“भारतीय भाषाओं के हक के लिये …..”

राजीव रंजन प्रसाद

shyamji in Tuglak thanaमुल्ला नसीरुद्दीन की बोलने वाली बकरी की कथा सर्वव्यापी है। बाजार में सबसे मंहगी बकरी बिक रही थी। राजा पहुँच गया विशेषतायें जानने। मुल्ला ने कहा कि बोलती है मेरी बकरी हुजूर और वह भी आदमी की भाषा में। बुलवाया गया बकरी से। मुल्ला ने सवाल किया कि बता यहाँ बकरी कौन? उत्तर मिला “मैं…” अगला सवाल कि बता दूध यहाँ कौन देता है तो फिर वही उत्तर “मैं….”। असल में यह बोली भाषा का झगडा सुलझता ही नहीं चूंकि सवाल भी सुविधा वाले हैं और जवाब भी तय से हैं। यहाँ गधा कौन? तो इसका उत्तर भी यही आता “मैं….” लेकिन भाषा का खेल चतुराई से खेला गया है इस लिये इस बकरी को लाखों की कीमत मे बेचा जाना तय है। भारतीय भाषाओं के साथ भी यही दिक्कत है। इसकी नियती तय कर दी गयी है, इसके सवाल तय हैं कि विज्ञान की अच्छी किताबें कहाँ उपलब्ध नहीं हो सकतीं? उत्तर है “भारतीय भाषाओं में”; कार्यालय में किस भाषा में काम करने में व्यवहारिक अडचन है? उत्तर है “भारतीय भाषाओं में”; किस भाषा में न्याय पाना संभव नहीं है? उत्तर है भारतीय भाषाओं में।

पिछले कई दिनों से एक समाचार रह रह कर ध्यान खींच रहा था। श्याम रुद्र पाठक नाम का एक व्यक्ति अकेला ही एकसूत्रीय अभियान को ले कर लम्बे समय से धरने पर बैठा हुआ था। मांग भी अजीब सी थी कि “उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की कार्यवाही भारतीय भाषाओं में होनी चाहिये”। इस व्यक्ति की बात अधिक गंभारता से समझने की इच्छा हुई। उनका ही एक आलेख मुझे प्रवक्ता वेब पत्रिका पर पढने को मिला और कुछ मोटे मोटे तर्क मैं समझ सका। उदाहरण के लिये “संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड(1) के उपखंड(क) के तहत उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। यद्यपि इसी अनुच्छेद के खंड(2) के तहत किसी राज्य का राज्यपाल उस राज्य के उच्च न्यायालयों में हिंदी भाषा या उस राज्य की राजभाषा का प्रयोग राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के पश्चात् प्राधिकृत कर सकेगा”। इस बात का सीधा सा अर्थ निकलता है कि भारतीय भाषाओं को न्याय की भाषा के रूप में हक दिलाने का रास्ता वस्तुत” संविधान संशोधन के रास्ते से ही निकलता है। इस संदर्भ पर पाठक अपने लेख में आगे अपनी मांग को स्पष्ट करते हैं कि “संविधान के अनुच्छेद 348 के खंड (1) में संशोधन के द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी अथवा कम-से-कम किसी एक भारतीय भाषा में होंगी। इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए”। इस मांग को जिस प्रमुख तर्क के साथ सामने रखा गया है वह है कि “किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद 348 की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष सत्रह उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सन्तानवे प्रतिशत (97 प्रतिशत) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं”। मांग सर्वधा उचित है तथा इस दिशा में नीति-निर्धारकों का ध्यान खींचा जाना आवश्यक है।

भारत विविधताओं का देश है। हमें विविधता को मान्यता देनी ही होगी और इसी में हमारी एकता सन्निहित है। लाखों रुपये की फीस खसोंट कर पूंजीपती होते जा रहे वकीलों के लिये भाषा की यह पाबंदी एक सुविधा है। एक आम आदमी अपनी भाषा में अपने उपर घटे अपराध अथवा आरोप की बेहतर पैरवी कर सकता है अथवा माननीय अदालतों में हो रही उस जिरह को समझ सकता है जो अंतत: उसकी ही नियति का फैसला करने जा रही हैं। न्याय को तो आम जन की समझ तक पहुँचना ही चाहिये। व्यवस्था पर उंगली उठाने में हम लोग अग्रणी पंक्ति में खडे रहते हैं लेकिन अपने लोकतंत्र के संवर्धन के लिये हमारे पास न तो कोई योजना है न ही सोच। लोकतंत्र देखते देख बूढा हो गया और हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये? शिक्षा, न्याय और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी अधिकारों से हमारी अवांछित दूरी इस भाषा ने ही बना दी है। ये तीनों ही अधिकार अब आम आदमी की पकड और उसके जेब से बाहर की बात हो गये हैं। चलिये हम झंडा नहीं पकड सकते लेकिन इन आवश्यक विषयों पर समर्थन तो व्यक्त कर ही सकते हैं? श्री श्याम रुद्र पाठक को उनके साहस और भारतीय भाषा के अधिकारों की इस लडाई के लिये हार्दिक साधुवाद। कल उन्हें सत्याग्रह करने के अपराध में दिल्ली पुलिस नें धारा 107/105 के तहत गिरफ्तार कर लिया है। कहते हैं कि नदी का रास्ता कोई नहीं रोक सकता अत: श्री पाठक की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए अपने आलेख के उपसंहार में इतना ही कहना चाहता हूँ कि भारतीय भाषाओं के हक की यह लडाई किसी अकेले व्यक्ति की नहीं है। इस मशाल की लपट को फैलना ही होगा।

2 COMMENTS

  1. श्याम रूद्र पाठक को बहुत बहुत धन्यवाद . हिंदी अब रास्ट्रीय ही नहीं बल्कि विदेशो में भी लोकप्रिय हो गयी है हिंदी या अन्य भारतीय भासा का अपमान रास्ट्र का अपमान है

  2. Shyam Rudra pathak ko bahut bahut dhanyabad. Hindi ab Bharat ki hi nahi balki videsho me bhi lokpriya ho gayi hai.Hindi ya bhartiya bhasa ko nahi apnane ka matlab hai ki aap bhartiya nahi hai.

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