गंगा की भोगौलिक उत्पत्ति मध्य-हिमालय के गंगोत्री हिमवाह(ग्लेसियर) से हुई। इस हिमवाह के पूर्व दिशा से अलकनन्दा का स्रोत आया है एवम् पश्चिम की ओर से भागीरथी का। देवप्रयाग में ये दो धाराएँ मिलित होकर गंगा नाम धारण कर लेती हैं ।
गोमुख जैसी गुहामुख से पिघले बर्फ की धारा के रूप में भागीरथी उतरती है। गोमुख से करीब अट्ठाइस किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम के तिब्बत से आकर भागीरथी के साथ मिलती है जाड़गंगा या जाह्ववी। यह मिलित धारा बन्दरपुंच और श्रीखण्ठ गिरि-खोह के भीतर से आकर मिलती है केदार से प्रवाहित मन्दाकिनी के साथ। इनका मिलनस्थल है रूद्रप्रयाग।
गंगोत्री से बद्रीनाथ तक प्रसारित है भगीरथ, खड्ग एवम् सतोपंथ हिमवाह। उत्तर-पश्चिम में प्रसारित हिमवाह भगीरथ का अवस्थान वर्तमान में गोमुख, गोमुख से दूर की ओर हटता जा रहा है । कभी यह हिमवाह गंगोत्री तक फैला हुआ था।
गोमुख के निकट एक शिलाखण्ड है, उसका नाम भागीरथ शिला है। गंगावतरण के लिए इस शिलाखण्ड पर बैठकर भगीरथ ने तपस्या की थी। गंगा को स्तोक दिया था उन्होंने। पुण्यात्मा के स्पर्श से , गंगा की देह में अगर कुछ कलुष हो, धुल जाएगा ।
गोमुख के निकट एक और छोटा-सा हिमवाह है। इसका नाम है रक्तवर्ण। रक्तवर्ण मिलित होता है गंगोत्री हिमवाह के साथ। गंगोत्री हिमवाह के दो ओर हैं मन्थनी, स्वच्छन्द, गहन,और कीर्णत हिमवाह। इसके पश्चात नन्दनवन के पास उत्तर-पूर्व से आकर मिलती है चतुरंगी।
इन पर्वतचुड़ाओं एवम् हिमवाहों की जटिल बन्धनी किसी विराट पुरुष के जटाजूट की तरह लगती है । इस जटाजाल के बीच से ही हजार धाराओं में उतर कर गंगा हजारों नदियों के साथ मिलती हुई सागर की ओर चलती जाती है ।
गंगा ने इतिहास गढ़ा है। गंगा ने इतिहास को ग्रास किया है। वह तोड़ती है। वह गढ़ती है। वह डुबोती है। कितना शोकाश्रु भरा हुआ है उसकी देह में, कितनी शोक-कथाएँ ! अषाढ़ बीता, सावन आया. दोनो तट भर गए हैं उसके। कैसा रूप धरेगी वह? कौन-सा रूप?
रूप जो भी हो, मानव-हृदय में गंगा मातृस्वरूपिनी है । माँ सन्तान को पीटती है, शासन करती है, दण्ड देती है- तो इससे क्या सन्तान माँ का गला पकड़कर सोता नहीं? उसके गाल पर लगा होता है अश्रुदाग। किन्तु ओठों पर लगी रहती है माँ से लिपट कर होने की निश्चिन्त नींद की प्रशान्ति। वे गंगा हैं, एक विराट शिशु की शाश्वत माता।