गीता का कर्मयोग और आज

गीता का कर्मयोग और आज
राकेश कुमार आर्य

गीता का अठारहवां अध्याय
अधर्म को धर्म समझ लेना घोर अज्ञानता का प्रतीक है। मध्यकाल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने और सुल्तानों ने अधर्म को धर्म समझकर महान नरसंहारों को अंजाम दिया। ये ऐसे नरसंहार थे -जिनसे मानवता सिहर उठी थी। वास्तव में ये कार्य तामसी बुद्घि के कार्य थे। ऐसे लोगों से संसार को सदा इस बात का भय बना रहता है कि ये कभी भी मानवता के लिए कोई भी ऐसी आफत खड़ी कर सकते हैं-जिससे मानव जाति का विनाश तक होना सम्भव है।
गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-100
त्रिविध धृति और गीता
धारण करने की मानसिक शक्ति या मन के दृढ़ निश्चय को ‘धृति’ कहा जाता है। धर्म के दस लक्षणों में धृति का अभिप्राय धीरज और धैर्य बनाये रखने से भी लिया गया है। श्रीकृष्णजी ‘धृति’ के विषय में बताते हुए अर्जुन से कह रहे हैं कि हे पार्थ! जिस ‘धृति’ के द्वारा मनुष्य मन, प्राण, इन्द्रियां, इन सबकी गतिविधियों को एक केन्द्र में टिकाए रखता है-अर्थात इन्हें स्वच्छन्दी नहीं होने देता, इनकी स्वतंत्रता को मर्यादा और अनुशासन में रखना सीख लेता है-इन्हें आत्मानुशासन में रखने का अभ्यासी हो जाता है और इनके द्वारा कोई भी उत्पात नहीं होने देता है-वह ‘धृति’ सात्विक होती है। स्पष्ट है कि यह ‘धृति’ सर्वोत्तम है। यह धारण करती है, धैर्य और धीरज के साथ सब कुछ संपन्न होने देती है। इस सात्विक ‘धृति’ के होने से लोगों का परस्पर समन्वय और सद्भाव बढ़ता है, एक दूसरे के प्रति सम्मैत्री, सहिष्णुता और करूणा उत्पन्न होती है, जिससे मनुष्य मनुष्य के काम आता है और सारा संसार मनुष्यों के परस्पर के सुन्दर व्यवहार से स्वर्गसम बन जाता है।
राजसिक ‘धृति’ पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि जिस ‘धृति’ के द्वारा मनुष्य धर्म, अर्थ, काम-इनके साथ चिपका रहता है, फल की इच्छा बनाये रखता है-हे पार्थ! वह ‘धृति’ राजसिक होती है। राजसिक बुद्घि में रहने वाले व्यक्ति गर्वीले और अहंकारी होते हैं। ये अपने गर्व और अहंकार के वशीभूत होकर कोई भी अनुचित कार्य कर सकते हैं।
स्पष्ट है कि सात्विक धृति में मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों का सुन्दर समन्वय बना लेता है, जबकि राजसिक धृति में मनुष्य से मोक्ष छूट जाता है। इसका कारण यही है कि मनुष्य धर्म, अर्थ, काम इन तीनों के चक्कर में फंसकर रह जाता है। वह किसी भी बात पर स्पष्ट नहीं हो पाता। इसीलिए यहां पर श्रीकृष्णजी ने यह कहा है कि ऐसा मनुष्य धर्म, अर्थ, काम के साथ चिपका रहता है। चिपकना एक बीमारी है और छूटना इस बीमारी से मुक्ति पा लेना है। यह मुक्ति सात्विक ‘धृति’ में है, राजसिक ‘धृति’ में तो चिपकना आ गया। जिससे स्पष्ट है कि मनुष्य किसी बीमारी की आफत में फंस गया। आजकल संसार के लोग इसी राजसिक ‘धृति’ की बीमारी में फंसे हुए हैं, इसी में चिपके हुए हैं। इन्हें मुक्ति की आवश्यकता है। इन लोगों की मानसिकता, सोच और विचार सभी कुछ राजसिक हो चुका है। अपनी राजसिक प्रवृत्ति के कारण ही सम्पूर्ण समाज अराजकता से ग्रस्त है। सर्वत्र अशान्ति का वातावरण है। संसार को शान्ति चाहिए, जिसके लिए इसे सात्विक ‘धृति’ की शरण में जाना होगा। पर दुर्भाग्यवश संसार के लोग धर्म, अर्थ, काम में चिपकने को ही अपने जीवन की सार्थकता मान रहे हैं। जिससे इनके जीवन में अशान्ति है, कोलाहल है।
तामसिक धृति पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को बताया कि-हे पार्थ! जिस ‘धृति’ के द्वारा मूर्ख मनुष्य निद्रा, भय, शोक, विषाद, मद-इनको नहीं त्यागता, वह धृति तामसिक होती है। इस प्रकार की ‘धृति’ से मनुष्य का कभी भी कल्याण नहीं हो सकता।
सात्विक, राजसी, तामसी, हैं धृति के भेद।
सात्विकता में श्रद्घा बसे, तामसी करती छेद।।
तामसिक धृति में मनुष्य की मूर्खता सर्वत्र झलकती है। यह तामसिक ‘धृति’ मनुष्य का कल्याण नहीं होने देती। वह चाहकर भी अपनी मूर्खता से बनायी गयी अपनी ही दुनिया से निकल नहीं पाता। उसी में घिरकर छंटपटाकर वह मर जाता है। वह यह भी नहीं समझ पाता कि संसार में आकर अमृतत्व नाम की चीज क्या होती है? इसका कारण यही है कि वह संसार के दुर्गुणों और दुव्र्यसनों में फंसकर रह जाता है और उन्हीं में फंसकर जीवनान्त कर लेता है।
स्पष्ट है कि तामसिक ‘धृति’ सबसे निकृष्ट होती है। इस प्रकार की ‘धृति’ के लोगों की संसार में कमी नहीं है। संसार के तथाकथित सभ्य लोगों के लिए गीता का आवाह्न है कि वे तामसिक ‘धृति’ और राजसिक ‘धृति’ में रहने वाले लोगों के कल्याण के लिए कोई कार्य करे। संसार की बहुत सी राजनीतिक व्यवस्थाओं ने लोगों के ‘वोट’ प्राप्त करने के लिए आरक्षण जैसी बीमारी समाज में परोसी है-पर कोई राजनीतिज्ञ ऐसी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित कर सकता है जो इन तामसिक ‘धृति’ और राजसिक ‘धृति’ वालों का कल्याण कर सके और इन्हें आरक्षण देकर पीछे से उठाकर आगे लाकर पटक सके?-संभवत: किसी के भी पास ऐसी कोई औषधि या नीति नहीं है-जिसके आधार पर इन तामसिक ‘धृति’ और राजसिक ‘धृति’ वाले लोगों का कल्याण हो सके।
गीता स्पष्ट करती है कि सात्विक’धृति’ को अपनाकर संसार के सभी लोगों का कल्याण हो सकता है। श्रीकृष्णजी ने सात्विक धृति को लेकर यह नहीं कहा है कि ये किसी वर्ग विशेष की या किसी कुल विशेष के लोगों की निजी सम्पत्ति है। इसके विपरीत उन्होंने सात्विक धृति को सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध रहने की बात कही है। जिससे स्पष्ट है कि जिसे अपनाकर सभी लोगों का कल्याण हो सकता है।
त्रिविध सुख और गीता
श्रीकृष्णजी अब अर्जुन को त्रिविध सुख के विषय में बताने लगे हैं। वह कहते हैं कि हे भरतकुल श्रेष्ठ! अब तू मुझसे तीन प्रकार के सुखों के विषय में सुन, ऐसे सुख के विषय में जिसमें दीर्घकाल तक रहने के कारण मनुष्य रम जाता है और जिसमें उसके दु:खों का अन्त हो जाता है। उनमें सबसे पहले सात्विक सुख का स्थान है जिसके विषय में गीता का मानना है कि सात्विक सुख प्रारम्भ में तो विष जैसा प्रतीत होता है, क्योंकि इसके प्रारम्भ में मनुष्य को अनेक प्रकार की परीक्षाओं के कष्टों से गुजरना होता है, परन्तु अन्त में यह सुख अमृत के समान होता है, जो आत्मनिष्ठ बुद्घि के प्रसाद से प्राप्त होता है। इस प्रसाद को पाकर पाने वाले का जीवन धन्य हो जाता है। जो लोग आत्मनिष्ठ बुद्घि के स्वामी होते हैं-और जिनकी साधना इतनी ऊंची और पवित्र होती है-वे इस सुख को बड़ी सहजता से प्राप्त कर लेते हैं।
जो सुख विषय तथा इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, जो प्रारम्भ में तो अमृत के समान लगता है, परन्तु परिणाम में विष के समान होता है-वह सुख राजसिक है। श्रीकृष्ण जिस सुख को राजसिक कह रहे हैं-वही वह सुख है जिसे पाकर आज का संसार दु:खों के सागर में डूबता जा रहा है। इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न सुख को संसार के लोग प्रारम्भ में अमृत समझकर पाने का प्रयास करते हैं-पर अन्त में उन्हें पाने की चाह में स्वयं ही मिटकर रह जाते हैं।

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