकार की भाषाविरोधी नीतियों पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं।

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नौवें हिन्दी सम्मेलन में जो लोग अनुवाद के जरिए हिन्दी के विकास की बातें सोच रहे हैं। वे गलत सोच रहे हैं। मसलन् अंग्रेजी भाषा की रचनाएं हिन्दी में आएंगी तो इससे अंग्रेजी साहित्य का प्रचार-प्रसार होगा हिन्दी का नहीं।

सवाल यह है कि हिन्दी की रचनाओं और रचनाकारों की भारतीय भाषाओं से लेकर अंग्रेजी भाषा में कितनी किताबें हिन्दी के प्रकाशक छापते हैं या भारत के अंग्रेजी प्रकाशक छापते हैं ? वे साल में हिन्दी की कितनी किताबें हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद करके छाप रहे हैं। यदि इस नजरिए से देखें तो हिन्दी कहीं भी नजर नहीं आती।

जरा गौर करें अमेरिका-ब्रिटेन,फ्रांस आदि से अनुदित किताबों में विगत साठ साल में कितनी हिन्दी लेखकों की किताबें प्रकाशित हुई हैं ? इस नजरिए से विश्व हिन्दी सम्मेलन सत्य पर परदा डालने का काम कर रहा है। भाषा में असत्य प्रेम फासिज्म की कला है।

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भारत सरकार का विदेश मंत्रालय और उसके मातहत काम करने वाला संगठन आईसीसीआर जो विदेशों में शिक्षकों को पढ़ाने के लिए भेजता है। यह संगठन और इससे जुड़े विभिन्न देशों में कार्यरत दूतावास विदेशों में हिन्दी पढ़ाने वालों के प्रति दोयमदर्जे का घृणास्पद व्यवहार करते हैं।वे इन शिक्षकों को विदेशों में वे सुविधाएं तक नहीं देते जो सुविधाएं भारत में विभिन्न विश्वविद्यालयों में दी जाती हैं। ऐसी स्थिति में विदेश मंत्रालय का हिन्दी को विश्वभाषा बनाने का दावा विशुद्ध अंधभाषावाद है और भाषा के प्रति कांग्रेस सरकार के फासिस्ट नजरिए को ही व्यक्त करता है।

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नौवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के मौके पर मनमोहन सिंह की सरकार और उनके विदेश मंत्रालय का हिन्दी के प्रति विद्वेषपूर्ण रूख को देखने के लिए कुछ अर्सा पहले लिए गए एक फैसले का जिक्र करना ही काफी होगा। आईसीसीआर के तहत विदेशों में हिन्दी के 19प्रोफेसर पद थे । इनमें से 6 प्रोफेसर पद खत्म कर दिए गए हैं। उनकी जगह 6 स्कूल शिक्षक के पद बनाए गए हैं। मजेदार बात यह है कि हिन्दुस्तान में हिन्दी की राजनीति करने वाले मठाधीशों ने इस फैसले के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोला। कायदे से हिन्दी के प्रोफेसर पदों में इजाफा किया जाना चाहिए लेकिन मनमोहन सरकार के हिन्दी विद्वेष के कारण हुआ उलटा और 6 प्रोफेसर पद खत्म कर दिए गए। इस कटौती के खिलाफ विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने वाले 700 डेलीगेट से लेकर नामधारी आयोजकों ने एक शब्द आलोचना में नहीं बोला। कहने का अर्थ है कि कांग्रेस और उनका विदेश विभाग नियमित ढ़ंग से हिन्दी विरोधी फैसले ले रहा है और हम सब चुपचाप देख रहे हैं। आश्चर्य तो तब हुआ कि हिन्दी के समाचारपत्रों तक में इस कटौती की खबर नहीं छपी।

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जोहांनसबर्ग में हिन्दी का नौवां विश्व सम्मेलन हो रहा है। क्या दक्षिण अफ्रीका के लोकल अखबारों में कहीं आपने कवरेज देखा ?पता चले तो शेयर करें।भारत के हिन्दी के तकरीबन सभी बड़े अखबारों और अंग्रेजी के समाचारपत्रों में यह सम्मेलन गायब है। कमाल की कवरेज तैयारियां की हैं आयोजकों ने , वे यहां से हिन्दी और अन्य प्रमुखभाषाओं के संवाददाता ले गए हैं क्या ?

(फेसबुक पर लिखी टिप्पणियां)

1 COMMENT

  1. पूरे आलेख में एक भी प्रसंग संघ परिवार से जुड़े किसी व्यक्ति के इस सम्मलेन में जाने या सरकारी व्यय पर मौज मस्ती करने के विषय में नहीं दिया गया है फिर भी इसे कांग्रेसी और संघ परिवार के हिन्दीवादियों के मौज मस्ती का आयोजन बताया गया है. इससे केवल यही पता चलता है की लेखक का इस बारे में घोर दुराग्रह इस लेख में प्रगट होता है. ये समझ नहीं आता की लेखक को किस बात पर आपत्ति है? सम्मलेन के आयोजन पर? या हिंदी को विदेशों में प्रचारित करने पर? या हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग पर? लेखक हिंदी के कारन अपनी आजीविका चलते हैं और हिंदी के प्रसार का विरोध करते हैं. यही वामपंथी दोगलापन कहलाता है.

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