विदेशी आक्रांताओं के वंशज का भारतीय स्त्रियों को शक्ति देने पर प्रचार

-आनंद जी. शर्मा-   women
शक्ति स्त्रीलिंग शब्द है – नारी अर्थात स्त्री शक्ति का प्रतीक नहीं अपितु शक्ति-स्वरूपा है। साक्षात शक्ति है – संभवतः इसी कारण से प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्री को शक्ति-युक्त करने की कल्पना नहीं की गयी| जो स्वयं शक्ति है, उसे शक्ति प्रदान करने की कल्पना मूर्खतापूर्ण थी। अतः भारतीय मनीषियों ने कभी ऐसी मूर्खता नहीं की|
भारतीय संस्कृति के पूजनीय चरित्रों का नाम भी उनकी शक्ति, उनकी अर्धांगिनी को अग्रगण्य मानते हुए स्त्री का नाम प्रथम एवं पुरुष का नाम उसके उपरांत व्यक्त करने की परम्परा थी| लक्ष्मी-नारायण – गौरी-शंकर – सीता-राम – राधा-कृष्ण इत्यादि|
अन्य समस्त पूजनीय चरित्र भी शक्ति सम्पन्न होने के कारण ही पूजनीय हैं | सभी पूजनीय शिव-स्वरूप अर्थात कल्याणकारी हैं, परन्तु कल्याण करना तभी संभव है जब शक्ति-युक्त हों| शक्ति स्वयं में उच्छृंखल है। अतः उसे शिव के मार्गदर्शन में रहने की कल्पना की गयी।
शिव एवं शक्ति – एक दूसरे के पूरक हैं | शिव एवं शक्ति का युग्म रूप ही कल्याणकारी है | भारतीय संस्कृति में कोई भी शुभ कार्य सम्पन्न करने के लिये दान अथवा तीर्थाटन इत्यादि हेतु पुरुष के साथ उसकी अर्धांगिनी का सहयोग अपेक्षित है, अन्यथा ऐसे शुभ कार्य निष्फल कहे जाते हैं| भारतीय संस्कृति में भूमि को माता से संबोधित किया गया है। जिस देश विशेष की भारतीय संस्कृति है, उस देश को भी भारत एक पुल्लिंग शब्द होने के उपरांत भारत-माता के नाम से ही संबोधित किया जाता है एवं यह विशेषता केवल भारतीय संस्कृति के अनुसार आचरण करने वाले लोगों में है, किसी अन्य में नहीं|
भारतीय संस्कृति में संभवतः कहीं भी स्त्री का अपमान करने का उल्लेख नहीं मिलता है| भारतीय संस्कृति में स्त्री स्वयं अपना वर चयन करती थी, अर्थात उसे अपना जीवन अपने विचारों के अनुसार जीने के अधिकार प्राप्त थे|
विदुषी – वीरांगनाओं – राज-कार्य निपुण स्त्रियॉं के अनेक उल्लेख हैं भारतीय इतिहास में |
राम एवं तदन्तर लक्षमण द्वारा बारम्बार निवेदन करने पर भी कि वे विवाहित हैं – राजाज्ञा से निर्वासित हो कर वनवास कर रहे हैं। कामपीड़ित शूर्पनखा द्वारा उनके निवेदन को दुर्लक्ष्य कर सीता को क्षति पहुंचाने का प्रयास करने पर लक्षमण ने शूर्पनखा को अपमानित कर भगा दिया, जिसे मुहावरों में “नाक काट देना” कहा जाता है, तब उपेक्षित एवं अपमानित कामातुर अर्थात विक्षिप्त मानस वाली शूर्पनखा ने अपने भ्राता रावण के समक्ष प्रलाप किया और रावण ने प्रतिशोध लेने हेतु सीता हरण किया, परन्तु रावण ने सीता को अपमानित अथवा उसका शील-भंग नहीं किया अपितु लंका की सर्वोत्तम वाटिका में स्त्री दासियों एवं स्त्री अंग-रक्षकों के सान्निध्य में रखा| नितांत मूर्खतावश, रावण के प्रतीक का दहन किया जाता है, परन्तु वो रावण आज के नराधमों की तुलना में अबोध शिशु सदृश्य है|
महाभारत ग्रंथ में द्रौपदी ने इंद्रप्रस्थ में मय दानव द्वारा नवनिर्मित अद्भुत मरीचिका युक्त प्रांगण जिसमे जल तो थल जैसा प्रतीत होता था और थल जल के सदृश्य दुविधाग्रस्त दुर्योधन का “अंधों के अंधे ही पैदा होते हैं” कहकर उपहास किया| उपहास के कारण प्रतिशोध की ज्वाला में दग्ध राजकुमार दुर्योधन ने राज-सभा में द्रौपदी का अपमान कर जो अनुचित एवं अमर्यादित कर्म किया। महाभारत के कथाकार स्त्री के प्रति इस घोर दुष्कर्म का परिणाम समूल वंश-नाश होने की चेतावनी देकर लोगों को भविष्य में सचेत रहने का उपदेश देते हैं|
ऋषि-पत्नी अहिल्या द्वारा अपने विवेक का प्रयोग न कर ब्रह्म मुहूर्त में छद्म-वेशधारी इन्द्र के साथ संभोग करने के लिये उसे शिला-वत होने का श्राप मिला एवं दुश्चरित्र देवराज इन्द्र को भी श्राप मिला| अहिल्या ने विदुषी एवं ऋषि-पत्नी होने के उपरांत अपने विवेक का उपयोग क्यों नहीं किया, यह एक अन्य चर्चा का विषय है| देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत को भी सीता के चरण में चंचु प्रहार करने पर प्राण दण्ड का अधिकारी बनना पड़ा| अंततः सीता के शरणागत होकर क्षमा-याचना करने पर ही जयंत को जीवन-दान मिला| देवराज इन्द्र के पुत्र अर्जुन के स्वर्ग में रहकर दिव्यास्त्र प्राप्ति काल में अप्सरा उर्वशी द्वारा प्रणय निवेदन करने पर अर्जुन ने श्राप में एक वर्ष तक वृहन्नला नाम से हिंजड़े के रूप में रहना स्वीकार किया परन्तु अपने पिता इन्द्र की राज-सभा की नृत्यांगना को माता स्वरूप
मान कर उसका प्रणय निवेदन स्वीकार नहीं किया।
आज भी भारतीय संस्कृति का अनुकरण करने वाले नवरात्रियों में नौ कन्याओं का पाद-पूजन कर उन्हें ससममान भोजन कराकर उनसे आशीर्वाद लेकर उपहारों के साथ विदा करते हैं, जो विदेशी संस्कृतियों में अकल्पनीय है, क्योंकि उनमें तो कन्याएं भी काम-पिपासा शांति के “उपकरण” हैं एवं इस सत्य के अनेक दृष्टांत आज भी निरन्तर मिलते रहते हैं| भारतीय संस्कृति में न तो कहीं कन्या-भ्रूण हत्या का दृष्टांत मिलता है, न पर्दा प्रथा का, न सती प्रथा का और न ही दहेज प्रथा का|
यदि प्रथम तीन कुप्रथाओं पर गूढ़ अध्ययन – अन्वेषण किया जाय तो सिद्ध होने में कोई संशय नहीं है कि ये तीनों प्रथाएं विदेशी आक्रांताओं के अमानुषिक आचरण के कारण भारत में पनपीं| वर्तमान में दहेज जैसी कुप्रथा का जो विकृत और अमानुषिक रूप यदा कदा दृष्टिगोचर होता है। उसके वास्तविक प्रारंभिक रूप का अन्वेषण किया जाय तो सिद्ध होगा कि विवाहोपरांत ग्राम्य-जन – नव-विवाहित वर-वधु को भेंट स्वरूप गृहोपयोगी वस्तुएं देते थे। केवल वर अथवा वधु के माता-पिता पर कोई भार नहीं पड़ता था और इस प्रकार नव-दंपति को नूतन गृह में अपना वैवाहिक जीवन का आरम्भ करने में कोई असुविधा नहीं होती थी |
कालान्तर में नव-विवाहित वर-वधु को गृहोपयोगी वस्तुएं देने का भार केवल वधु के माता-पिता पर पड़ गया तथा अतिरिक्त विकृति का आगमन तब हुआ, जब षोड़स संस्कारों में पवित्रतम विवाह संस्कार का व्यापारीकरण हो गया|
विदेशी आक्रांताओं की संस्कृतियों में स्त्री का स्थान काम-तृप्ति एवं युद्ध हेतु संतानोत्पत्ति का “उपकरण” मात्र है – न कि भारतीय संस्कृति के समान आदरणीय माता-स्नेही बहन अथवा वात्सल्य-भाव-जनक पुत्री का| विदेशी आक्रांताओं के वंशज एवं उनके मानस-पुत्र – अपने पूजनीयों के जो दिन में स्त्रियां के कंधों का आश्रय लेकर चलते थे एवं निर्वस्त्र होकर कुमारी कन्याओं के साथ रात्रि-शयन कर अपने ब्रह्मचर्य का परीक्षण करते थे और जिनके कामातुर पूर्वज ने विदेशी शासक की गणिका समान पत्नी के मोहपाश में बंधकर सत्ता हस्तांतरण संधि पर हस्ताक्षर किए और भारत में भ्रष्टाचार के विष-वृक्ष का बीजारोपण किया, उन्हीं के पद-चिन्हों पर चलने वाले उनके वंशज अब भारतियों को स्त्रियां को शक्ति देने पर प्रवचन कर रहे हैं| विडम्बना की पराकाष्ठा है|

1 COMMENT

Leave a Reply to R.K. Gupta Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here