“सृष्टिकर्ता ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है वेद और संस्कृत भाषा”

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मनमोहन कुमार आर्य,

संसार में दो प्रकार की रचनायें देखने को मिलती है। एक अपौरूषेय और दूसरी पौरूषेय रचनायें। अपौरूषेय रचनायें वह होती हैं जो मनुष्यों के द्वारा असम्भव होने से नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए सूर्य, चन्द्र व पृथिवी सहित पृथिवी पर वायु, जल, अग्नि आदि की उत्पत्ति मनुष्य कदापि नहीं कर सकते। यह रचनायें अपौरूषेय कहलाती हैं। जो रचनायें मनुष्य पृथिवी पर उपलब्ध पदार्थों को लेकर कर सकते हैं उन्हें पौरूषेय रचनायें कहते हैं। इन रचनाओं में कृषि के उत्पाद, भवन निर्माण, भोजन व वाहन, तथा वस्त्र सहित देश विदेश में उद्योगों में मनुष्यों के उपयोग व लाभ की जो भी सामग्री बनती है वह सब पौरूषेय रचनायें होती हैं। हमारा यह ब्रह्माण्ड और सभी अपौरूषेय रचनायें ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में रची हैं और वही अपने बनाये नियमों के अनुसार उनकी व्यवस्था वा रखरखाव कर रहा है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों व पशु-पक्षियों के माता-पिता न होने के कारण ईश्वर अमैथुनी सृष्टि करता है। अमैथुनी सृष्टि में जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं उनको अपनी दिनचर्या सुचारू रूप से चलाने के लिए ज्ञान व भाषा की आवश्यकता होती है। बिना ज्ञान व भाषा के मनुष्य अधिक समय तक अपने जीवन को चला नहीं सकता। सृष्टि के आदि काल में मनुष्यों को गुरुओं व अध्यापकों की आवश्यकता होती है परन्तु तब यह आचार्यादि उपलब्ध नहीं होते। ऐसी स्थिति में एक ही विकल्प होता है कि परमात्मा आदि सृष्टि में उत्पन्न किये गये मनुष्यों में से कुछ को व सबको ज्ञान व भाषा दे जिससे उनको अपने कर्तव्यों का ज्ञान होने के साथ वह अपने जीवन को सुचारू रूप से संचालित कर सकें।

 

विचार मंथन करने पर यह सिद्ध होता है कि परमात्मा ने ज्ञान व भाषा की पूर्ति के लिए ही चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमशः चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। वेदों का ज्ञान परमात्मा की ही तरह पवित्र, सृष्टि क्रम व विज्ञान के सर्वथा अनुरूप है। इस वेदज्ञान में ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरूप का प्रकाश किया गया है। मनुष्यों के अपने प्रति तथा समाज व देश के प्रति क्या कर्तव्य होते हैं, इनका ज्ञान भी वेदों से होता है। वेदों का ज्ञान सर्वांगीण ज्ञान है। इस ज्ञान से मनुष्यों में वह क्षमता उत्पन्न हो जाती है कि वह चिन्तन व मनन करते हुए मनुष्यों के लिए आवश्यक सभी प्रकार का ज्ञान व विज्ञान विकसित व उन्नत कर सकते हैं। ऐसा ही अतीत में भी हुआ था और आधुनिक काल में भी हुआ व हो रहा है। भाषा से मनुष्यों में विचार कर सत्यासत्य को जानने की क्षमता आ जाती है जिससे वह अपने परिवार व समाज के लोगों के साथ आपस की समस्याओं पर वार्तालाप कर एक दूसरे के सहयोग से उनके समाधान ढूंढ सकते हैं।

 

परमात्मा से सृष्टि की आदि में ऋषियों वा मनुष्यों को जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह चार वेद और उनकी भाषा संस्कृत है। संस्कृत भाषा महाभारतकाल व उसके बाद कुछ सौ वर्षों तक देश व विश्व में विद्यमान रही है व कहीं कहीं अब भी है। भारत में तो संस्कृत के अध्ययन वा ज्ञान के लिए अनेक गुरुकुल एवं विद्यालय चल रहे हैं। महाविद्यालयों में भी संस्कृत का अध्ययन कराया जाता है। प्रति वर्ष अनेको लोग वेद व संस्कृत विषयों को लेकर शोध उपाधियां प्राप्त करते हैं। उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पूर्व एक न्यायाधीश महोदय ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपना निर्णय संस्कृत भाषा में दिया था। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारतकाल तक की लम्बी अवधि में देश-विदेश में बड़ी संख्या में ऋषि व विद्वान होते थे जो संस्कृत बोलने व लिखने आदि के ज्ञान सहित वेद व वैदिक ग्रन्थों को समझने व दूसरों को पढ़ाने कीयोग्यता रखते थे। अनेक ऋषि दर्शन व उपनिषदों के रचयिता भी रहे हैं। महाभारतकाल के बाद देशवासियों मुख्यतः ब्राह्मणों के आलस्य व प्रमाद के कारण संस्कृत भाषा का पतन होने लगा और इस भाषा में विकार होकर अनेक बोलियों की उत्पत्ति हुई। स्थान की दूरी व भौगोलिक अनेक कारणों से कुछ बोलियों ने कालान्तर में स्वतन्त्र भाषा का स्थान भी ले लिया। वर्तमान में हमें संस्कृत समझने में कठिनाई होती है परन्तु हमारा सौभाग्य है कि संस्कृत व आर्य भाषा हिन्दी की देवनागरी लिपि एक ही है। इस कारण हिन्दी भाषी व्यक्ति संस्कृत को पढ़ सकता है वा पढ़ कर बोल भी सकता है। संस्कृत के अनुवादों के माध्यम से पाठक संस्कृत ग्रन्थों के तात्पर्य, पदार्थों व भावार्थों को भी जान सकता है। हम देवनागरी लिपि व हिन्दी भाषा जानते हैं। इसकी सहायता से हम वेदमन्त्रों का उच्चारण कर सकते हैं और वेद-भाष्यों के द्वारा वेद-मन्त्रों के अर्थ व भावार्थों को भी जान सकते हैं।इस लेख में हम कहना चाहते हैं कि वेद और संस्कृत सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, सर्वाव्यापक, सर्वान्तर्यामी ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान व भाषा है। ईश्वर इस संसार का रचयिता है और हमें मनुष्य जन्म भी उसी ने दिया है। संसार के सभी मनुष्य व प्राणी अपने रचयिता ईश्वर के ऋणी हैं। वही हमें हमारे शुभ कर्मों को करने पर सुख देता है। जब हम पाप करते हैं तो परमात्मा अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार उन कर्मों के दुःखरूपी फल देता है। ईश्वर शिव व मंगलकारी है। अपने परम हितैषी एवं कल्याण करने वाले उस परमात्मा के ज्ञान व भाषा का हमें आदर करना चाहिये। वेदज्ञान व संस्कृत भाषा दिव्य परमात्मा की दिव्य सम्पत्तियां हैं। हमें वेद के एक-एक शब्द को उसके अर्थ सहित तथा पूरे वेद के तात्पर्य को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करने पर ही हम माता-पिता-आचार्य से भी अधिक उपकारी परमात्मा के योग्य पुत्र कहला सकते हैं। यदि हम वेदों का अध्ययन नहीं करेंगे और वेदों की भाषा संस्कृत की भी उपेक्षा करेंगे तो यह हमारी ईश्वर के प्रति कृतघ्नता होगी। किसी भी विज्ञ व विप्र मनुष्य को कृतघ्न नहीं होना चाहिये। ईश्वर वास्तविक रूप में हमारा माता, पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है। हमें अपने सर्वतोमहान उस ईश्वर वा परमात्मा के प्रति श्रद्धा व निष्ठा व्यक्त करते हुए वेदज्ञान का न केवल स्वयं अध्ययन करना है अपितु स्वयं अध्ययन कर इससे अपने अन्य बन्धुओं को भी लाभान्वित कराना है। ऐसा होने पर ही हम ईश्वर के प्रति निष्ठावान होने से दुःखों से दूर रहेंगे और इससे हमारा, समाज व विश्व का सर्वविध कल्याण होगा।परमात्मा ने ही मानव शरीर बनाया और उसी ने वेदों का ज्ञान दिया। परमात्मा जानता है कि वेदों के उच्चारण के लिए मनुष्यों को किस प्रकार के मुख, तालु, जिह्वा, नासिका, कण्ठ व उदर आदि की आवश्यकता होगी। जैसी मनुष्य शरीर की क्षमता व सामर्थ्य है वैसे ही वेद के पद व मन्त्र आदि हैं जिनका मनुष्य सरलता व मधुरता से उच्चारण कर सकता है। बहुत से मन्त्र तो इतने सरल हैं कि हिन्दी भाषी व्यक्ति भी उनके अर्थों को जान लेता है। मन्त्रों के भाष्य व अनुवाद से भी उसे वेद के शब्द व उनके अर्थ सरलता से समझ में आते हैं एवं वह स्मरण हो जाते है। वेद की भाषा संस्कृत का छन्दोबद्ध व स्वरों से युक्त होना भी इसे ईश्वरीय भाषा व ज्ञान सिद्ध करते हैं। वेद के सभी पद धातुज व यौगिक हैं। इससे भी वेद के शब्दों व भाषा का अन्य भाषाओं जिनके सभी शब्द रूढ़ हैं, विशेषता व महत्व का ज्ञान होता है।

 

वेद-ज्ञान अविद्या से सर्वथा रहित है। वेद पूर्ण ज्ञान है। सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थ विद्या की दृष्टि से वेद की तुलना में तुच्छ है। यह अन्तर वैसा ही है जैसा कि अपौरूषेय व पौरूषेय रचनाओं में होता है। वेदों से मनुष्य की सभी शंकाओं का समाधान होता है। वेदज्ञान से हमें ईश्वर व आत्मा के ज्ञान सहित अपने कर्तव्यों, जीवन के उद्देश्य व ईश्वरोपासना आदि का ज्ञान सहित अन्य अनेक लाभ भी विदित होते हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य अविद्या का नाश करना व विद्या की उन्नति करना है। ईश्वर की उपासना से अपने दुर्गुणों का त्याग कर ईश्वर के गुणों के सदृश्य सद्गुणों को धारण करना है। प्राणीमात्र का हित व कल्याण करना भी हम सबका उद्देश्य व कर्तव्य है। इन सब कार्यों से मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि होती है। मोक्ष ही सभी जीवात्माओं का अन्तिम लक्ष्य है। जो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं और बहुत दीर्घ अवधि के लिए उसका जन्म व मरण का चक्र रुक जाता है। जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुख व आनन्द को भोगता है।

 

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