स्वतंत्रता ने ही छीन ली है हमारी स्वतंत्रता

Farmer’s hands holding a small tree on nature background

हम कहने के लिए तो स्वतंत्र हैं , परन्तु क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं ? यदि इस पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि वर्तमान व्यवस्था ने हमारी सारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन ली है । आश्चर्य की बात यह है कि हमने इस स्वतंत्रता को स्वयं छिनने दिया है। धीरे-धीरे हम सुविधा भोगी होते चले गए और यह तथाकथित स्वतंत्रता, हमारी स्वतंत्रता के लिए ही घातक हो गई । हमें पता ही नहीं चला कि कब हम अपने इंधन के लिए सरकार पर निर्भर हो गए अर्थात रसोई गैस लेकर । हमें पता नहीं चला कि कब हम अनाज के लिए ,दूध के लिए , पानी के लिए , बिजली के लिए , सरकार पर निर्भर हो गए , या कहिए कि सरकार के व्यवस्था तंत्र ने हमारा दूध , छाछ , घी , पानी , अनाज , हम से कब छीन लिया – हमें पता नहीं चला । सरकार के किसी ना किसी विभाग का कोई न कोई कर्मचारी आता रहा और हमारी स्वतंत्रता छीनता रहा और हम सुविधाओं के नाम पर अपनी स्वतंत्रता को छिनवाते रहे।
तनिक कल्पना करें आज भी गांव के उस व्यक्ति की जिसके पास अपना भोजन है अर्थात अपने खेत में पैदा किया गया अन्न है , जिसके पास अपने कुए का या नल का पानी है , जिसके पास अपनी गाय है , दूध , दही , छाछ , घी सब उसके पास अपने घर के हैं । जिसके पास अपने घर में पैदा की हुई दाल है , सब्जी है और पूरे एक वर्ष के लिए दाल आदि का पूरा प्रबंध है । जिसके पास अपनी साफ हवा है, बिजली नहीं आए तो जिसके पास अपना दीया भी है और जिसके पास सोने के लिए अपना आंगन या अपनी छत है , उसकी स्वतंत्रता और हमारी स्वतंत्रता में कितना अंतर हो गया है ?
प्राचीन भारत में वास्तव में हमारी अर्थव्यवस्था व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखने वाली होती थी । इसलिए गांव को भी पूर्ण स्वायत्तशासी संस्था के रूप में विकसित किए जाने की व्यवस्था भारतवर्ष में प्राचीन काल से रही है । उसी की टूटी – फूटी व्यवस्था हम गांवों में आज भी देख रहे हैं । सरकारी योजनाओं से पूर्णतया उपेक्षित रहने वाले गांव आज भी कोरोना संकट का बड़ी सफलता से सामना कर रहे हैं । जितने भी टीवी चैनल या समाचार पत्र या इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया वाले लोग हैं , वह गांवों में यह बताने नहीं जा रहे कि कोरोना फैल गया है और आप सावधान रहें । इन सबकी नजर तो अमिताभ बच्चन और दूसरे फिल्मी सितारों या खिलाड़ियों , नेताओं , राजनीतिक दलों और आलीशान कोठियों में रहने वाले लोगों की ओर है ।अपनी झोपड़ी में निश्चिंत होकर सोने वाले उस किसान की ओर किसी भी टीवी चैनल या समाचार माध्यम का ध्यान नहीं गया है जो आज भी अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का लाभ लेते हुए आराम से कोरोना को परास्त कर रहा है।
अंग्रेजी शासन जब भारत में आया तो उन लोगों ने भारत के गांव की व्यक्तिगत आजादी को लूटने का पूरा तंत्र खड़ा किया । जिसमें कलेक्टर को राजस्व कलेक्ट करने का काम दिया गया और एक सरकारी व्यक्ति के रूप में अधिकारी बनाकर उसे ग्रामों कर रक्त चूसने के लिए बैठा दिया गया । स्वतंत्र भारत में उसे आज भी हम इसी खून चूसने वाले कलेक्टर के नाम से ही जानते हैं । जिला कलेक्टर राजस्व वसूल कर अपने ऊपर के बैठे अधिकारी कमीशन खोर कमिश्नर को देता था । इस कमिश्नर को आज भी हम कमिश्नर के नाम से ही जानते हैं । यह उसमें से अपना हिस्सा अर्थात कमीशन रखकर ऊपर सरकार को पहुंचा देता था । इस प्रकार पूरा तंत्र नीचे से लेकर ऊपर तक गांव को उजाड़ने वाला बन गया । उस समय गांव के आम काश्तकार को लूटने , धमकाने और उसकी भूमि से उसे बेदखल करने के अधिकार पटवारी को दिए गए । पुलिस के एक छोटे से सिपाही को भी यह अधिकार दिए गए कि वह जैसे चाहे वैसे मारपीट कर किसानों को उत्पीड़ित कर सकता है । यही कारण है कि कलेक्टर की ओर से भेजे जाने वाले इन दोनों कर्मचारियों अर्थात पुलिस के सिपाही और पटवारी से हमारे गांव के लोग आतंकित हो जाते थे , जिनका भय अब तक भी बना रहा है।
किसान और जनसाधारण का खून चूसने वाली इस सरकारी व्यवस्था के उपरांत भी गांव के लोगों ने अपने आपको भारत के प्राचीन अर्थव्यवस्था वाले तंत्र से जोड़े रखा । लोगों में आज भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे किसी भी आपातकाल के लिए घर में घी घर रखते हैं , दाल , अन्न , सरसों का तेल आदि का सामान भी पूरे एक वर्ष के लिए रखते हैं । यह हमारी उस सोच को दर्शाता है कि किसी भी प्रकार की आकस्मिकता के समय घर में पैसा हो या ना हो लेकिन बच्चों के लिए भोजन , पानी की , दूध की व्यवस्था घर में हो । उस व्यक्ति को न किसी की मार्केट की आवश्यकता है ना घर से बाहर जाकर सब्जी लाने , दूध लाने , पानी लाने या भोजन के लिए आटा लाने की आवश्यकता है । उसे सब्जी के लिए किसी प्रकार के मसाले भी नहीं चाहिए। वह नमक , मिर्च , हल्दी , तेल से सब्जी बनाता है और मस्ती के साथ खाता है । यह सब भी ना हों तो आलू भूनकर बढ़िया वाली चटनी बनाकर छाछ के साथ रोटी खाता है । उस पर घी रखता है और फिर आलीशान कोठियों में या फाइव स्टार होटलों में हजारों रुपए अपने ऊपर खर्च करने वाले उन जल्लादों से अधिक अच्छी नींद उसे आती है जो देश की रग – रग में जोंक की भान्ति चिपट कर उसका रक्त चूस रहे हैं और अपने आपको ‘बड़ा आदमी’ कहते हैं । हमारे इस किसान वर्ग के पास कुछ भी नहीं है लेकिन उसके उपरांत भी अपने आप को भूखा नहीं मरने देता और ना ही यह भाव आने देता कि मैं गरीब हूं । जबकि सरकारी कर्मचारी जो सरकार से वेतन लेता है और अलग से भ्रष्टाचार के माध्यम से भी कमाता है , वह अपने आपको ‘वेतनभोगी’ कहता है और इस शब्द के माध्यम से दीनता का प्रदर्शन करता रहता है । अपने लिए यह शब्द उच्चारण कर याचना का कटोरा लिए घूमता रहता है । कहता रहता है कि मैं भूखा हूं । नौकर होकर अपना आत्मसम्मान बेच चुका होता है। इन वेतनभोगियों के लिए वेतन आयोग बैठाती है सरकार । क्या कभी हमने गांव के उन 70 करोड लोगों के लिए कोई वेतन आयोग बैठाया है जो बिना वेतन के भी अपने आप को बादशाह मानते हैं।
यह वह वर्ग है जो आज भी भारत सरकार से बिना कुछ लिए आराम से अपना जीवन यापन कर रहा है , एक वह वर्ग है जो सरकारी नौकर के रूप में सरकार का खून चूसता रहता है , जितना लूटा जा सकता है लूटता है , इसके बाद भी भूखा मरता है और माँगता रहता है ।
इन वेतनभोगियों से बड़े डकैत वह बैठे हैं जो सरकारी योजनाओं को ऊपर से ऊपर ही लपक लेते हैं और उसमें से करोड़ों का कमीशन लेकर उसे ऊपर बैठे बैठे ही डकार जाते हैं । इसके उपरांत भी अनेकों बीमारियों के शिकार होते हैं, दुःखी रहते हैं । मलमल के गद्दों पर भी उन्हें नींद नहीं आती। पैसे को छुपाते घूमते हैं । पैसा होकर भी सुख नहीं अनुभव करते हैं।
यह कैसा तंत्र है ? जिसने कोरोनावायरस फैलाकर हमें यह आभास करा दिया है कि तुम्हारे पास न बिजली अपनी है , ना भोजन अपना है , न दाल अपनी है , न दूध अपना है , न हवा अपनी है न धूप अपनी है । जिनके पास यह सब अपने नहीं हैं , वहीं कोरोनावायरस के लॉकडाउन को अपने लिए एक प्रतिबंध मान रहे हैं और जिनके पास यह सब कुछ अपना है वह अपने घर में खुले घूम रहे हैं और अपने सारे काम आराम से निपटा रहे हैं ।
बात साफ है कि भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था ही अच्छी थी । जिसमें व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता दोनों का सम्मान करते हुए उन्हें बनाए रखने का पूरा प्रबंध किया जाता था। इस व्यवस्था ने हमारी आजादी को छीना है और हमारी वह प्राचीन व्यवस्था व्यक्ति की व्यक्तिगत आजादी का सम्मान करना जानती थी । बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।

2 COMMENTS

  1. पूर्वी पंजाब में जिला जलंधर के एक छोटे से गाँव में जहां घर की छत से चारों ओर दूर क्षितिज तक खेत खलिहानों के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता था मैंने जन्म ले वस्तु-विनिमय अर्थव्यवस्था का अलौकिक अनुभव किया है| फसल की कटाई के समय सभी को एक हिस्सा मिलने पर माह में एक बार घर आ नाई सब बच्चों के बाल काट जाता था और नाईन घर में स्त्रियों की तेल कंघी और परिवारों में विवाह के रिश्ते-संबंध जोड़ती थी| तीज त्यौहार पर पुरोहित जी की पत्नी व्रत कथा सुना घर में हर्षोल्लास का वातावरण बना जाती थी| और आज इक्कीसवीं सदी में इस बात को सोचते, दुहराते कि बासी रोटी ले जमादारनी भी पाखाना साफ़ कर जाती थी शर्म आती है| सोचता हूँ जिस समाज में किसी एक वर्ग की स्वतंत्रता इस निम्न स्तर पर रही हो तो उससे और क्या छिन जाएगा? पटवारी और वह वेतन-भोगी सभी समाज ही के अंग हैं!

  2. सदा के समान अत्यन्त सारगर्भित लेख। सचमुच हम सरकारी तंत्र के दास बनते चले जारहे हैं, लोकतंत्र के आवरण में अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान खोते जारहे हैं। प्रतिक्रिया विहीन, निर्जीव समाज निर्माण की ओर हम बढ़ रहे हैं। परिणाम सुखद नहीं हो सकते। यह कैसे रुकेगा? शायद प्रकृति कोई समाधान करे? सदा ऐसा ही होता अया है, अति का अत सुनिश्चित होता है।

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