दुर्गापूजा के बहाने स्त्री संस्कृति की खोज- हम व्रत क्यों करते हैं?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इन दिनों पश्चिम बंगाल देवी-पूजा में डूबा हुआ है। चारों कोलकाता शहर में देवीमंडप सजे हैं। जिनमें नवीनतम कला रूपों का कलाकारों-मूर्तिकारों ने प्रयोग किया है। चारों ओर तरह-तरह के सांस्कृतिक अनुष्ठानों का आयोजन हो रहा है और सारा राज्य उसमें डूबा हुआ है। इस पूजा के अवसर पर आम लोग आनंद से रहते हैं। इस मौके पर गरीब और अमीर का भेद नजर नहीं आता। तेरा-मेरा, अपना-पराया, तृणमूली और माकपा का भेद नजर नहीं आता। सभी लोगों में उत्सवधर्मी भाव है।

हिन्दीभाषी क्षेत्रों में नवरात्रि पर्व सिर्फ देवी मंदिरों तक सीमित रहता है। वहां लोग दर्शन करने जाते हैं,व्रत करते हैं। लेकिन सारा शहर बेखबर अपनी धुन में चलता रहता है। लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं है। यहां दुर्गापूजा का अर्थ है जनोत्सव। यहां जगह-जगह अस्थायी दुर्गा के पंडाल लगाए जाते हैं। जिनमें षष्ठी से लेकर नवमी-दशमी तक अपार भीड़ रहती है। समूचा राज्य पूजा और व्रत की उन्मादना में डूबा रहता है। बंगाल में व्रत की परिकल्पना और हिन्दीभाषी राज्यों या बाकी देश में व्रत की परिकल्पना में अंतर है। यहां व्रत का अर्थ सिर्फ उपवास करना ही नहीं है बल्कि इसमें कविता,पद्य, पहेलियां, नृत्य यहां तक कि प्रतीकात्मक चित्र आदि भी शामिल हैं।

इस प्रसंग में मुझे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध निबंध ‘बांगलार व्रत ’ का ध्यान आ रहा है, इस प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने लिखा है ‘‘व्रत मात्र एक इच्छा है। इसे हम चित्रों में देखतें हैं: यह गान और पद्य में प्रतिध्वनित होती है, नाटकों और नृत्यों में इसकी प्रतिक्रिया दिखाई देती है। संक्षेप में व्रत केवल वे इच्छाएं हैं जिन्हें हम गीतों और चित्रों में चलते-फिरते सजीव रूपों में देखते हैं।’’ जो लोग सोचते हैं कि व्रत-उपवास का संबंध धर्म से है, धार्मिक क्रिया से है,वे गलत सोचते हैं। अवनीन्द्रनाथ ने साफ लिखा है ‘‘व्रत न तो प्रार्थना है न ही देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयत्न है।’’ दर्शनशास्त्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘व्रत में निहित उद्देश्य अनिवार्यतः क्रियात्मक उद्देश्य होता है। इसका उद्देश्य देवी देवताओं के समक्ष दंडवत करके किसी वर की याचना करना नहीं है। बल्कि इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि कुछ निश्चित कर्म करके अपनी इच्छा पूर्ण की जाए। वास्तव में परलोक या स्वर्ग का विचार व्रतों से कतई जुड़ा हुआ नहीं है। ’’

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने साफ लिखा है व्रत-उपवास को धार्मिकता के आवरण में कुछ स्वार्थी तत्वों ने बाद में लपेटा था। अवनीन्द्रनाथ मानते हैं व्रत‘‘संगीत के साथ समस्वर है।’’ यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां पर पूरे पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा पर उत्सवधर्मी भाव रहता है।

व्रत की एक विशेषता यह है कि समान इच्छा को लेकर इसे अनेक लोगों को सामूहिक रूप में रखना होता है। यदि किसी व्यक्ति की कोई निजी इच्छा है और वह इसकी पूर्ति के लिए कोई कार्य करता तो इसे व्रत नहीं कहा जाएगा। यह केवल तभी व्रत बनता है जब एक ही परिणाम की प्राप्ति के लिए कई व्यक्ति मिलकर आपस में सहयोग करें।

अवनीन्द्रनाथ ने लिखा है ‘‘ किसी व्यक्ति के लिए नृत्य करना संभव हो सकता है किंतु अभिनय करना नहीं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना और देवताओं को संतुष्ट करना संभव हो सकता है, किंतु व्रत करना नहीं। प्रार्थना और व्रत दोनों का लक्ष्य इच्छाओं की पूर्ति है, प्रार्थना केवल एक व्यक्ति करता है और अंत में यही याचना करता है कि उसकी इच्छा पूरी हो। व्रत अनिवार्यतः सामूहिक अनुष्ठान होता है और इसके परिणामस्वरूप वास्तव में इच्छा पूर्ण होती है।’’

हम वैदिक जनों के पूर्वजों को देखें तो सहज ही समझ में आ जाएगा। वैदिकजनों के पूर्वज व्रत करते हुए गीत गाते थे। इनका लक्ष्य था इच्छाओं की पूर्ति करना। इन्हीं गीतों के सहारे वे जिंदा रहे। गीतों ने देवताओं को भूख और मृत्यु से बचाया और छंदों ने उन्हें आश्रय दिया।

अवनीन्द्र नाथ ठाकुर ने इस सवाल पर भी विचार किया है कि व्रत कितने पुराने हैं। लिखा है,ये व्रत पुराने हैं,वास्तव में बहुत पुराने ,निश्चित रूप से पुराणों से भी पहले के और हो सकता है कि वेदों से भी प्राचीन हों। एक और सवाल वह कि वेद और व्रत में अंतर है। अवनीन्द्ननाथ ठाकुर ने लिखा है वैदिक गीतों में जितनी भी इच्छाएं हैं वे विशेष रूप से पुरूषों की हैं जबकि व्रत पदों में व्यक्त इच्छाएं स्त्रियों की हैंः ‘‘ वैदिक रीतियां पुरूषों के लिए थीं और व्रत स्त्रियों के लिए थे और वेद तथा व्रत के बीच,पुरूषों और स्त्रियों की इच्छाओं का ही अंतर है।’’

सवाल उठता है कि स्त्री की क्या इच्छा थी और पुरूष की क्या इच्छा थी ? इस पर अवनीन्द्न नाथ ठाकुर ने ध्यान नहीं दिया है। वैदिक जनों की आजीविका का प्रमुख साधन पशुधन की अभिवृद्धि करना था। उनकी सबसे बडी इच्छा अधिक से अधिक पशु प्राप्त करने की थी। जबकि व्रत करने वाली स्त्रियों की इच्छा थी अच्छी फसल। औरतों के द्वारा किए गए अधिकांश व्रत कृषि की सफलता की कामना पर आधारित हैं।

वैदिकमंत्रों में कृषि की महत्ता और प्रधानता है। स्त्री-पुरूष दोनों का साझा लक्ष्य था सुरक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि। इन तीन चीजों का ही विभिन्न प्रार्थनाओं और मंत्रों में उल्लेख मिलता है।

7 COMMENTS

  1. दुर्गापूजा के बहाने स्त्री संस्कृति की खोज- हम व्रत क्यों करते हैं? -by-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

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    – अनिल सहगल –

  2. आपने बडी चतुरायी से व्रत से धर्म और ईशवर को निकाल दिया,और इसके लिये वास्तव मे आपने सिध किया की आप चतुर है.
    शायद आपको व्रत का असलि महत्व पता है पर आप उसके तत्व को बतना नहि चाहते है,निश्चित रुप से व्रत इच्छाओं की पुर्ती के लिये किया जाता है पर इसमें फ़्रक यह है कि व्रत अपने इष्ट की आरधना के लिये उसके मार्ग मे अपने को डाल कर अपनी भी कोय़ी ईच्छा पुर्ती के लिये किया जाता है,अधिकांश यह मात्र ईश्वर के लिये ही होता है,मन की शुचिता कायम करने के लिये कुछ साधना करनी पडती है उसका एक मार्ग यह भी है,जिसे आप “तितिक्षा” की तरह ले सकते है………………नृत्य और गायन भी उस जगजननी के लिये ही होता है………..संगीत एक बहुत प्रभावी माध्यम है अपने आपको मातेश्वरी से जोडने का,लय-ताल=छंद के साथ साधक अपने को उस भुवनेश्वरी से जोड लेता है जहा ना आदी है ना अत: ना मध्य…………….केवल वो ही है दुसरा कोयी नही…………………..

  3. श्रीमान प्रभाकर जी, ये सार्वजनिक उत्सव ही है जिन्होंने समाज को बांध कर रखा हुआ है अन्यथा समाज को बिखरते देर नहीं लगेगी. पैसा तो परिवर्तनशील है. एक खर्च करता है तो दूसरा प्राप्त करता है, एक के खर्चने से दुसरे का कमाना है. धर्मं तो नहीं कहता है की आप छमता से बाहर खर्च करो. हमारे देश, धर्म में इतना त्यौहार है की हम खुश होकर मानते है. दुसरे देशो में जहाँ धर्म में रंग नहीं है वहां कुत्ता, बिल्ली, चूहे की प्रतियोगता करते है. आखिर जीवन में कुछ रंग तो होने चाइये. हम खुशकिस्मत है की हमारी दुनिया रंग बिरंगी है.

  4. “हिन्दीभाषी क्षेत्रों में नवरात्रि पर्व सिर्फ देवी मंदिरों तक सीमित रहता है। वहां लोग दर्शन करने जाते हैं,व्रत करते हैं। लेकिन सारा शहर बेखबर अपनी धुन में चलता रहता है।” – आदरणीय चतुर्वेदी जी आपका यह कहना बिलकुल गलत है. आप हिंदी भासी छेत्रो में आकर देखिये तब आपको पता चलेगा. श्रद्धा और विश्वास को किसी तराजू में नहीं तौल सकते है. सभी जगहों में पूजा पाठ के तरीके, पहनावे, भोजन अलग अलग हो सके है, किन्तु भावना तो सभी जगह एक ही होती है. आप हिंदी भाषी जगहों की बात करते है तो आकर देखिये की जो मांसाहारी है किन्तु अगर हिन्दू धर्म को मानते है तो नवरात्र में पूर्ण रूप से शाकाहारी जीवन रखते है.

    व्रत तो धर्म में कही भी अनिवार्य नहीं है. जो नहीं रख सकते है नहीं रखते है किन्तु विशवास तो रखते है. जरुरी नहीं की सुबह शाम पूजा करे किन्तु आचरण से तो त्यौहार मनाते है.

    स्त्री और पुरुष की शारीरिक बनावट में अंतर होता है. स्त्री सामान्तया पुरुषो से शारीरिक बनावट में कमजोर, सहनशील होती है अत वे व्रत को आसानी से कर सकती है और करती है.

  5. इस तरह के सार्वजनिक उत्सवों ने पूरे समाज का बंटाधार कर रखा है, इन्ही के कारण गरीब हमेशा गरीब बना रहता है. त्योहार आ गया, उसे भी बड़े लोगों की नकल करते हुए खूब खर्च करना है, आमदनी है नहीं तो इज्जत बचाने के लिये कर्ज ले लेता है. एक त्योहार बीता नही कि दूसरा आ जाता है, फिर खर्च और फिर उधार, यही चक्र चलता रहता है. बच्चों के लिये पौष्टिक भोजन, किताब कॉपियां और अच्छे स्कूल जरूरत की सूची से हट जाते हैं. हर गली-मोहल्ले-चौराहे पर पंडाल बनाकर सार्वजनिक आवागमन पूरे तौर से बाधित हो जाता है. चंदे के लिये लोगों को धमकाने और रगड़ने से रंगदारी का अच्छा प्रशिक्षण मिलता है, काम-धंधे बंद हो जाते हैं, दस से पन्द्रह दिनों तक आर्थिक गतिविधियां ठप्प हो जाती हैं. अब चाहे दुर्गा पूजा को व्रत कहकर उसे वेदों के समकक्ष स्थापित किया जाए या जमीदारों के सिरमौर अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का उद्धरण देकर दुर्गा पूजा की महत्ता का बखान किया जाये. बात वहीं रहेगी, ये सारे त्योहार आदमी को भाग्यवादी धर्म की ओर ले जाते हैं, कर्म से दूर करते हैं. देवी की पूजा ठीक से करो, सब मनौती पूरी हो जाएगी, हम ऐसे ही निठल्ले हैं, और अधिक फालतू हो जाते हैं गरीबी दूर करनी है , तो सबसे पहले इन त्योहारों और पारिवारिक उत्सवों को बंद करना होगा, लोगों को इनसे दूर रहने के लिये जागरूक करना होगा. आज सार्वजनिक मनोरंजन के अनेक साधन सुलभ हैं, इन त्योहारों की जरूरत नहीं .. प्रभाकर अग्रवाल

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