नशे से पतन की ओर बढ़ता देश और समाज

0
239

मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य इस संसार की सबसे श्रेष्ठ कृति है जिसे सर्वोत्कृष्ट, ज्ञानवान, पवित्र व धार्मिक स्वभाव वाले परमेश्वर ने अपने सर्वज्ञ व परमोत्कृष्ट ज्ञान से बनाया है। मनुष्य को परमात्मा ने क्यों बनाया? इस प्रश्न का उत्तर हमें वेद और ऋषियों द्वारा वेदों के व्याख्यान रूप में लिखे गये शास्त्रों व ग्रन्थों से होता है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य मनुष्य की जीवात्मा के पूर्व जन्म के कर्म हैं जिनके फल सुख व दुःख का उपभोग कराने के लिए परमात्मा जीवात्माओं को जन्म देता है। सत्यासत्य का विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि परमात्मा मनुष्यों को अच्छे कर्मों का फल सुख व बुरे कर्मों का फल दुःख के रूप में देता है। यदि मनुष्य जन्म में, जो कि उभय योनि है अर्थात् इसमें हम कर्मों को भोगते हैं और नये कर्म करते भी हैं, हम कोई बुरा कर्म न करें और केवल अच्छे कर्म ही करें तो हमें कोई दुःख ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त नहीं होगा। अच्छे कर्मों वा कर्तव्यों का ज्ञान परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा को एक-एक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान देकर कराया है। इन चार ऋषियों के बाद ब्रह्मा, मनु आदि अनेक ऋषि हुए और यह परम्परा महाभारतकाल तक लगभग 1.96 अरब वर्षों तक चली है। अन्तिम ऋषि जैमिनी जी को बताया जाता है और उसके बाद विछिन्न ऋषि परम्परा ऋषि दयानन्द पर पुनर्जीवित हुई और वहीं समाप्त भी हो गई। ऋषि दयानन्द के अनुयायियों में पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, डा. रामनाथ वेदालंकार, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आदि अनेक वैदिक विद्वान हुए हैं जो ऋषितुल्य ही पवित्र हृदय व देश-समाज के हितैषी थे। हमारा समस्त वैदिक साहित्य एवं ऋषि मुनि मदिरापान वा नशे के विरुद्ध थे जिसका प्रमुख कारण नशीले पदार्थ मद्य वा शराब आदि से बुद्धिनाश और चारित्रिक पतन का होना है। देश की आजादी के आन्दोलन में अंग्रेज सरकार का शराब की बिक्री के लिए विरोध किया जाता था। धरने व प्रदर्शन किये जाते थे। गांधी जी ने भी कहा था कि जब देश आजाद हो जायेगा तो कलम की नोक से पहला काम देश में पूर्ण नशा-शराब बन्दी का किया जायेगा। इसके विपरीत आजादी के बाद केन्द्र व राज्यों में जो सरकारें रहीं उन सभी ने शराब व नशे के पदार्थों की बिक्री में उन सिद्धान्तों का पालन नहीं किया जिसकी बात आजादी के आन्दोलन में देश के सभी बड़े बड़े नेता किया करते थे। सरकार को राजस्व से प्रेम है परन्तु ऐसा लगता है कि वह राजस्व का चिन्तन करते हुए नैतिकता व देशवासियों के चरित्र के मापदण्डों को विस्मृत कर शराब की बिक्री में वृद्धि के नाना प्रकार के उपयों को बढ़ावा देती है। यह दुःखद एवं अत्यन्त चिन्ताजनक है। इससे देश का भविष्य व देश के माता-पिता व परिवार रोग, अल्पायु, आर्थिक दिवालियापन आदि अनेक रोगों व व्याधियों से ग्रस्त रहते हैं और उनमें से अधिकांश का जीवन दुःखमय व नरक के समान बनता है।

मनुष्य जीवन की उन्नति में जो बाधक कार्य हैं उनका त्याग सबको करना चाहिये। ऐसा इसलिये करना चाहिये कि उन कार्यों को करने से मनुष्य की अवनति, पतन व जीवन दुःखमय बनता है। शराब व नशा करने से मनुष्य की शैक्षिक उन्नति तो बाधक होती ही है, उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ता है और उसके फेफड़े, लीवर व अन्य अंग-प्रत्यंग कमजोर व रोगी हो जाते हैं। शराब पीने के कुछ समय बाद ही व्यक्ति आलस्य से घिर जाता है और किसी भी अच्छे कार्य में उसकी रूचि नहीं होती। मदिरापान के कुछ बार के अभ्यास से ही वह उसका आदी हो जाता है और उसका ध्यान हर समय मदिरापान व नशा करने में ही रहता है। मदिरा का सेवन करने वाले सभी लोग जानते हैं कि मदिरा का सेवन करना बुरी प्रवृत्ति व आदत है, परन्तु कुछ बार मदिरा पीने से जो आदत पड़ जाती है, उसको छोड़ने की इच्छा करने पर भी वह छोड़ नहीं पाते। समाज में अधिकांश अपराध करने वाले लोग अपराध करने से पूर्व मदिरा का सेवन करते हैं। चोरी, हत्या, बलात्कार भी शराब पीकर ही किये जाते हैं। आजकल मदिरापान करना एक फैशन सा हो गया है। जिन लोगों को मदिरापान की बुरी आदत होती है, उनकी संगति में कोई भला सज्जन मनुष्य आ जाये तो यह लोग उसको भी नाना प्रकार से झूठे व प्रलोभन वाले वचन बोलकर उनको मदिरा पान करने के लिए बाध्य करते हैं। हमारे अनेक साथी शराब का सेवन करते थे। एक सज्जन मित्र का बड़ा अच्छा परिवार था। आज वह इस संसार में नहीं है। लगभग 10-15 वर्ष शराबादि के अत्यधिक सेवन से वह मृत्यु का ग्रास बन गये। ऐसे ही एक मित्र हमारे साथ कार्यरत रहे। वह फुटबाल के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। देहरादून व इससे बाहर भी उनकी बहुत प्रसिद्धि थी। आफीस में वह शराब प्रेमियों के साथ उठते बैठते थे। युवावस्था में ही उनको मदिरा की लत लग गई। आज यद्यपि वह जीवित हैं, उनका शरीर कहने मात्र का शरीर है, वह जर्जरित व शक्तिहीन हो चुका है। अब सुना है कि उन्होंने मजबूरी में शराब छोड़ रखी है। शायद रोगी, शक्तिहीन व वृद्ध होने पर सभी को शराब छोड़नी पड़ती है। परिवार उनके खर्चीले उपचार व सेवा करके दुःखी हो जाता है। इसके बाद शराबी व्यक्ति को मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। मृत्यु से पूर्व का उनका जीवन नारकीय जीवन होता है। कुछ का उससे भी अधिक दुःखमय होता है। हम एक ऐसे आर्यमित्र को भी जानते हैं जिनकी आय अधिक थी। उनके कार्य में सहयोगी मदिरापान करते थे। उन्हें उनकी संगति करनी पड़ती थी अन्यथा उन्हें वह काम छोड़ना पड़ता। उन्होंने काम नहीं छोड़ा। धन तो उन्होंने बहुत कमाया परन्तु उनको भी शराब व मांसाहार का रोग लग गया था। कई वर्ष पहले यात्रा कर रहे थे, वाहन में बैठे बैठे सो गये, निद्रावस्था में ही एक सड़क दुर्घटना में उनका देहावसान हो गया। व्यक्ति अच्छे थे और ऋषि के प्रशंसक थे। आर्य साहित्य के अध्ययन में भी उनकी रूचि थी परन्तु वह जहां कार्यरत थे वहां अधिक लोग मदिरापान करते थे। वह भी उसमें गिर गये और असमय इस संसार से चल बसे। हमें व दूसरों को उनसे बहुत प्रेरणायें मिलती थी। हम उनसे वंचित हो गये।

हम आजकल अपने एक मित्र से मिलने जाते हैं। वहां एक सेवानिवृत अधिकारी आते थे जो मदिरापान करते थे। एक बार उनसे वार्तालाप चल रहा था। वह अपने युवावस्था काल की बातें सुनाने लगे और शराब और मांस की प्रशंसा कररने लगे। हमने उनकी बातों को सुना और कर्मफल सिद्धान्त व शारीरिक रोगों के उदाहरणों के आधार पर उनका निराकरण किया। हमने तब भी उनकी बातों के आधार पर शराब और मांस के सम्बन्ध में एक लेख लिखा। आजकल उनको आंखों से दिखना बहुत कम हो गया है। वह अब पढ़ लिख नहीं सकते। एक सहायक के साथ कहीं आ जा सकते हैं। नेत्र दोष व अन्धता भी अधिक मात्रा में मदिरापान करने का परिणाम होता है। अब डाक्टर उन्हें 35 हजार तक के इंजेक्शन लगाते हैं परन्तु फिर भी वह स्वस्थ नहीं हो पा रहे हैं। बुद्धिमान मनुष्य वह होता है जो कार्य करने से पहले उसके परिणाम का चिन्तन कर उसको जान लेता है। शराब का पीना किसी भी दृष्टि से लाभप्रद नहीं है। इससे हानि ही हानि है। ऐसे लोगों को सबसे पहले अपनी संगति बदलनी चाहिये। मदिरापान करने वालों की संगति यथाशीघ्र छोड़ देनी चाहिये और स्वास्थ्यवर्धक भोजन गोदुग्ध, गोघृत, फल, तरकारियों का सेवन करने के साथ प्रातः भ्रमण, व्यायाम व योग की ध्यान विधि से ईश्वरोपासना व दैनिक यज्ञ आदि का सेवन करना चाहिये। ऐसा करके दानव मनुष्य भी मानव व देवता बन सकते हैं और अपना और अपने शुभचिन्तक परिवारजनों का हित कर सकते हैं।

हमने मदिरापान करने वाले परिवारों की दुर्दशा को भी देखा है। ऐसे लोगों की पत्नियों को अपना व बच्चों का पालन करने के लिए छोटा मोटा कार्य करना पड़ता है। कई तो दूसरों के घरों मे चौका बर्तन आदि कार्य करती हैं। बच्चों व परिवारजनों को अच्छा भोजन नसीब नहीं होता। बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पाते। बीच में ही उनकी पढ़ाई रुक जाती है। मदिरापान करने वाले परिवार के मुख्य व्यक्ति बच्चों के पिता प्रायः अस्वस्थ रहते व अक्सर हो जाया करते हैं। धन कमा नहीं पाते और यदि कुछ कहीं से मिलता है तो उससे मदिरापान करते हैं। ऐसे परिवार कर्जदार हो जाते हैं और समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी नहीं होती। सभी लोग ऐसे परिवारों से दूरी बनाकर रखते हैं। सहायता के लिए न कोई पड़ोसी आता है और न रिश्तेदार। ऐसे बच्चों की मनोदशा का हमने अनुभव किया है। वह अपनी पीड़ा किसी से कह नहीं सकते। प्रतिभावान व पुरुषार्थी होने पर भी समाज की दौड़ में वह पिछड़ जाते हैं और साधारण कार्य करने को विवश होते हैं। कालान्तर में वह स्वयं संगति दोष और विचारों की दृणता न होने से स्वयं भी शराब का शिकार हो जाते हैं और उनके भी परिवार का पतन होता है। इससे यही सिद्ध होता है कि मनुष्य शराब का सेवन किंचित भी न करे और न ही मदिरापान करने वाले लोगों की संगति करे।

यह बहुत ही दुःखद है कि हमारी प्रतिनिधि सरकारें अपने भारी भरकम खर्चों को पूरा करने के लिए राजस्व की प्राप्ति के लिए शराब जैसी हानिकारक व देश के पतन में सहकारी मदिरापान की बिक्री बढ़ाने में लगी रहती हैंं। सरकार को तो राजस्व कम ही मिलता है। सरकार से अधिक तो शराब व्यापारियों व माफियाओं के पास धन जाता है जिससे अच्छे काम ही होते होंगे, यह अनुमान नहीं लगता। यदि शराब की कुल खपत पर विचार करें तो स्थिति चौंकाने वाली होगी। शराब पीने वाले अधिकांश लोग मांस भी खाते हैं। इससे पशु हिंसा को बढ़ावा मिलता है जिसकी हमारे वेद आदि सभी धर्म ग्रन्थों व धार्मिक महापुरुषों ने निन्दा की है। राम, कृष्ण व दयानन्द के देश में उनके अनुयायी लोग यदि मदिरा पान करते हैं तो यह देशवासियों द्वारा अपने महापुरुषों का अपमान है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे धार्मिक पुजारी व मठ मन्दिरों के संचालक स्वामी भी इन बुरे पदार्थों के सेवन का विरोध नहीं करते। हमने मन्दिरों आदि में कहीं ऐसा कोई संकेत नहीं देखा कि जहां लिखा हो कि मदिरा और मांस का सेवन करने वाला मनुष्य धार्मिक नहीं होता। वह पशुओं को कष्ट देने के कारण अपराधी होता है जिसका दण्ड ईश्वर के विधान से उन्हें मिलता है। पशुओं का मांस खाने से रोगों से संबंधित जानकारियां भी हमारे पौराणिक सनातनी धार्मिक विद्वान व धर्मप्रचारक अपने अनुयायियों को नहीं देते। यह कैसे नेता व विद्वान हैं जो अपने ही अनुयायियों को पथ भ्रष्ट व पापों में लिप्त रहने देते हैं। यह स्थिति दुःखद है।

यदि हम अपने समाज व देश को उत्तम व उत्कर्ष की ओर ले जाना चाहते हैं तो हमें युवापीढ़ी सहित सभी लोगों को जो मदिरा व नशे का सेवन करते हैं, इससे होने वाली हानियों का प्रचार करके उन्हें बचाना होगा। स्वामी रामदेव जी धर्मप्रचारकों में अपवाद हैं। वह अपने उपदेशों व व्याख्यानों में मदिरा, मांस, अण्डे व धूम्रपान आदि की आलोचना करते रहते हैं। सभी धार्मिक नेताओं व विद्वानों का यह कर्तव्य हैं कि वह लोगों को सत्यासत्य से परिचित करायें और उन्हें बुराईयों को छोड़ने की प्रेरणा करें। प्राचीन काल में हमारे देश में महाराज अश्वपति हुए हैं जिन्होंने कुछ संन्यासी विद्वानों को उनका आतिथ्य ग्रहण न करने पर कहा था कि मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है, कोई कंजूस नहीं है, कोई मदिरा व मांस आदि का सेवन करने वाला नहीं है, कोई ऐसा नहीं जो प्रतिदिन अग्निहोत्र यज्ञ न करता हो, कोई व्यभिचारिणी स्त्री नहीं है तो व्यभिचारी पुरुष के होने का तो प्रश्न ही नहीं है। आज विश्व में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां के लोग मदिरा व तामसिक पदार्थों का सेवन न करते हों। यह सत्य है कि विज्ञान ने असीम उन्नति की है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह नैतिकता व चारित्रिक व्यवहार की उपेक्षा की जाये। मदिरापान व मांसाहारियों को ऐसा करना इस जन्म व परजन्म में बहुत महंगा पड़ेगा। ईश्वर सबको प्रेरणा करें कि वह असत्य व दुगुर्णों का त्याग कर सत्य व सद्गुणों को धारण कर समाज व देश को विश्व का आदर्श लोक बनायें। ईश्वर हमें असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर चलने की प्रेरणा करें और हम उसका पालन कर अपने जीवन को आदर्श जीवन बनायें। मदिरापान, मांसाहार, अण्डों का सेवन और धूम्रपान जैसे व्यसनों का सर्वथा त्याग कर दें। इसी में हमारी, हमारे परिवार, समाज व देश की भलाई है। सभी सरकारों को भी समाज, राज्य व देश को बुराईयों से मुक्त करने में अपनी प्रमुख भूमिका को तत्परता व प्रभावपूर्ण तरीके से निभाना चाहिये। ओ३म् शम्।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here