गैंगरेप के खिलाफ जमूरे की तरह नाचती जनता

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हैवानों के साथ,दोषी पुलिस वालोें को भी फांसी हो
संजय सक्सेना
ऐसा लगता है कि एक हिन्दुस्तान में दो समाज बसते हैं। एक वह है जो नारी को देवी के रूप में पूजता है। उसके सम्मान, उत्थान, बराबरी के अधिकार,‘बेटी बचाओं-बेटी पढ़ाओ’ आदि के माध्यम से समाज में जागरूकता पैदा करता है तो दूसरा समाज 21 सदी में भी नारी को घर की चैखट में कैद रखना चाहता है। उसके पहनावे से लेकर बैठने-उठने, चलने-फिरने सब पर नजर रखता है, जिसके लिए आज भी नारी उपभोग की वस्तु है। वह हर जगह,हर समय उसमें अश्लीलता तलाशता है। सड़क पर बेबाकी के साथ चलने, घूमने-फिरने वाली हर लड़की या महिला उसे चरित्रहीन, बिकाऊ या बाजारू लगती है। घर से स्कूल, बाजार या अन्य कहीं आती-जाती लड़कियों पर फब्तियां कसना, उनके आगे पीछे चक्कर लगाना, यहां तक की कभी- कभी तो कुछ आवारा लड़कों द्वारा भोली-भाली लड़कियों को बहला-फुसला कर उनका आपत्तिजनक वीडियो तक बनाकर वायरल कर दिया जाता है तो सुनसान इलाका तो हमेशा से ही लड़कियों-महिलाओं के लिए खतरे की घंटी बजाता रहता है। अक्सर अंजान हैवानों द्वारा सुनसान इलाकों में ही गैंगरेप की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है।
इस श्रेणी में वह अपराधी भी आते हैं जो घर के बाहर ही नहीं घर के भीतर, अपने साथ काम करने वाले महिला स्टाफ और जान-पहचान वाली लड़कियों-महिलाओं ही नही छोटी-छोटी बच्चियों के साथ तक मौका पाकर हैवानियत करने से बाज नहीं आते हैं। अपराधियों की एक और श्रेणी भी है जिसमें साधू-संत,मुल्ला-मौलवी आते हैं जिनके बलात्कारी या हैवान बनने से धर्म और समाज दोनों को नुकसान पहुंचता है। इसमें समाज की वह श्रेणी भी आती है जो रूढ़िवादी विचारधारा के चलते अपने घर-समाज की महिलाओं को बुर्का या घूंघट के दायरे से बाहर निकलते नहीं देखना चाहता है। लड़को और लड़कियों के बीच इनकी सोच बंटी हुई है। लड़कों के हर गुनाह पर पर्दा डाल दिया जाता है तो लड़कियों को उन गुनाहों का भी जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है जिसके लिए कोई ‘हैवान’ जिम्मेदार होता है। लड़कियों के सामने दुविधा यह रहती है कि बाहर निकलने पर उन्हें कहीं न कहीं,किसी न किसी पर तो विश्वास करना ही पड़ता है।ऐसे में कौन सही है, कौन गलत इसकी पहचान करना रेत में सुईं तलाशने से कम नहीं है।
महिलाओं के ऊपर होने वाली हैवानियत के खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रही है जिसके चलते सरकारें भी हिल जाया करती हैं,लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि गैंगरेप जैसी घटनाओं को अंजाम देने वाले हैवानों और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ की बजाए अक्सर ऐसे आंदोलन सरकारों को घेरने के चक्कर में बेनतीजा साबित होकर किसी अंजाम पर पहंुचने से पहले दम तोड़ देते हैं। हैदराबाद में पशु चिकित्सक से गैंगरेप के मामले में भी यही हो रहा है। अच्छा होता गैंगरेप के खिलाफ सड़क पर कैंडिल मार्च, धरना-प्रदर्शन और अन्य तरह के आंदोलन करने वाले किसी सरकार को कोसने के बजाए इस बात पर ज्यादा जोर लगाते कि उन पुलिस वालों को गिरफ्तार किया जाए,जिन्होंने पूरे घटनाक्रम के दौरान कहीं भी अपनी जिम्मेदारियों का पालन नहीं किया। आखिर सरकार से मोटी तनख्वाह लेने वाले अगर समय पर अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते तो उन्हें सिर्फ निलंबित या बर्खास्त करके कैसे छोड़ा जा सकता है। ऐसे सरकारी कर्मचारियों को तो खासकर जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए, जो हमारे-आपके टैक्स से मोदी तनख्वाह तो लेते हैं लेकिन काम की बजाए कामचोरी के नये-नये हथकंडे तलाशते रहते हैं।
कहने को तो यह जनता के नौकर कहलाते हैं,परंतु जनता के लिए ही मुसीबत का सबब बने रहते हैं। कभी वेतन बढ़ाने तो कभी अन्य बेतुकी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले जाते हैं। सरकार पर दबाव इसलिए बनाना चाहिए कि वह प्रत्येक सरकारी कर्मचारी-अधिकारी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी तय की जाए। निर्भया केस में ही ले लीजिए। निर्भया से रेप और उसके बाद उसकी हत्या करने वाले हत्यारों को सुप्रीम कोर्ट ने सजा सुना दी है। हत्यारों ने दया याचिका राष्ट्रपति को भेज दी। सात साल हो गए हैं लेकिन अभी तक राष्ट्रपति भवन इस पर फैसला नहीं ले पाए है,इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? ऐसे सरकारी अधिकारियों को भी हत्यारों को मददगार मानकर कार्रवाई करी जाए तभी हालात बदलेंगे। लोग हैदराबाद की डाक्टर से रेप और उसकी हत्या के खिलाफ फास्ट ट्रक कोर्ट बनाने की बात कह रहे हैं। इससे क्या होगा। उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने राज्यसभा में जो कुछ कहा,उस पर गौर करना जरूरी है। उनका कहना था फास्ट ट्रक कोर्ट से कुछ नहीं होता है। फास्ट ट्रक कोर्ट सजा सुना भी देती है तो उसके बाद मामले ऊपरी अदालतों में जाकर लटक जाते हैं। नायडू ने इस बात पर भी चिंता जताई कि गैंगरेप और उसके बाद हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वाले हत्यारों को राष्ट्रपति के वहां दया याचिका दायर करने की छूट क्यों मिलती है।
यह बात समझ से परे है कि सुप्रीम अदालत जब सारे तथ्यों का अध्ययन करने के बाद किसी को फांसी की सजा का फैसला सुनाती है तो सजा पाए मुजरिम की जगह सुप्रीम कोर्ट को इस बात का अधिकार क्यों नहीं दिया जाता है कि वह अपने फैसले में यह भी लिख दे कि यह मामला दया याचिका के लिए राष्ट्रपति के पास जाने योग्य है या नहीं।
कानून का हाल है कि डाक्टर की लापरवाही के चलते भले मरीज की जान चली जाए,लेकिन मरीज से घर वाले मुंह खोल दे तो उन पर सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा दर्ज हो जाता है। शहर में महिलाओं के साथ हैवानियत बढ़ रही हो ? कानून व्यवस्था चरमराई हुई हो ? अतिक्रमण की भरमार या गंदगी का आलम हो ? अस्पतालों में मरीजों को मिलने वाली दवाएं खुले बाजार में बेची जा रही हो ? सरकारी जमीन पर भू-माफिया कब्जा जमाए बैठे हों ? शिक्षा माफिया फलफूल रहे हों ? कालाबाजारी पैर पसार रही हो ? खाद्यान घोटालों की बाढ़ आई हो ? डग्गामारी करते अवैध वाहन ? सरकारी अस्पतालों के बाहर निजी अस्पतालों घूमते दलाल, जो मरीज को जर्बदस्ती उठा तक ले जाते हैं। यह खेल सरकारी डाक्टर और कर्मचारियों की नाक के नीचे होता है, लेकिन इस तरह के तमाम अपराधों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है। सरकारी अधिकारी/कर्मचारी तमाम सरकारी योजनाओं पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं।
लखनऊ का ही घटना को ले लीजिए। यहां के प्रमुख सरकारी अस्पतालों के आस-पास जर्बदस्त अतिक्रमण फैला हुआ है। अतिक्रमण में फंस कर अक्सर गंभीर मरीज दम तोड़ देते हैं। हाईकोर्ट एक-दो बार नहीं कई बार अतिक्रमण के खिलाफ आदेश दे चुकी है। परंतु जिम्मेदार अधिकारियों के कान पर जूं ही नहीं रेंगती है। आखिर इस सच्चाई को भी तो इंकार नहीं किया जा सकता है कि नंबर दो की कमाई से चलने वाली ‘दुनिया’ का अपना अलग रूतबा होता है। यह दुनिया सरकार के समानांतर चलती है। अगर अतिक्रमण नहीं होगा तो पुलिस-नगर निगम की जेब कैसे भरेगी। अगर डग्गामारी नहीं होगी तो आरटीओ के अधिकारी कैसे फले-फूलंेगे। अगर प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कस दी गई तो फिर शिक्षा विभाग के अधिकारियों की तिजोरी कैसे भरेगी। अगर अनाज की कालाबाजारी नहीं होगी तो राशन महकमा ऊपरी कमाई कैसे करेगा। सब ने मुंशी पे्रमचंद की कहानी ‘नमक का दरोगा’ पढ़ी हुई है। तनख्वाह तो ईद का चांद की तरह होती है जो महीने मंे एक बार मिलती है,लेकिन रिश्वत की कमाई से तो रो ईद,होली-दीवाली मनाई जा सकती है।
बहरहाल, बात मुद्दे की कि जाए तो जनता अक्सर नेतानगरी और मीडिया के चक्कर में जमुरे जैसा व्यवहार करने लगती है। उसे नेता और मीडिया रूपी मदारी जैसे चाहता है,वैसे नचाता है। कोई सत्ता पक्ष के पाले में खड़ा हो जाता है तो कोई विपक्ष की बोली बोलने लगता है। किसी भी जघन्य अपराध के समय विरोध के नाम पर उसे कैंडिल मार्च, धरना-प्रदर्शन तक सीमित नहीं किया जा सकता है। अपराध के खिलाफ एक स्पष्ट नजरिया होना चाहिए।
एक उदाहरण के माध्यम से नेताओं और समय-समय पर मीडिया के बदले सुरों को समझा जा सकता है कि कैसे यह लोग हवा का रूख भांप कर अपना रंग बदल लेते हैं। राज्यसभा में बहस के दौरान सांसद और गुजरे जमाने की अभिनेत्री जया बच्चन एक तरफ आईपीसी की धाराओं में निहित कानून से इतर पशु चिकित्सक के हैवानों को जनता को सौंपने की बात करती है ताकि जनता उन्हें सबक सिखा,लेकिन जब उनकी ही पार्टी के नेता आजम खान अपनी प्रतिद्वंदी और फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा के लिए आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करती हैं तो जया बच्चन के सुर बदले हुए निकलते हैं। इसी प्रकार जब साध्वी और सांसद प्रज्ञा ठाकुर किसी संद्रर्भ में कथित रूप से गोडसे को देशप्रेमी बता देती हैं तब तो कांगे्रस और मीडिया सिर-आसमान एक कर देते हैं,मगर जब राहुल गांधी साध्वी को आतंकवादी बताते हैं इसे महिलाओं के सम्मान से जोड़कर नहीं देखा जाता है। कांगे्रस के अधीर रंजन जब भरी लोकसभा में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को निर्बला बताते हैं तो सेक्यूलर ताकतों को बुरा नहीं लगता है। मीडिया जिसे व्यवसायिक घराने कहा जाए तो बेहतर रहेगा भी दोहराया रवैया अपनाता है। एक तरफ वह जया बच्चन के बयान को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता हुए उसके सुर में सुर मिलाता है तो दूसरी तरह अगर किसी मनचले की जनता पिटाई कर देती है तो वह चीखने-चिल्लाने लगता है कि पुलिस खड़ी देखती रही,जबकि रेप की कई घटनाओं की शुरूआत छेड़छाड़ से ही होती है। मीडिया कभी अपने तंग दायरे से निकल ही नहीं पाया। वह समाज के एक वर्ग से भयभीत रहता है। उसके जघन्य से जघन्य अपराध को थोड़े-बहुत में समेट देता है।
लब्बोलुआब यह है कि अगर अपराध पर नियंत्रण लगाना है। बहन-बेटियों की सुरक्षा को मजबूती प्रदान करना है तो कुछ सख्त कदम उठाना ही होगा। इस बात भी जांच पड़ताल होनी चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि किसी धर्म या जाति विशेष के लड़कों की गैगरेप या अन्य तरह की आपराधिक वारदातों में ज्यादा लिप्तता तो नहीं पाई जाती है। अगर किसी समाज में ऐसे अराजक तत्व मौजूद हों तो उस समाज की गतिविधियों पर विशेष नजर रखनी चाहिए। पुलिस को ऐसे आपराधिक प्रवृति के लोंगों को समय-समय पर थाने बुलाकर उनके पेंच कसने रहना चाहिए ताकि एक अपराध करने के बाद वह यह न समझने लगें कि उन्हें अपराध करने का लाइसेंस मिल गया है।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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