भारत में आम चुनाव और निर्वाचन आयोग, भाग – 4

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-राकेश कुमार आर्य
14 वीं लोकसभा

भाजपा ने 13वीं लोकसभा के चुनावों के समय अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करने ,संविधान की धारा 370 को हटाने , समान नागरिक संहिता को लागू करने जैसे मुद्दों को अपने चुनावी घोषणा पत्र में प्रमुखता से उठाया था । जब भाजपा शासन करने लगी तो वह इन तीनों मुद्दों से ही अपने आप को हटाने और बचाने लगी । भाजपा का मतदाता इससे अपने आपको निराश अनुभव कर रहा था । इसके उपरांत भी भाजपा ने ‘फील गुड ‘ और ‘ शाइनिंग इंडिया ‘ जैसे नारे दिए । भाजपा को अपेक्षा थी कि देश के मतदाताओं को यह नारे अच्छे लगेंगे और लोग उसे नया जनादेश देकर चौदहवीं लोकसभा में भी अच्छा बहुमत प्रदान करेंगे । भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी वायदों को पूरा नहीं किया वह अपने आप ही आत्ममोह में डूब गई , वह आत्मप्रशंसा और आत्ममुग्ध की अवस्था में पहुंच गई थी , ना तो कहीं फीलगुड था और ना ही शाइनिंग इंडिया का कहीं कोई भाव था । 
इसके उपरांत भी भारतीय जनता पार्टी ने दोनों नारे अपने लिए बना लिए । लोगों ने उन्हें पसंद नहीं किया , यद्यपि अटल जी के प्रति लोगों का सम्मान था और देश की अर्थव्यवस्था भी उस समय उन्नति कर रही थी । उस समय 100 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार भारत के पास उपलब्ध था जो कि विश्व का सातवां सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार था । भारत के लिए तो यह अपने आप में एक कीर्तिमान था ।
उस समय का चुनाव सोनिया गांधी और अटल जी के व्यक्तित्व को लेकर लड़ा गया । अटल बनाम सोनिया पर चुनाव केंद्रित हो गया था । राजग और संप्रग में भीतरी टकराव और भीतरी कलह चरमोत्कर्ष पर था । इस सब के उपरांत भी कांग्रेस ने विपक्षी एकता के लिए अथक प्रयास किए , जिनमें व सफल नहीं हो सकी । कांग्रेस ने कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों से मिलकर चुनाव लड़ा । वामपंथी दलों ने अर्थात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी ) ने अपने बल पर अपने – अपने प्रांतों में चुनाव लड़ा । उन्होंने कांग्रेस या राजग का किसी का भी साथ नहीं दिया । जबकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रांत में सपा और बसपा किसी के साथ न जाकर अपने बलबूते पर चुनाव लड़ रहे थे ।इन चुनावों में छोटे दलों की बूझ अधिक हो रही थी । यही कारण था कि राष्ट्रीय मुद्दे चुनाव में गौण हो गए । चुनाव में छोटे छोटे दलों के छोटे-छोटे स्थानीय मुद्दे प्रभावी रहे ।
छोटे दलों की बूझ के चलते राष्ट्रीय मुद्दों का गौण हो जाना कोई शुभ संकेत नहीं था । विदेशों में चुनावों के समय बहस राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर होती है और यह देखा जाता है कि किस पार्टी के पास राष्ट्रीय दृष्टिकोण अधिक व्यापकता के साथ उपलब्ध है ? जितना राष्ट्रीय सर्व समन्वयी और समावेशी दृष्टिकोण किसी पार्टी का या राजनीतिक दल का या व्यक्ति का होता है वह उतने ही स्तर पर सबको साथ लेकर चलने का प्रयास करता है , और उसमें सफल भी होता है । परंतु जब दृष्टिकोण टुकड़ों टुकड़ों में विभाजित हो जाता है तो ऐसे दल या व्यक्ति से सबको साथ लेकर चलने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । यही कारण रहा कि भारत के राजनीतिक दलों का चिंतन अवरुद्ध और कुंठित होकर रह गया । देश की प्रगति बाधित हो गई । इस दिशा में भी भारत के चुनाव आयोग को विशेष ध्यान रखना चाहिए था । राजनीतिक दलों को अपने देश के चुनाव आयोग को इतना शक्ति संपन्न बनाना चाहिए कि वह देश के चुनावों को राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित करने में सक्षम हो सके।

15 वीं लोकसभा 

15वीं लोकसभा का गठन 2009 में हुआ । डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस 2004 से शासन करती चली आ रही थी । डॉक्टर मनमोहन सिंह अपने आप में बहुत ही विनम्र प्रधानमंत्री रहे । एक अच्छे और सफल अधिकारी थे । उनसे बड़ा कोई अर्थशास्त्री उस समय नहीं था । देश को उन जैसे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की आवश्यकता भी थी । उनके साथ दुर्भाग्य यह रहा कि कांग्रेस में उनके समानान्तर सोनिया गांधी का एक नेतृत्व काम कर रहा था जो अपने आप को सुपर प्रधानमंत्री सिद्ध करता था । सत्ता का यह केंद्र अपने आप में पूर्णतया असंवैधानिक और अनैतिक था , परंतु हमारे चुनाव आयोग की निर्बलता और कानून की अक्षमता के चलते सत्ता का यह केंद्र एक यथार्थ के रूप में यूपीए – 1 के शासनकाल में काम करने लगा । सारे कांग्रेसियों का ध्यान डॉ मनमोहन सिंह की ओर न रहकर अपने सुपर प्रधानमंत्री अर्थात सोनिया गांधी के निर्देशों की ओर रहता था । इस असंवैधानिक और अनैतिक केंद्र से जो निर्देश कांग्रेसियों को मिल जाते थे ,उन्हें व अक्षरश: पालन करने के लिए प्रयास करते थे ,जबकि अपने प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के दिशा निर्देशों को पूर्णतया उपेक्षित करने के वह अभ्यासी हो गए थे । सोनिया गांधी को सारी परिस्थितियों की भली प्रकार जानकारी थी परंतु वह स्वयं भी ऐसा ही प्रधानमंत्री चाहती थीं जो उनके लिए काम करने वाला हो । जिस कारण डॉक्टर मनमोहन सिंह का सरकार पर नियंत्रण शिथिल होता चला गया । वह कभी भी अपने आप में एक मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में काम करने में सक्षम नहीं हो पाए । सोनिया गांधी ने समानान्तर सत्ता केंद्र स्थापित किया और उन्हें दूर से रिमोट के माध्यम से सरकार चलाने लगीं । इस सब के उपरांत भी जब 2009 का चुनाव संपन्न हुआ तो डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार को लोगों ने फिर से जनादेश प्रदान कर दिया । ऐसी परिस्थितियों में 2009 में डॉक्टर मनमोहन सिंह को कांग्रेस ने अपना फिर से नेता चुना और वह देश के निरंतर दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे। मीरा कुमार को लोकसभा की अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

15 वीं लोकसभा 
2014 के आते-आते डॉक्टर मनमोहन सिंह पूर्णतया एक असहाय प्रधानमंत्री के रूप में सिद्ध हो चुके थे । कांग्रेस के भीतर जब तक सोनिया गांधी की चलती रही तब तक वह डॉक्टर मनमोहन सिंह के साथ उचित समन्वय बनाए रहीं । जिससे उनके सुपर प्रधानमंत्री होने की बात यूपीए — 1 के शासनकाल में समाचार पत्रों तक सीमित रही ।
2014 के आते-आते कांग्रेस के भीतर सोनिया गांधी के निर्णयों में हस्तक्षेप करने वाला एक उच्छ्रंखल नेतृत्व उभर कर सामने आया । निश्चय ही यह राहुल गांधी ही । थे जिन्होंने डॉ मनमोहन सिंह को यह अनुभव कराने का प्रयास किया कि वह देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं , अपितु वास्तविक सत्ता तो उनकी मां के हाथ में है । राहुल गांधी ने अपने ही प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ जैसा व्यवहार किया जिससे अब यह स्पष्ट हो गया था कि सत्ता डॉक्टर मनमोहन सिंह के हाथों में न होकर कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी के हाथों में है । 
दोनों मां-बेटे दूर से सरकार को चला रहे थे । इस स्थिति का लाभ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाना आरंभ किया । वह जनता को यह समझाने में सफल हुए कि डॉक्टर मनमोहन सिंह सत्ता नहीं चला रहे हैं अपितु कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी और उनके बेटे के द्वारा सत्ता चलाई जा रही है । सारी सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हुई है और देश निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर न होकर अवन्नति और पतन के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है, नेता लूट मचा रहे हैं और राष्ट्रहित किसी के लिए भी अब इस समय प्रमुख नहीं रह गया है। देश के लोगों ने नरेंद्र मोदी की बातों में बल अनुभव किया और उन्होंने 16वीं लोकसभा के समय मोदी को अप्रत्याशित बहुमत देकर देश की बागडोर सौंप दी । 16 वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम 16 मई 2014 को जब आए तो पता चला कि भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दलों को 336 सीटें देश के लोगों ने दीं। 26 मई 2014 को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र दामोदर मोदी ने शपथ ग्रहण की । 
2014 का चुनाव 9 चरणों में संपन्न हुआ था । इसे भारत के चुनाव आयोग ने 7 अप्रैल से 12 मई 2014 तक संपन्न कराया । 15वीं लोकसभा का कार्यकाल 31 मई 2014 तक था । अभी तक के लोकसभा के संपन्न हुए चुनावों में यह चुनावी कार्यक्रम सबसे लंबा था जिसमें संपूर्ण चुनावी प्रक्रिया 9 चरणों में पूर्ण हुई थी । इन चुनावों में 81.45 करोड मतदाताओं को भाग लेना था । जिनमें से 17,14,59,283 करोड़ मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी को अपना मत प्रदान किया । कुल पड़े मतों में से 31.1 प्रतिशत मत नरेंद्र मोदी की भाजपा को और उनके सहयोगी दलों को प्राप्त हुए । जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को मात्र 19. 4% मत ही प्राप्त हो सके। 
देश उस समय जिन परिस्थितियों से गुजर रहा था और सत्ता के केंद्र जिस प्रकार असंवैधानिक और अनैतिक रूप से सक्षम व समर्थ होकर सत्ता का दुरुपयोग कर रहे थे उस पर हमारी न्याय व्यवस्था और हमारा चुनाव आयोग कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थे । हमारे लिए आवश्यक और अपेक्षित है कि हमारा चुनाव आयोग इतना सशक्त हो कि वह ऐसे सत्ता केंद्रों को उखाड़ फेंकने में अपने आप को असहाय अनुभव न करे , जो देश की निर्वाचित सरकारों के निर्णयों में अनुचित हस्तक्षेप करते हों या उनके निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हों । न्यायपालिका को भी ऐसी परिस्थितियों में हस्तक्षेप करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए । वह अपने आप को असहाय न समझे और यदि ऐसी स्थिति परिस्थिति बन रही है कि सत्ता के अवैधानिक और अनैतिक केंद्र स्थापित हो रहे हैं तो वह उन्हें उखाड़ने की क्षमता रखती हो।

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