वैश्विक मंदी के दौर में गांधी का चरखा

प्रमोद भार्गव

वैश्वीकरण के दौर में चरखे के व्यवसाय में उछाल के आंकड़े अविश्वसनीय एवं हास्यापद लगते हैं। लेकिन हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता। महात्मा गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के विचार का प्रतीक चरखा प्रौद्योगीकीय तकनीक और पाश्चात्य जीवनशैली अपनाने की होड़ में हस्क्षेप कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है, यह हैरानी में डालने वाली बात है। बाजार में चरखे की कामयाब दखल की खबर अहमदाबाद से है। यहां के साबरमति आश्रम के सचिव अमृत मोदी ने जानकारी दी है कि वित्तीय साल 2010-11 में 3 लाख रूपए चरखे बिके थे, वहीं 2011-12 में इनकी बिक्री बढ़कर 9 लाख रूपए हो गई। शायद इस बिक्री में उछाल की वजह यह है कि आज महात्मा गांधी को मानने वाले लोगों की संख्या दुनिया में बढ़ी है। मंहगाई के मुश्किल और आजीविका की बढ़ती जटिलता के दौर में गांधी का अहिंसा, अपरिग्रह और सच्चाई का संदेश ज्यादा प्रासंगिक लग रहा है।

गुजरात के खादी ग्रामोद्योग मंडल ने 2007-08 में पौने दो करोड़ रूपये के चरखे बेचकर एक कीर्तिमान स्थापित किया था। कुल मिलाकर चरखों की बिक्री लगातार बढ़ रही है। वह भी बिना किसी आधुनिक व्यावसायिक प्रबंधन के। ठेठ देशी संसाधनों से निर्मित इस उपकरण को माल बनाकर बेचने के लिए सुगठित अधढकी स्त्री देह का भी उपयोग नहीं किया गया। चरखे द्वारा खादी उत्पादन के सरोकार से जुड़ी यह खबर प्राकृतिक संपदा के यांत्रिक दोहन से लगातार असंतुलित हो रहे पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को कायम रखने की दिशा में एक कारगार संकेत है। कयोंकि यांत्रिकीकरण, उपभोक्तावाद और बाजारवाद से उपजी भोगवादी प्रवृत्तियों ने सृष्टि को ही आसन्न संकटों के हवाले छोड़ दिया है। बढ़ते औद्योगिक उत्पादन के चलते जलवायु परिवर्तन और दुनिया में बढ़ते तापमान जैसे विनाशकारी जो अनर्थ पृथ्वी को प्रलय में बदलने के कारण गिनाये जा रहे है, उनसे निपटने में चरखा की अहं भूमिका सामने आ सकती है।

गांधीजी ने केंद्रिय उद्योग समूहों के विरूद्ध चरखे को बीच में रखकर लोगो के लिए यांत्रिक उत्पादन की जगह, उत्पादन लोगो द्वारा हो का आंदोलन चलाया था। जिससे एक बढ़ी आबादी वाले देश में बहुसंख्यक लोग रोजगार से जुड़े और बढ़े उद्योगों का विस्तार सीमित रहे। इस दृष्टिकोण के पीछे महात्मा का उद्देश्य यांत्रिकीकरण से मानव मात्र को छुटकारा दिलाकर उसे सीधे स्वरोजगार से जोड़ना था। क्योंकि दूरदृष्टा गांधी की अंर्तदुष्टि ने तभी अनुमान लगा लिया था कि औद्योगिक उत्पादन और प्रौद्योगिकी विस्तार में सृष्टि के विनाश के कारण अंतनिर्हित हैं। आज दुनिया के वैज्ञानिक अपने प्रयोगों से जल, थल और नभ को एक साथ दूषित कर देने के कारणों में यही कारण गिनाते हुए, प्रलय की ओर कदम बढ़ा रहे इंसान को औद्योगीकरण घटाने के लिए पुरजोरी से आग्रह कर रहे हैं। लेकिन अभी इंसान की मानसिकता गलतियां सुधारने के लिए तैयार नहीं हो पाई है।

गांधी गरीब की गरीबी से कटु यथार्थ के रूप में परिचित थे। इस निवर्सन गरीबी से उनका साक्षात्कार उड़ीसा के एक गांव में हुआ। यहां एक बूढ़़ी औरत ने गांधी से मुलाकात की थी। जिसके पैंबद लगे वस्त्र बेहद मैले-कुचेले थे। गांधी ने शायद साफ-सफाई के प्रति लापरवाही बरतना महिला की आदत समझी। इसलिए उसे हिदायत देते हुए बोले, ‘अम्मां क्यों नहीं कपड़ों को धो लेती हो।’ बुढि़या बेवाकी से बोली, ‘बेटा जब बदलने को दूसरे कपड़े हों, तब न धो पहनूं।’ महात्मा आपादमस्तक सन्न व निरूत्तर रह गए। इस घटना ने उनके अंर्तमन में गरीब की दिगंबर देह को वस्त्र से ढकने के उपाय के रूप में ‘चरखा’ का विचार कौंधा। साथ ही उन्होंने स्वयं एक वस्त्र पहनने व ओढ़ने का संकल्प लिया। देखते-देखते उन्होंने ‘वस्त्र के स्वावलंबन’ का एक पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया। लोगों को तकली-चरखे से सूत कातने को उत्प्रेरित किया। सुखद परिणामों के चलते चरखा स्वनिर्मित वस्त्रों से देह ढकने का एक कारगर अस्त्र ही बन गया।

इधर वैश्विक अर्थव्यवस्था के पैरोकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कर्ज में डूबे और आत्महत्या कर रहे किसानों को उद्योग लगाने की सलाह देते हैं और खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश का मंत्र सुझाते हैं। यहां व्यावहारिक ज्ञान का संकट है। अब भला मनमोहन सिंह से कौन पूछे कि बदतर माली हालत के चलते आजीविका का संकट झेल रहा किसान बिना पूंजी और बिना किसी औद्योगिक स्थापना संबंधी ज्ञानाभाव में उद्योग कैसे लगाएगा। हां चरखा चलाकर सूत कात सकता है। बशर्ते सरकार उसे खरीदने की गारंटी ले। मगर मनमोहन तो जवाहरलाल नेहरू के अनुआयी हैं जो इंडिया के पैरोकार थे। बेचारे, गांधी तो ‘भारत’ में रहने वाले लाचारों के नेता और प्रणेता थे, ऐसे गांधी का अनुसरण एक अंग्रेजीदां नौकरशाह कैसे करे। वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के बरखिलाफ।

पिछले दो दशक के भीतर उद्योगों की स्थापना के सिलसिले में हमारी जो नीतियां सामने आयी हैं उनमें अकुशल मानव श्रम की उपेक्षा उसी तर्ज पर है, जिस तर्ज पर अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने ब्रिटेन में मशीनों से निर्मित कपड़ों को बेचने के लिए ढाका (बांगलादेश) के मलमल बुनकरों के हस्त उद्योग को हुकूमत के बल पर नेस्तनाबूद ही नहीं किया, उन्हें भूखों मरने के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया। आज स्वतंत्र भारत में पूंजीवादी अभियान के चलते रिलांयस फ्रेस और वालमार्ट के हित साधन को दृष्टिगत रखते हुए खुदरा व्यापार से मानवश्रम को बेदखल किया जा रहा है, वहीं सेज के लिए कृषि भूमि हथिया कर किसानों को खेती से खदेड़ देने की मुहिम चल पड़ी है। जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपने देश के समग्र कुशल-अकुशल मानव समुदायों के हित साधनों के दृष्टिकोण सामने लाते। गांधी की सोच वाली आर्थिक प्रक्रिया की स्थापना और विस्तार में न मनुष्य के हितों पर कुठाराघात होता हैं और न ही प्राकृतिक संपदा के हितों के सरोकार पूंजीपतियों के हितों पर। जबकि मौजूदा आर्थिक हितों के सरोकार केवल पूंजीवादियों के हित साधते हैं और इसके विपरीत मानवश्रम से जुड़े हितों को तिरष्कृत करते हैं। साथ ही इनके आर्थिक हित केवल प्राकृतिक संपदा को नष्ट करने से सधते हैं। मानव समुदायों के बीच असमानता की खाई ऐसे ही उपायों से उत्तरोतर बढ़ती चली जा रही है।

चरखा और खादी परस्पर एक दूसरे के पर्याय हैं। गांधी की शिष्या निर्मला देशपाण्डे ने अपने एक संस्मरण का उद्घाटन करते हुए कहा था, नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना का स्वरूप तैयार करने से पहले आचार्य विनोबा भावे को मार्गदर्शन हेतु आमंत्रित किया। राजघाट पर योजना आयोग के सदस्यों के साथ हुई बातचीत के दौरान आचार्य ने कहा कि ऐसी योजनाएं बननी चाहिए जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोजगार मिले। क्योंकि गरीब इंतजार नहीं कर सकता। उसे अविलंब काम और रोटी चाहिए। आप गरीब को काम नहीं दे सकते, लेकिन मेरा चरखा ऐसा कर सकता है। वाकई यदि पहली पंचवर्षीय योजना को अमल में लाने के प्रावधानों में चरखा और खादी को रखा जाता तो मौसम की मार और कर्ज का संकट झेल रहा किसान आत्महत्या करने को विवश नहीं होता।

दरअसल आर्थिक उन्नति का अर्थ हम प्रकृति के दोहन से मालामाल हुए अरबपतियों-खरबपतियों की फोब्र्स पत्रिका में छप रही सूचियों से निकालने लगे हैं। आर्थिक उन्नति का यह पैमाना पूंजीवादी मानसिकता की उपज है, जिसका सीधा संबंध भोगवादी लोग और उपभोग वादी संस्कृति से जुड़ा है। जबकि हमारे परंपरावादी आदर्श किसी भी प्रकार के भोग में अतिवादिता को अस्वीकार तो करते ही हैं, भोग की दुष्परिणति पतन में भी देखते है। अनेक प्राचीन संस्कृतियां जब उच्चता के चरम पर पहुंचकर विलासिता में लिप्त हो गईं तो उनके पतन का सिलसिला शुरू हो गया। रक्ष, मिश्र, रोमन, नंद और मुगल संस्कृतियों का यही हश्र हुआ। भगवान कृष्ण के सगे-संबंधी जब दुराचार और भोगविलास में संलग्न हो गए तो स्वयं भगवान कृष्ण ने उनका अंत किया। इतिहास दृष्टि से सबक लेते हुए गांधी ने कहा था, ‘किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। बेशक किसी देश की अच्छी अर्थव्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते है बल्कि जनसाधारण का कोई भी व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है, यह होनी चाहिए।’ यह कितनी विडंबना कि बात है आज हम अंबानी बंधुओं की आय की तुलना उस आम आदमी की मासिक आय से करते हैं जो 26 और 32 रूपये रोज कमाता है। औसत आय का यह पैमाना क्या आर्थिक दरिद्रता पर पर्दा डालने का उपक्रम नहीं हैं।

गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के चिंतन और समाधन की जो धाराएं चरखे की गतिशीलता से फूटती थीं, उस गांधी के अनुआयी वैश्विक बाजार में समस्त बेरोजगारों के रोजगार का हल ढूढ़ रहे हैं। यह मृग-मारीचिका नहीं तो और क्या हैं। अब तो वैश्विक अर्थव्यवस्था के चलते रोजगार और औद्योगिक उत्पादन दोनों के ही घटने के आंकड़े सामने आने लगे हैं। रूपए का डॉलर की तुलना में निरंतर अवमूल्यन हो रहा है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना धन भारत से वापस ले जाने लगी हैं। सकल घरेलू उत्पाद और औद्योगिक विकास दर घट रही हैं। इन नतीजों से साफ हो गया है कि भू-मण्डलीकरण ने रोजगार के अवसर बढ़ाने की बजाय घटाये हैं। ऐसे में चरखे से खादी का निर्माण एक बढ़ी आबादी को रोजगार से जोड़ने का काम कर सकता है। वर्तमान में भी सात हजार खादी आउटलेट्स हैं। इनसे सालाना पचास करोड़ रूपये की खादी का निर्यात कर विदेशी पूंजी कमाई जाती है। यदि घरेलू स्तर पर ही बुनकारों को समुचित कच्चा माल और बाजार मुहैया कराए जाएं तो खादी का उत्पादन और विपणन दोनों में ही आशातीत वृद्धि हो सकती है। इस तरह से बेरोजगारी की समस्या को एक हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इस संदर्भ में गांधी कह चुके हैं कि भारत के किसान की रक्षा खादी के बिना नहीं की जा सकती है। गांधी की इस सार्थक दृष्टि का आकलन हम विदर्भ, आंधप्रदेश, मध्यप्रदेश और बुन्देलखण्ड में आत्महत्या कर रहे किसानों के प्रसंग से जोड़कर देख सकते हैं। भारत की विशाल आबादी पूंजीवादी मुक्त अर्थव्यवस्था से समृद्धशाली नहीं हो सकती, बल्कि वैश्विक आर्थिकी से मुक्ति दिलाकर, विकास को समतामूलक कारकों से जोड़कर इसे सुखी और संपन्न बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से चरखा एक सार्थक औजार के रूप में ग्रामीण परिवेश में ग्रामीणों के लिए एक नया अर्थशास्त्र रच सकता है।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here