कश्मीर में अलगाववाद को हवा-पानी मुहैया कराने वाले पाकिस्तानपरस्त आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी नेता सैयद अहमद शाह गिलानी का यह दावा कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कश्मीर मसले पर समझौते के आश्वासन के लिए दो दूत भेजे थे, सच प्रतीत नहीं होता। उनके दावे में दम तब दिखता जब वे पुख्ता प्रमाण के साथ दूतों के नाम का खुलासा करते। लेकिन आश्चर्य है कि वह चुप हैं। ऐसे में अगर भारतीय जनता पार्टी उनके बयान को बेबुनियाद और शरारतपूर्ण बता उनसे माफी की मांग कर रही है तो अनुचित नहीं है। यह किसी भी प्रकार उचित नहीं है कि गिलानी कश्मीर मसले पर भाजपा की छवि देश में खराब करें। अगर वह सच बोल रहे हैं तो फिर दूतों के नाम के खुलासे से बच क्यों रहे हैं? देश जानना चाहता है कि जब मोदी के दूत उनसे 22 मार्च को नई दिल्ली में मिले फिर उसी दरम्यान इसका खुलासा क्यों नहीं किया? क्या वह चुनावी घमासान चरम पर पहुंचने का इंतजार कर रहे थे? चूंकि मोदी की लोकप्रियता सातवें आसमान पर है और कांग्रेस पार्टी सवालों के घेरे में, ऐसे में उनके बयान से आषंका पैदा होना स्वाभाविक है। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु और पूर्व केंद्रीय कोयला सचिव पीसी पारख की किताबों के खुलासे से तार-तार हुई प्रधानमंत्री की छवि और सवालों के कठघरे में खड़ी सोनिया गांधी से देश के लोगों का ध्यान बंटाने के लिए यह प्रलाप किए हों? इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। गिलानी को लेकर कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली सरकार की नरमी किसी से छिपी नहीं है। याद होगा गत वर्श पहले आजादी द ऑनली के सम्मेलन में गिलानी ने दिल्ली में राश्ट्रविरोधी तत्वों का जमावड़ा कर कश्मीर की आजादी की मांग करते हुए देश व संविधान के खिलाफ खूब जहर उगला। लेकिन कांग्रेसनीत सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। ऐसे में अगर गिलानी भी कांग्रेस के इशारे पर कश्मीर मसले पर भाजपा की नीति को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश किए हैं तो यह अचरजपूर्ण नहीं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी कि गिलानी ने 21 अप्रैल को पूर्ण कश्मीर बंद और 24 व 30 अप्रैल को अनंतनाग और श्रीनगर संसदीय क्षेत्र एवं 7 मई को बारामूला संसदीय क्षेत्र में बंद का आह्वान किया है। समझना होगा कि कश्मीर घाटी में उनकी प्रासंगिकता लगातार कम हो रही है ऐसे में संभव है कि वह अपनी अहमियत जताने के लिए यह बयान दिए हों।
अब जरा उनके बयान के निहितार्थों को समझने की जरूरत है। उन्होंने बयान दिया है कि मोदी के दूतों ने उनसे कहा कि वह कश्मीर मसले पर किसी समझौते के लिए अपनी सहमति दें और जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो कश्मीर मसला हल करेंगे। वे आगे कहते हैं कि मैने दोनों दूतों से कहा कि कश्मीर मसले का हल सिर्फ संयुक्त राश्ट्र की सिफारिशों के अनुरूप ही हो सकता है और कश्मीर के लोग भी इसी फॉर्मूले के पक्षधर हैं। इस बयान के दो मायने हैं। एक, गिलानी साबित करना चाहते हैं कि कश्मीर मसले का हल उन्हीं के पास है और किसी समझौते में उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दूसरा यह कि उन्हें आभास हो गया है कि दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने वाली है और मोदी ही देश के प्रधानमंत्री होंगे। गिलानी को पता है कि मोदी वादों की कसौटी पर खरा उतरते हैं। चूंकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में धारा 370 के पुराने रुख पर कायम है और संभव है कि वह धारा 370 की समाप्ति की दिषा में आगे बढ़े। गिलानी को डर है कि अगर ऐसा हुआ तो फिर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की उनकी मंशा पर पानी फिर जाएगा। साथ ही उन्हें आतंकियों को मदद पहुंचाने का भी खेल बंद करना होगा। उन्हें इस बात का भी डर है कि राष्ट्रविरोधी हरकतों के लिए उन्हें दंड भी मिल सकता है। कहीं गिलानी का बयान इन्हीं चिंताओं को समेटे हुए तो नहीं? इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। समझना होगा कि गिलानी अपने बयान से जम्मू-कश्मीर मसले को हवा देकर खुद को प्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि जम्मू-कश्मीर समस्या के हल में उन्हें नजरअंदाज न किया जाए। लेकिन गिलानी कोई राष्ट्रभक्त नहीं जो उन्हें अहमियत दिया जाना जरूरी हो। वे अलगाववादियों के सरगना और शांति के दुश्मन हैं। उनकी सोच सांप्रदायिक और भारतीय संप्रभुता के खिलाफ है। उनकी कोशिश रही है कि घाटी से अल्पसंख्यक समुदाय पलायित हो। विगत साढ़े तीन दशक में घाटी से दो तिहाई अल्पसंख्यक समुदाय पलायित हुआ है। गत वर्ष किश्तवाड़ की हिंसा में अल्पसंख्यक समुदाय के कई लोगों को मौत के घाट उतारा गया। उनके घरों को लूटकर आग लगा दी गयी। शेष बचे लोगों पर घाटी छोड़ने का दबाव बनाया जा रहा है। गिलानी धारा 370 के हिमायती और अफस्पा कानून के विरोधी हैं। वे नहीं चाहते कि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 समाप्त हो और वहां अमनचैन वापस आए। लेकिन सच्चाई है कि धारा 370 कश्मीरियों के विकास में उपयोगी कम समस्याएं ज्यादा पैदा की है। इस संवैधानिक विशेषाधिकार का कुपरिणाम है कि कश्मीरी पंडितों का सारा संवैधानिक अधिकार सार्वजनिक रूप से छिन गया है। मजहबी उन्मादियों और पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों ने कष्मीरी पंडितों या गैर इस्लामवादियों को घाटी छोड़ने को मजबूर किया है। दिल्ली में लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित खानाबदोशों की तरह जिंदगी गुजार रहे हैं। इस संवैधानिक प्रावधान से घाटी में अलगाववादी शक्तियों की ताकत बढ़ी है। कानून-व्यवस्था के हालात बदतर हुए हैं। प्रषासन की नाकामी की वजह से पिछले वर्ष आतंकियों के डर से कई दर्जन पंचायत प्रतिनिधियों ने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा न देने वाले सरपंचों का सिर कलम किया गया। फिर धारा 370 के क्या फायदे हैं? यह विडंबना है कि आजादी के साढ़े छः दशक गुजर जाने के बाद भी भारतीय संविधान जम्मू-कश्मीर तक नहीं पहुंच है। आज भी जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान व झंडा है। जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय के पास सीमित शक्तियां हैं और वह जम्मू-कश्मीर के कोई भी कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं कर सकता।
भारतीय संविधान की भाग 4 जिसमें राज्यों के नीति-निर्देशक तत्व हैं और भाग 4ए जिसमें नागरिकों के मूल कर्तव्य हैं वह भी जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर की सरकार भले ही राष्ट्रीय एकता और अखंडता के खिलाफ कार्य करें, राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है। संविधान की धारा 356 और धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है वह भी जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता। 1976 का शहरी भूमि कानून भी लागू नहीं है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग यहां जमीन खरीद कर बस नहीं सकते और न ही कोई उद्योग-धंधा लगा सकते। उद्योग-धंधे और कल-कारखाने के अभाव में घाटी में बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है। तीन लाख से अधिक बेरोजगार हैं। सरकार उन्हें रोजगार देने में असमर्थ है। धारा 370 के प्रावधानों के कारण कोई भी निवेशक यहां पूंजी लगाने को तैयार नहीं। भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची जो अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित है और छठी अनुसूची जो जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में है वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता। देश भर में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के लोगों को सरकारी सेवाओं और व्यवस्थापिका में आरक्षण मिल रहा है लेकिन जम्मू-कश्मीर का यह वर्ग अपने अधिकारों से वंचित है। यही नहीं यहां की आधी आबादी यानी महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार भी हासिल नहीं है। धारा 370 के तहत यह व्यवस्था है कि अगर कोई कश्मीरी लड़की किसी गैर-कश्मीरी भारतीय लड़के के साथ विवाह करती है तो उसे कश्मीर की नागरिकता से वंचित ही नहीं, सभी अधिकारों से भी हाथ धोना पड़ेगा। गौरतलब है कि मोदी ने जम्मू की रैली में इस सवाल को उछाला था और उसके बाद धारा 370 पर बहस तेज हुई थी। चूंकि धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों को लगने लगा है कि मोदी का प्रधानमंत्री बनना तय है और वे जम्मू-कश्मीर की समस्या के हल की दिषा में निर्णायक पहल कर सकते हैं, ऐसे में गिलानी का अपना महत्व जताना समझ से परे नहीं है। लेकिन उनका झूठ पकड़ लिया गया है।