विदेशी पूंजी निवेश और संसदीय गरिमा ?

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प्रमोद भार्गव

खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश के विरोध की परवाह न करते हुए केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों के बहाने निवेश के नए दरवाजे भी पूंजीपतियों के लिए खोल दिए। कैबिनेट द्वारा लिए नए फैसलों के तहत बीमा क्षेत्र में एफडीआर्इ की सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत कर दी गर्इ और पेंशन के क्षेत्र में 26 प्रतिशत विदेशी निवेश को हरी झण्डी दी गर्इ। साथ ही कंपनी विधेयक-2011 को भी संशोधित करने की अनुमति दी गर्इ है, जिससे खुदरा, बीमा और पेंशन में देशी-विदेशी पूंजी निवेश करके कंपनियों की लूट आसान हो सके। ये फैसले लेते वक्त सरकार ने अपने सहयोगी घटक दलों से कोर्इ रायशुमारी नहीं की, जबकि तृणमूल, द्रमुक, झारखण्ड विकास मोर्चा, सपा और बसपा इन निवेषों के विरोध में थे और अभी भी वे विरोध की लीक पर हैं। जब सहयोगी इन फैसलों के समर्थन में नहीं हैं तो केंद्र के ये फैसले बहुमत से कैसे हुए ? और यदि इन्हें बहुमत हासिल नहीं है तो क्या यह संवैधानिक मर्यादा और संसदीय गरिमा का उल्लंघन नहीं है ? यही नहीं केंद्र ने बीमा और पेंशन में एफडीआर्इ का निर्णय लेते वक्त देश को शर्मसार कर देने वाला यह कदम भी उठाया कि भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल की हवा खाए सुरेश कलमाड़ी, ए.राजा और कनिमोझी को संसद की विभिन्न स्थायी समितियों की सदस्यीय गरिमा से नवाज दिया। क्या यह संसद, संविधान और सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना नहीं है ?

यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण सिथति है कि विकासशील अर्थव्यवस्था को गति देने की दृष्टि से ऐसी नीतियां बनार्इ जा रही है, जो केवल राजकोष की भरपार्इ करें और पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाएं। अब तो हालात इतने बदतर हो गए है कि जो विषेशज्ञ समितियां हैं, वे भी निष्पक्ष व बहुजन हितकारी राय देने की बजाय मनमोहन सिंह की मंशा के अनुसार रिपोर्ट दे रही हैं। बुनियादी क्षेत्र में आर्थिक सुविधाएं आमजन को कैसे हासिल हों, इस नजरिये से एचडीएफसी बैंक के अध्यक्ष दीपक पारिख की अध्यक्षता में एक समिति प्रधानमंत्री ने बनार्इ थी। समिति ने जो रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी है, उसमें आम आदमी को राहत के उपाय तो दूर रहे, यह और सलाह दी गर्इ कि तुंरंत रेल किराया, प्राकृतिक गैस और बिजली व पानी की दरें बढ़ार्इ जाएं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में करीब 9 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल करना है तो बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में 51 लाख 46 हजार करोड़ रुपये के के निवेश की जरुरत होगी। इस निवेशित पूंजी की 47 प्रतिशत धनराशि निजी क्षेत्र से जुटाने की राय दीपक पारिख ने दी है। केजी बेसिन से रिलायंस जो प्राकृतिक गैस निकाल रही है, उसकी तीन गुना कीमतें बढ़ाने की सिफारिश की गर्इ है। जाहिर है इस पूरी रिपोर्ट में आम आदमी को सुविधा देने की बात कहीं नहीं है। सभी लाभ कंपनियों, उच्च वर्ग, और उच्च मध्यवर्ग को देने की वकालात की गर्इ है। प्रधानमंत्री को यदि आम आदमी की फिक्र होती तो वे आर्थिक सुविधाएं आमजन को कैसे हासिल हों, इसकी तलाश बहुदलीय संसदीय समिति से भी करा सकते थे ? एक निर्वाचित सांसद जनता के दुख-दर्द से रुबरु होता है। दुख-दर्द की यह लाचारी उसमें संवेदना जगाती है और यह संवेदना, संवेदनशीलता जनप्रतिनिधि को जनविरोधी व निर्मम बनाने से रोकती है। एक निजी, वह भी विदेशी बैंक के अध्यक्ष को ऐसी जिम्मेबारियां सौंपना एक तरह से संसद की गरिमा का उल्लंघन ही है।

पेंशन निधि में विदेशी निवेश की इजाजत भी तमाम आशकाएं जगाती है। इससे सरकार की वर्तमान आर्थिक जरुरतें तो एक मर्तबा पूरी हो सकती हैं, किंतु जिन बुजुर्गों की आस पेंशन निधि की सुरक्षा में ही निहित है, उन बुजुर्गों को स्थायी राहत की कोर्इ गारंटी नहीं है। यह पेंशन निधि करीब 14 लाख करोड़ रुपये की है। इसमें निवेश की मंजूरी देकर सरकार ने इस विपुल धनराशि को बाजार के हवाले कर दिया। इस निवेश का एक मकसद 12 वीं पंचवर्षीय योजना को धन जुटाना भी है। लेकिन बुढ़ापे को आर्थिक तौर से असुरक्षित बना देने की शर्त पर। क्योंकि पेंशन में निवेश का जो प्रस्तावित मसौदा है, उसमें बाजार में लगार्इ धन राशि की सुरक्षित वापिसी की कोर्इ गारंटी नहीं है। मसलन व्यापार में लगी पेंशन राशि के प्रबंधन में कोर्इ गड़बड़ी होती है, व्यापार घाटे का सबब बन जाता है तो एक निश्चित पेंशन पा रहा पेंशनधारी पार्इ-पार्इ के लिए मोहताज हो जाएगा।

देश में करीब 10 करोड़ बुजुर्ग हैं। इनमें से महज दो करोड़ ऐसे पेंशनधारी हैं, जिन्हें सरकारी नौकरी अथवा निजी कंपनियों से सेवा निवृतित के बाद पर्याप्त पेंशन मिलती है। जिसके बूते उनका सामाजिक व आर्थिक जीवन सुरक्षित है। पेंशन का सहारा ही उनके स्वस्थ जीवन व लंबी उम्र का पर्याय बन रहा है। हालांकि हमारे यहां गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को सामाजिक सुरक्षा पेंशन देने का प्रावधान है, किंतु यह धन राशि इतनी अल्प और इसके वितरण की व्यवस्था इतनी अनियमित है कि इसके भरोसे कोर्इ बुजुर्ग गुजारा नहीं कर सकता है। इस राशि में राज्यबार एकरुपता नहीं है। 200 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक यह पेंशन दी जा रही है। केवल अपवाद स्वरुप गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां बतौर पेंशन 2000 रुपये मिलते हैं। मौजूदा हालात में देश का हरेक छठा वृद्ध ऐसा है, जिसके पास कोर्इ स्थायी आर्थिक सुरक्षा का साधन नहीं है। ऐसे में बुढ़ापे की लाठी पेंशन को, बिना वापिसी की शर्त के बाजार के हवाले करना, क्या तर्कसंगत अथवा न्यायोचित है ? हालांकि इन विधेयकों को अमल में लाने से पहले संसद से पारित कराना जरुरी होगा। जो केंद्र के लिए बड़ी चुनौती है। क्योंकि तृणमूल कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, वामपंथी दल और झारखण्ड विकास मोर्चा कैबिनेट के इन फैसलों के विरुद्ध हैं। ऐसे में केंद्र के लिए जरुरी था कि वह संसदीय गरिमा का ख्याल रखते हुए अपने सभी घटक व सहयोगी दलों को विश्वास में लेती।

कांग्रेस ने जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं का मान-मर्दन करते हुए सुरेश कलमाड़ी, ए.राजा, और कनिमोझी को संसद की स्थायी समितियों को सदस्य बना दिया है, उससे साफ हो गया है कि सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कोर्इ लड़ार्इ लड़ना ही नहीं चाहती। उलट वह जेल की हवा खाए भ्रष्टाचारियों को संसदीय गरिमा से नवाजकर उनकी सामाजिक व राजनीतिक पुर्नप्रतिष्ठा में लगी है। जबकि आर्थिक वृद्धि और रोजगार के नए अवसर सृजित करने के मार्ग में भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारी सबसे बड़ी बाधा हैं। ये नवप्रर्वतन को रोकते है। जबकि नवप्रर्वतन को प्रोत्साहित किया जाए तो ये भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थानीय संसाधानों से ही गति लार्इ जा सकती हैं। क्योंकि तकनीक व प्रबंधन के यही नमोन्वेशी वैषिवक अर्थव्यवस्था का इंजन बने हुए हैं।

बहरहाल सरकार जिस तेजी से आर्थिक सुधारों को रफतार दे रही है, उसके मार्फत सरकार खुद के लिए तो गडढे खोद ही रही है, बड़े पैमाने पर उसने जहां श्रमिकों के विस्थापन का खतरा बढ़ाया है, वहीं करोड़ों पेंशनधारियों की आर्थिक सुरक्षा भी खतरे में डाल दी है। इस परिप्रेक्ष्य में केंद्र के वाणिज्य एवं उधोग राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक सवाल के लिखित जवाब में राज्यसभा को जानकारी देते हुए कहा था कि सिवटजरलैण्ड सिथत यूएनआर्इ ग्लोबल यूनियंस ने बालमार्ट ग्लोबल टैक रिकार्ड के संबंध में एक अध्ययन पत्र पेश किया है, जो बालमार्ट के कारोबारी तौर तरीकों पर आधारित है। इसके अनुसार यदि बिना सुरक्षा उपाय बरते बहुब्रांड खुदरा क्षेत्र में एफडीआर्इ की अनुमति दी गर्इ तो व्यापक स्तर पर विस्थापन होगा और खुदरा लाजिसिटक, कृषी, विनिर्माण क्षेत्रों में कार्यरत भारतीय श्रमिक बेरोजगार हो जाएंगे। लेकिन जिस प्रधानमंत्री को संसद की परवाह नहीं है, वह एक अदद मंत्री की सलाह की क्यों परवाह करने की जरुरत समेझेंगे। अब तो प्रधानमंत्री ने पेंशनधारियों की आर्थिक सुरक्षा और खतरे में डाल दी है। बीमा में एफडीआर्इ की मंजूरी से भी आम आदमी को कोर्इ राहत मिलने वाली नहीं है।

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  1. बहुत सही आकलन है आपका प्रमोद जी बस एक छोटी सी चूक कर गए. आप भली भांति जानते हैं कि दुनिया में दो ही आर्थिक विचारधाराएँ हैं. एक-जिसमें अमेरिका के नेत्रत्व में आज लगभग ७०% दुनिया था था थैया कर रही है और जिसका आधार पूँजी के द्वारा श्रम की लूट है,जिसके केंद्र में मुनाफाखोरी और परिणाम में भय-भूंख -भ्रष्टाचार है असमानता है.दो- जिस पर चलते हुए कभी सोवियत संघ ने अमेरिका को भी मात दी थी.अन्तरिक्ष से लेकर महासागरों तक सब जगह सफलताओं के झंडे गाड़े थे,जिसे देख कर एक-तिहाई दुनिया में समाजवाद का परचम लहराया था.जिस पर चलकर चीन,क्यूबा वियतनाम,वेनेजुएला,और उत्तर कोरिया इत्यादि राष्ट्रों ने अमेरिका की सड़ी -गली लूट कि पूंजीवादी व्यवस्था के बरक्स एक सत्य-न्याय- समानता और सम्मान के मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था कायम करने कि कोशिश निरंतर कि है. विगत कई वर्षों सभारत समेत सारी दुनिया के गरीब बेरोजगार और शोषित मजदूर किसान लगातार अमेरिका और विश्व बैंक की अनर्थकारी तथाकथित नव्य-उदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे है.वामपंथ के नेत्रत्व में विदेशी निवेशका निरंतर विरोध किया जाता रहा है,.वामपंथ के कारण ही मनमोहन सिंह जी ९ साल से वो नहीं कर पाए जो अमेरिका और यूरोप की पसंद का है.चूँकि ममता को भी वामपंथ से जूझना है अतेव वो भी दिखावे के लिए कांग्रेस और मनमोहनसिंह की नीतियों के विरोध का नाटक करती है.माया ,मुलायम नितीश ,जय ललिताः और अन्य क्षेर्त्री दलों की कोई आर्थिक नीति है ही नहीं .अब शेष बची भाजपा सो उसके सबसे बड़े चिन्तक अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा से पूंछा जाए कि १९९९ से २००४ तक जिन नीतियों से उन्होंने [एनडीए ने ] देश चलाया क्या वो विश्व बैंक ,अमेरिका या डॉ.मनमोहनसिंह के अनुसार नहीं थी? आज पूरे देश में मनमोहनसिंह की नीतियों का विरोध हो रहा है.किन्तु यही लोग संसद में उस सरकार को नहीं गिरा सकेंगे जो उन नीतियों की अलमबरदार है.क्यों? क्योंकि केवल वामपंथ के पास वैकल्पिक कार्यक्रम है बाकि सभी पूंजीवादी और अमेरिका परस्त हैं.

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