-विजय कुमार
भारत में स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजी कानून और मानसिकता जारी है। इसीलिए इस्लामी आतंकवाद के सामने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा कुछ कांग्रेसी नेता छेड़ रहे हैं। इसकी आड़ में वे उन हिन्दू संगठनों को लपेटने के चक्कर में हैं, जिनकी देशभक्ति तथा सेवा भावना पर विरोधी भी संदेह नहीं करते। किसी समय इस झूठ मंडली की नेता सुभद्रा जोशी हुआ करती थीं; पर अब लगता है इसका भार बेरोजगार दिग्विजय सिंह ने उठा लिया है।
ये लोग हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबेल्स के चेले हैं। उसके दो सिध्दांत थे। एक – किसी भी झूठ को सौ बार बोलने से वह सच हो जाता है। दो – यदि झूठ ही बोलना है, तो सौ गुना बड़ा बोलो। इससे सबको लगेगा कि बात भले ही पूरी सच न हो; पर कुछ है जरूर। इसी सिध्दांत पर दिग्विजय सिंह अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव या गोवा आदि के बम विस्फोटों के तार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि से जोड़ रहे हैं। इसके लिए उन्होंने तथा उनकी सेक्यूलर मंडली ने ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक शब्द खोजा है। उन्हें लगता है कि दुनिया भर में फैल रहे इस्लामी आतंकवाद के सामने इसे खड़ाकर भारत में मुसलमान वोटों की फसल काटी जा सकती है। और इस समय कांग्रेस का सबसे प्रमुख एजेंडा यही है। सच्चर, रंगनाथ मिश्र, सगीर अहमद रिपोर्टों की कवायद के बाद यह उनका अगला कदम है।
सच तो यह है कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। आतंकवाद का हिन्दुओं के संस्कार और व्यवहार से कोई तालमेल नहीं है। वैदिक, रामायण या महाभारत काल में ऐसे लोगों को असुर या राक्षस कहते थे। वे निरपराध लोगों को मारते थे, उन्हें गुलाम बनाते थे। इसे ही साहित्य की भाषा में कह दिया गया कि वे लोगों को खा लेते थे; पर वर्तमान आतंकवादी उनसे भी बढ़कर हैं। ये विधर्मियों को ही नहीं, स्वधर्मियों और स्वयं को भी मार देते हैं। आत्मघाती हमले लिट्टे और प्रभाकरण की देन हैं। प्रभाकरण ईसाई था, यह सबको पता है। इन दिनों हो रहे अधिकांश हमले आत्मघाती हैं, जिनमें हर धर्म, वर्ग और आयु के लोग मर रहे हैं। स्पष्ट है कि यह आतंक उस राक्षसी आतंक से भिन्न है।
वस्तुत: हिन्दू चिंतन में आतंक नाम की चीज ही नहीं है। वहां तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की भावना और भोजन से पूर्व गाय, कुत्तो और कौए के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। ‘अतिथि देवो भव’ का सूत्र को तो शासन ने भी अपना लिया है। अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खाना विकृति और अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। यह संस्कृति हर हिन्दू के स्वभाव में है। ऐसे लोग आतंकवादी नहीं हो सकते; पर मुसलमान वोटों के लिए एक-दो दुर्घटनाओं के बाद कुछ सिरफिरों को पकड़कर उसे हिन्दू आतंकवाद नाम दिया जा रहा है। यह ब्रिटिश सरकार की ‘इम्पीरियल पुलिस’ जैसा व्यवहार है, जिसमें कहीं भी झगड़ा या दंगा होने पर दोनों ओर के लोगों को पकड़ लिया जाता था।
दिग्विजय सिंह संघ या विश्व हिन्दू परिषद की कार्यप्रणाली को न समझते हों, यह असभंव है। वे लश्कर, सिमी या हजारों नामों से काम करने वाले इन आतंकी गिरोहों को न जानते हों, यह भी असंभव है; पर आखों पर जब काला चश्मा लगा हो, तो फिर सब काला दिखेगा ही।
संघ को समझने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं होती। देश भर में हर दिन सुबह-शाम संघ की लगभग 50,000 शाखाएं सार्वजनिक स्थानों पर लगती हैं। इनमें से किसी में भी जाकर या उसे देखकर संघ को समझ सकते हैं। शाखा में प्रारम्भ के 40 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। बुजुर्ग लोग आसन करते हैं, तो नवयुवक और बालक खेल व व्यायाम। इसके बाद वे कोई देशभक्ति पूर्ण गीत बोलते हैं। किसी महामानव के जीवन का कोई प्रसंग स्मरण करते हैं और फिर भगवा ध्वज के सामने पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की वंदना के साथ एक घंटे की शाखा सम्पन्न हो जाती है।
मई-जून मास में देश भर में संघ के एक सप्ताह से 30 दिन तक के प्रशिक्षण वर्ग होते हैं। प्रत्येक में 100 से लेकर 1,000 तक शिक्षार्थी भाग लेते हैं। इन्हें प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा संघ शिक्षा वर्ग कहते हैं। इनमें औसत 50,000 युवक प्रतिवर्ष सहभागी होते हैं। इनके समापन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनता तथा पत्रकार आते हैं। प्रतिदिन समाज के प्रबुध्द एवं प्रभावी लोगों को बुलाकर संघ की कार्यपध्दति को निकट से देखने का अवसर दिया जाता है। आज तक किसी शिक्षार्थी, शिक्षक या नागरिक ने नहीं कहा कि उसे इन शिविरों में हिंसक गतिविधि दिखाई दी है।
एक मजेदार बात यह भी है कि संघ पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने वाले लोग पहले संघ वालों की लाठी को देखकर हंसते थे। वे कहते थे कि इससे ए.के.47 का सामना कैसे होगा; पर अब उन्हें वही लाठी खतरनाक लग रही है।
संघ के स्वयंसेवक देश में हजारों संगठन तथा संस्थाएं चलाते हैं। इनके प्रशिक्षण वर्ग भी वर्ष भर चलते रहते हैं। इनमें भी लाखों लोग भाग ले चुके हैं। विश्व हिन्दू परिषद वाले सत्संग और सेवा कार्यों का प्रशिक्षण देते हैं। बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी वाले नियुध्द (जूडो, कराटे) तथा एयर गन से निशानेबाजी भी सिखाते हैं। इससे मन में साहस का संचार होकर आत्मविश्वास बढ़ता है। इन शिविरों के समापन कार्यक्रम भी सार्वजनिक होते हैं। संघ और संघ प्रेरित संगठनों का व्यापक साहित्य प्राय: हर बड़े नगर के कार्यालय पर उपलब्ध है। अब तक हजारों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं तथा करोड़ों पुस्तकें बिकी होंगी। किसी पाठक ने यह नहीं कहा कि उसे इस पुस्तक में से हिंसा की गंध आती है।
संघ प्रेरित संस्थाओं की अर्थ व्यवस्था भी खुली होती है। वे समाज से पैसा लेते हैं तथा प्रतिवर्ष उसका अंकेक्षण किया जाता है। सच तो यह है कि जिस व्यक्ति, संस्था या संगठन का व्यापक उद्देश्य हो, जिसे हर जाति, वर्ग, अवस्था और आर्थिक स्थिति वाले, नगर और ग्राम के लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ना हो, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। हिंसावादी होने के लिए गुप्तता अनिवार्य है और संघ का सारा काम खुला, सार्वजनिक और संविधान की मर्यादा में होता है। संघ पर 1947 के बाद तीन बार प्रतिबंध लग चुका है। उस समय कार्यालय पुलिस के कब्जे में थे। तब भी उन्हें वहां से कोई आपत्तिाजनक सामग्री नहीं मिली।
दूसरी ओर आतंकी गिरोह गुप्त रूप से काम करते हैं। वे इस्लामी हों या ईसाई, नक्सली हों या माओवादी; सब भूमिगत रहकर काम करते हैं। उनके पर्चे किसी बम विस्फोट या नरसंहार के बाद ही मिलते हैं। उनके प्रशिक्षण्ा शिविर पुलिस, प्रशासन या जनता की नजरों से दूर घने जंगलों में होते हैं। ये गिरोह जनता, व्यापारी तथा सरकारी अधिकारियों से जबरन धन वसूली करते हैं। न देने वाले की हत्या इनके बायें हाथ का खेल है। ऐसे सब गिरोहों को बड़ी मात्रा में विदेशों से भी धन तथा हथियार मिलते हैं।
पिछले दिनों अजमेर, मालेगांव, गोवा या हैदराबाद जैसी कुछ घटनाएं प्रकाश में आयी हैं। यद्यपि अभी इनकी जांच चल रही है और सत्य कब तक सामने आयेगा, कहना कठिन है। इनके साथ ‘अभिनव भारत’ या ‘सनातन’ जैसी संस्थाओं का नाम आ रहा है। इनका संघ या विश्व हिन्दू परिषद से कोई संबंध नहीं है। यदि कुछ लोग इन घटनाओं में पकड़ में आये हैं, जो संघ के कार्यकर्ता रहे हैं, उनसे पूछताछ में ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह निन्दनीय कार्य उन्होंने अपनी इच्छा से किया होगा। इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, संघ नहीं। क्योंकि संघ कभी किसी हिंसक कार्य का समर्थन नहीं करता।
संघ का जन्म हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए हुआ है। और हिंसा से विघटन पैदा होता है, संगठन नहीं। संघ मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण का विरोधी है। वह उस मनोवृति का भी विरोधी है, जिसने देश को बांटा और अब अगले बंटवारे के षडयन्त्र रच रहे हैं। इसके बाद भी संघ का हिंसा में विश्वास नहीं है। वह मुसलमान तथा ईसाइयों में से भी अच्छे लोगों को खोज रहा है। संघ किसी को अछूत नहीं मानता। उसे सबके बीच काम करना है और सबको जोड़ना है। ऐसे में वह किसी वर्ग, मजहब या पंथ के सब लोगों के प्रति विद्वेष रखकर नहीं चल सकता।
इसलिए हिन्दू आतंकवाद या उससे संघ परिवार के संगठनों को जोड़ना केवल और केवल एक षडयन्त्र है। यह खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने का प्रयास मात्र है। दिग्विजय सिंह हों या उनकी महारानी, वे आज तक किसी इस्लामी आतंकवादी को फांसी नहीं चढ़ा सके हैं। अब हिन्दू आतंकवाद का नाम लेकर वे इस तराजू को बराबर करना चाहते हैं। उनका यह षडयन्त्र हर बार की तरह इस बार भी विफल होगा।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि संघ हर चोट के बाद पहले से अधिक सबल हुआ है। 1948, 1975 और 1992 का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। यदि कांग्रेस फिर संघ वालों को आजमाना चाहे, तो उसका स्वागत है।
हमने चिराग रख दिया तूफां के सामने
पीछे हटेगा इश्क किसी इम्तहां से क्या ?