गाँधी और हिन्दुत्व-2

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हम महात्मा गांधी को राष्ट्र पिता कहते हैं, किंतु उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भाषणबाजी और कुछ समारोहों के आयोजन के अलावा इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि उन्होंने अपने अद्भुत नेतृत्व के दौरान क्या किया और क्या संदेश दिया? हिंदुत्व पर उनके गहन विचारों के बारे में तो हमारा बिल्कुल ही ध्यान नहीं है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को उच्चतम आदर्शों से संबद्ध करते हैं, बल्कि राजनीति को श्रेष्ठ और सेवान्मुख भी बनाते हैं। डा. एस राधाकृष्णन और महात्मा गांधी के बीच धर्म पर रोचक बातचीत हुई थी। डा. राधाकृष्णन ने महात्मा गांधी से तीन सवाल पूछे थे: आपका धर्म क्या है? आपके जीवन में धर्म का क्या प्रभाव है? सामाजिक जीवन में इसकी क्या भूमिका है?गांधीजी ने पहले सवाल का उत्तार दिया: मेरा धर्म है हिंदुत्व। यह मेरे लिए मानवता का धर्म है और मैं जिन भी धर्मों को जानता हूं उनमें यह सर्वोत्ताम है। दूसरे सवाल के उत्तार में गांधीजी ने कहा-आपके प्रश्न में भूतकाल के बजाय वर्तमान काल का प्रयोग खास मकसद से किया गया है। सत्य और अहिंसा के माध्यम से मैं अपने धर्म से जुड़ा हूं। मैं अक्सर अपने धर्म को सत्य का धर्म कहता हूं। यहां तक कि ईश्वर सत्य है, कहने के बजाय मैं कहता आया हूं-सत्य ही ईश्वर है। सत्य से इनकार हमने जाना ही नहीं है। नियमित प्रार्थना मुझे अज्ञात सत्य यानी ईश्वर के करीब ले जाती है। तीसरे सवाल पर महात्मा गांधी का जवाब था, ”इस धर्म का सामाजिक जीवन पर प्रभाव रोजाना के सामाजिक व्यवहार में परिलक्षित होता है या हो सकता है। ऐसे धर्म के प्रति सत्यनिष्ठ होने के लिए व्यक्ति को जीवनपर्यंत अपने अहं का त्याग करना होगा। जीवन के असीम सागर की पहचान में अपने एकात्म का समग्र विलोप किए बिना सत्य का अहसास संभव नहीं है। इसलिए मेरे लिए समाजसेवा से बचने का कोई रास्ता नहींहै। इसके परे या इसके बिना संसार में कोई खुशी नहीं है। जीवन का कोई भी क्षेत्र समाजसेवा से अछूता नहीं है। इसमें ऊंच-नीच जैसा कुछ नहीं है। दिखते अलग-अलग हैं किंतु हैं सब एक।”गांधीजी का कहना था कि जितनी गहराई से मैं हिंदुत्व का अध्ययन कर रहा हूं उतना ही मुझमें विश्वास गहरा हो जाता है कि हिंदुत्व ब्रहांड जितना ही व्यापक है। मेरे भीतर से कोई मुझे बताता है कि मैं एक हिंदू हूं और कुछ नहीं। सही अर्थों में महात्मा गांधी हिंदुत्व को मानवता के प्रति सेवा का ध्येय मानते हैं। उनके लिए जीव ही शिव है। मानव सेवा ही प्रभु सेवा है। यह भावना ही महात्मा गांधी को राजनीति की ओर खींच लाई। वह रेखांकित करते हैं कि मेरे भीतर के राजनेता ने एक भी निर्णय नहीं थोपा। अगर मैं आज राजनीति में भाग लेना चाहता हूं तो बस इसलिए कि राजनीति ने आज हमें किसी सांप की तरह पूरी तरह जकड़ लिया है। चाहे कोई कितना भी प्रयास करे, इसके चंगुल से नहीं बच सकता। मेरी इच्छा इस जकड़न से मुकाबला करने की है। महात्मा गांधी सोचते थे कि इससे मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाली शक्ति हिंदुत्व का सहारा लेकर राजनीति को नि:स्वार्थ सेवा के उच्च प्रतिमानों पर स्थापित किया जाए। सत्य, अहिंसा और शोषितों के कल्याण की भावना उन्होंने वेदों से ली। इस वेदांतिक भावना को अपने जीवन की कसौटी पर परखकर और अपने राजनीतिक फैसलों का आधार बना कर उन्होंने भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में संचारित किया। स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलन में बदलने की गांधीजी को बड़ी सफलता सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या के आदर्शों के प्रति उनके समर्पण के कारण मिली। भारतीयों के दिमाग में महात्मा गांधी की यह छवि युगों तक बसी रहेगी। अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने लिखा है- ”मैंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों से ही शक्तियां संचित की हैं।”गांधीजी ने राजनीति में शुचिता और धर्मपरायणता को मूर्त रूप दिया। उनका विश्वास था-सिद्धांतों से विमुख राजनीति मौत का फंदा है, यह राष्ट्र की आत्मा का नाश कर देती है। वे अपने विश्वास पर जीवनपर्यंत अडिग रहे और भारत का नैतिक कद इतना ऊंचा किया, जो विश्व इतिहास में अनूठा है। राजनीति के उद्देश्य के संदर्भ में भारत पूरी तरह महात्मा गांधी के विचारों की अवहेलना कर चुका है, जिसका परिणाम है कि आज तरह-तरह की समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। ये समस्याएं जातिवाद, क्षेत्रवाद के दायरे में निजी लाभ उठाने की प्रवृत्तिा, भयानक भ्रष्टाचार, लापरवाह उपभोक्ता वाद और गरीबों के प्रति बेरुखी के रूप में हमारे सामने हैं। अगर मौजूदा रुख में बदलाव नहीं आता तो इनकी संख्या में गुणात्मक वृद्धि होगी। देश पूरी तरह से सिद्धांतविहीन राजनीति और अव्यवस्था की सांप की बांबियों से घिर जाएगा। राजनीति के सांपों का सामना करने के बजाय हमारे राजनेता उनके साथ रहने की कला सीख गए हैं। इसी कारण आज हमारी संसद में सौ से अधिक ऐसे सदस्य हैं जिनका आपराधिक रिकार्ड है। इनमें से 34 तो हत्या, बलात्कार, अवैध वसूली जैसे संगीन मामलों में आरोपी हैं। इनमें से कुछ तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी स्थान पा चुके हैं। राज्य और नगरपालिका के स्तर पर तो हालात और भी खराब हैं। वे पूर्ण रूप से पैसा, ताकत, अपराध, भ्रष्टाचार और जातिवाद में डूबे हैं। फलस्वरूप हमारा शिक्षित और तुलनात्मक रूप से संपन्न वर्ग उदासीन हो गया है। हमारी गरीब जनता षड्यंत्रों का शिकार हो रही है। अधिकांश राजनेता यह मंत्र भूल गए हैं कि विरूपताओं पर आधारित जीत अस्थायी होती है, किंतु इसकी बर्बादी युगों-युगों तक कायम रहती हैं। भारत में अधिकांश लोग राजनीति को हिकारत की निगाह से देखते हैं। उनका मानना है कि राजनेता स्वार्थी और अनुचित साधनों से सत्ता हथियाने वाले होते हैं। राजनेता अपने गलत कामों को कुतर्कों के आधार पर सही ठहराते हैं। उनके लिए सत्ता ही सब कुछ है-सिद्धांत और नैतिकता कुछ नहीं। महात्मा गांधी भारत की राजनीति को बिल्कुल अलग दिशा में ले जाना चाहते थे, जिससे यह लोगों, समाज और राष्ट्र की बेहतरी में योगदान दे सके।
धर्मायण ब्लॉग से साभार

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