–मनमोहन कुमार आर्य
यह सारा संसार ईश्वर की कृति है और सभी प्राणी अपने अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए मनुष्यादि अनेक योनियों में ईश्वर द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। सभी प्राणियों को जन्म व मृत्यु भी ईश्वर ही प्रदान करता है जिसका आधार हमारे पूर्वजन्मों के कर्म होते हैं। हमने अपने पूर्वजन्मों में जो कर्म किये हैं, उनके फल भोगने के लिये ईश्वर ने हमें यह जन्म दिया है। हमने अधिकांश अच्छे व कुछ अशुभ कर्म किये होंगे इसीलिये हमें मनुष्यजन्म मिला है। हम इस जन्म में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भोग रहे हैं। मनुष्य योनि उभय योनि है। इस योनि में हम शुभाशुभ कर्म करते भी हैं और अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का फल भी भोगते हैं। इस मनुष्य जन्म में हम जो कर्म करते हैं वह दो श्रेणी के होते हैं। प्रथम क्रियमाण कर्मों का फल हमें इसी जन्म में मिल जाता है और दूसरे संचित कर्म वह कर्म होते हैं जिनका फल हमें अगले जन्म अर्थात् पुनर्जन्म होने पर मिलेगा। मनुष्य से इतर अन्य पशु, पक्षी आदि सभी योनियां भोग योनियां हैं। इन योनियों में जन्म का कारण यह होता है कि उनके कर्मों के खाते में आधे से अधिक कर्म अशुभ व पाप कर्म थे इसलिये उन्हें मनुष्य जन्म न मिल कर उनकी योनि में जन्म मिला जहां वह अनेक प्रकार के दुःख भोग रहे हैं। यदि देश की जेलों की चर्चा करें तो मनुष्य उत्तम जेल में हैं जहां अनेक सुख सुविधायें भी हैं इसे ए श्रेणी की जेल कह सकते हैं। पशु-पक्षी-कीट-पतंग आदि इतर योनियां बी व सी श्रेणी की जेलें हैं जहां जीवात्मायें अपने कर्मों के अनुसार कुछ सुख व अधिकांश दुःख भोग रही हैं। दुःख इस प्रकार से कि उन्हें सोचने के लिए मनुष्यों के समान न तो बुद्धि दी गई है और न ही बोलने के लिये वाणी। उनके पास हमारी तरह से हाथ भी नहीं है। वह प्रायः मनुष्य की तुलना में अल्पायु होते हैं। मनुष्य योनि में अन्य अनेक प्रकार की सुविधायें हैं जो पशु-पक्षियों की योनियों में नहीं हैं। ईश्वर ने यह विधान अपनी सर्वव्यापकता, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सबका साक्षी और अपने अय्र्यमा अर्थात् न्यायाधीशस्वरूप व शक्ति के आधार पर किया है।
ईश्वर मे अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव हैं। इसके अनुसार उसके गुणवाचक, कर्मवाचक तथा स्वभाववाचक नामों सहित सम्बन्ध वाचक नाम भी होते हैं। ईश्वर का एक नाम ‘अर्यमा’ है। ऋषि दयानन्द अपने ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं कि जो सत्य न्याय के करनेहारे मनुष्यों का मान्य और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य–सत्य नियमकर्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम ‘अर्यमा’ है। इससे यह ज्ञात होता है कि ईश्वर न्यायकारी व ब्रह्माण्ड के अनन्त जीवों का अकेला न्यायाधीश है। अन्तर्यामी रूप से सभी आत्माओं का साक्षी होने से कोई भी प्राणी व जीव परमात्मा के सत्य न्याय से बच नहीं सकता है। यदि कोई व्यक्ति मनुष्य योनि में छुप कर कोई अशुभ कर्म, अन्याय, शोषण, अत्याचार या पाप कर्म करता है तो वह ईश्वर से नहीं छिप पाता और सर्वशक्तिमान होने के कारण उस मनुष्य को ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार उसका उपयुक्त फल, अच्छे कर्म के लिये पारितोषिक और बुरे कर्म के लिये दण्ड, यथासमय मिलता है। कर्म-फल सिद्धान्त पर आधारित प्रसिद्ध शास्त्रीय पंक्तियां हैं ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।’ अर्थात् मनुष्य को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मो का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। वह इससे बच नहीं सकता। यह इस लिये सम्भव होता है कि ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, आलस्य व निद्रा से रहित जागृत, सावधान व सजग रहता है।
मनुष्य के मन में एक स्वाभाविक प्रश्न होता है कि वह कौन है, यह संसार कब, किसने, कैसे व क्यों बनाया? इसका सन्तोषजनक उत्तर वैदिक धर्म और ऋषि दयानन्द जी के साहित्य में मिलता है जिससे मनुष्य का पूर्ण समाधान हो जाता है। मनुष्य एक चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, अविनाशी, अमर, नित्य, ससीम, एकदेशी, शाश्वत व सनातन जीवात्मा है। ईश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अनन्त, निर्विकार, अनुपम, जीवों के कर्मों का फलदाता तथा सृष्टिकर्ता आदि असंख्य गुणों से विभूषित है। मनुष्य का शरीर जड़ है और वह सृष्टि के पंचभौतिक तत्वों व पदार्थों से मिलकर बना है। शरीर नाशवान है परन्तु इसके भीतर जो चेतन जीवात्मा है वह अनादि व अमर है और कर्मानुसार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता रहता व शरीर बदलता रहता है। शरीर का बदलना ईश्वर के आधीन है और वह जीवात्मा के मनुष्य योनि के कर्मों के अनुसार परमात्मा से मिलता है। सभी जीवात्माओं व हमारे इस जन्म से पूर्व भी अनन्त बार अनेक वा प्रायः सभी योनियों में कर्मानुसार जन्म हो चुके हैं और यइ सिलसिला व परम्परा अन्तहीन है, सदैव चलती रहेगी। सृष्टि की प्रलय व उत्पत्ति होती रहेगी और हमारी आत्मा अपने शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर की कृपा, न्याय और दया से जन्म लेती रहेंगी और इस प्रकार से सृष्टि-प्रलय व जन्म-मृत्यु का क्रम अनन्त काल तक चलता रहेगा।
हम जिस संसार व सृष्टि में रह रहे हैं उसे 1.96 अरब वर्ष पूर्व ईश्वर ने आरम्भ किया है। उसी ने इस पूरे ब्रह्माण्ड को बनाया और सभी प्राणियों को जन्म दिया और यह क्रम आदिकाल से निरन्तर चल रहा है। सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ, इसका उत्तर है कि ईश्वर सर्वज्ञ व सर्वव्यापक है। उसको एक वैज्ञानिक की तरह सृष्टि की उत्पत्ति का पूर्ण व यथोचित ज्ञान है। वह इस सृष्टि को बनाने से पूर्व भी अनन्त बार ऐसी ही सृष्टि को बना चुका है और आगे भी बनायेगा। हम प्रतिदिन एक लेख लिखते हैं तो इससे यह अनुमान होता है कि हम आगे भी यह कार्य करते रहेंगे। हम आज लेख लिख रहे हैं तो इसका कारण हमें पूर्व का अभ्यास होना भी है। इस नियम के अनुसार परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया और चला रहा है। इससे यह ज्ञान होता है कि उसने इससे पूर्व भी अनेक बार ऐसी सृष्टियों को बनाया है और आगे भी बनायेगा। अतः यह सृष्टि इसके निमित्तकारण ईश्वर से उत्पन्न हुई है। परमात्मा ने इसे सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म जड़ प्रकृति से बनाया है जो ईश्वर के नियंत्रण में रहती है। सृष्टिकर्ता ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान होने से सृष्टिरचना एवं इसके पालन आदि का कार्य अपने स्वभाव के अनुकूल अनादि काल से करता आ रहा है व करता रहेगा।
एक प्रश्न यह है कि यह सृष्टि क्यों व किसके लिये बनाई गई है? इसका उत्तर है कि अनन्त जीव ईश्वर की सन्तान व प्रजा हैं। उन्हें सुख व मोक्ष का आनन्द देने के लिये ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न करने के साथ पालन करते हैं और यथा समय इसकी प्रलय करते हैं। इस विषय का पूरा ज्ञान ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में दिया है। जिज्ञासु बन्धुओ ंको सत्यार्थप्रकाश पढ़ना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश में दिया गया ज्ञान हमें परमात्मा के ज्ञान वेदों सहित ऋषि दयानन्द के पूर्ववर्ती ऋषियों के ग्रन्थों आदि से होकर प्राप्त हुआ है। मनुष्य का जन्म सत्यासत्य को जानने सहित विद्या प्राप्त कर सत्य का आचरण करने तथा कर्मफल बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए हुआ है। जो मनुष्य बिना वेद विद्या को जाने सांसारिक ज्ञान की पुस्तकों के ज्ञान को प्राप्त कर धनोपार्जन में ही लगे रहते हैं वह अपने इस दुर्लभ मनुष्य जीवन का सदुपयोग करने के स्थान पर स्वयं को दुःखरूपी बन्धनों में ही बांधते हैं। मनुष्य जीवन में ईश्वरोपासना सहित अग्निहोत्र आदि पंच महायज्ञों का करना अति महत्वपूर्ण है। जो मनुष्य इन कर्तव्यों का पालन करते हैं, वह धन्य हैं और उनका परजन्म सुधर रहा है। यह बात वेद के प्रमाणों व ऋषि मुनियों के ग्रन्थों से स्पष्ट विदित होती है जिसकी स्वीकृति शास्त्रज्ञ ज्ञानी लोग भी देते हैं।
हम शरीर नहीं अपितु जीवात्मा हैं। शरीर तो हमें ईश्वर ने शुभ व पुण्य कर्म करने के लिये साधन व उपकरण के रूप में दिया है। हमें इसका सदुपयोग ईश्वर की भावना व अपेक्षाओं के अनुरूप करना है। ईश्वर हमारा स्वामी है व हम उसके सेवक हैं। जीवात्मा और ईश्वर का व्याप्य–व्यापक सम्बन्ध है। ईश्वर हमारा माता, पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। हम सत्य पोषित कर्मों वा सत्याचारण करेंगे तो हम ईश्वर से पुरस्कृत होंगे और वेद निषिद्ध कर्मों को करेंगे तो ईश्वर से दण्डित होंगे। हमारे शरीर में जो बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़, वृद्ध आदि अवस्थायें आ जा रही हैं यह सब ईश्वर की देन व व्यवस्थायें हैं। संसार में यह सिद्धान्त सृष्टि की आदि से विद्यमान है कि जिसका जन्म व उत्पत्ति होगी उसकी मृत्यु व नाश भी अवश्य होगा। हमें भी कालान्तर व भविष्य में मृत्यु को प्राप्त होना है। तब हमारा अर्थात् हमारी आत्मा का क्या होगा, इस पर हमें विचार करना चाहिये। इसका यही उत्तर है कि हमारा पुनर्जन्म होगा और उसका आधार हमारे इस जीवन के वह कर्म होंगे जिसका हमने भोग करना है। पुण्य व पाप दोनों प्रकार के कर्मों के संस्कार हमारी आत्मा पर रहते हैं और ईश्वर के ज्ञान में भी विद्यमान रहते हैं। कृत कर्मों का फल बिना भोगे हमारे कर्मों का क्षय नहीं होगा। शुभ कर्मों के परिणाम से हमें सुख मिलेगा और अशुभ व पाप कर्मों से हमें दुःख भोगना होगा। ईश्वर न्यायाधीश है। किसी जीवात्मा का कोई कर्म कभी उसकी दृष्टि से बचा नहीं है। हमने अपने एक वैदिक विद्वान् मित्र को रुग्णावस्था में चिकित्सक के सम्मुख यह कहते देखा व सुना था कि मैंने इस जन्म में कोई पाप कर्म किया हो, यह मुझे स्मरण नहीं है और पूर्वजन्म के कर्मों का मुझे ज्ञान नहीं है। उनका संकेत था कि मेरी बीमारी पूर्वजन्मों के कारण हो सकती है। हमें दोनों ही सम्भावनायें लगती हैं। पूर्वजन्म व इस जन्म दोनों के कर्म हो सकते हैं हमारे जीवन में होने वाले सुख व दुःखों के कारण। वैदिक धर्म और आर्यसमाज के विद्वान कर्मफल सिद्धान्त पर पूर्ण आस्था रखते आये हैं। इसका कोई विकल्प है ही नहीं। देश व विश्व के जो अधिकांश लोग अपनी अज्ञानतावश कर्म-फल सिद्धान्त की उपेक्षा करते हैं उन्हें भी अपने पाप कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यदि दुष्ट काम करने वाले कर्मफल-रहस्य को जान लें तो वह सभी हिंसा का त्याग कर देंगे, ऐसा अनुमान होता है। ज्ञानी मनुष्य इसीलिए पाप नहीं करते क्योंकि वह पापों के परिणाम दुःखों से बचना चाहते हैं। पाप कर्म हम तभी करते हैं जब हमें उन कर्मों से होने वाले दुःखों का ज्ञान नहीं होता। पानीपत के पास की एक पुरानी घटना है। पराधीनता काल में एक मन्दिर में आर्यसमाज के विद्वान पं. गणपति शर्मा कथा कर रहे थे। कथा कर्मफल सिद्धान्तों पर चल रही थी। वहां मुगला नाम का एक इनामी डाकू डाका डालने जा रहा था। पंडित जी बोल रहे थे कि जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है। कोई कर्म के फल से बच नहीं सकता। यह शब्द डाकू के कानों में पड़ गये। उसने अपने साथियों को अपनी कार्यवाही करने से रोक दिया और मन्दिर में आकर पंडित जी का प्रवचन सुनने लगा। कथा समाप्ति पर उसने पंडित जी से प्रश्नोत्तर किये। उसने पूछा कि क्या उसके बुरे कर्म उसके दान आदि अच्छे कर्मों में समायोजित नहीं होंगे? पंडित जी ने उसे समझाया कि अच्छे कर्मों का फल अलग से और बुरे कर्मों का फल अलग से भोगना होगा। वह पंडित जी की बात को समझ गया और उसने हमेशा के लिये डाका डालना बन्द कर दिया और धर्म के काम करना आरम्भ कर दिया। कर्म-फल सिद्धान्त सत्य, यथार्थ व व्यवहारिक सिद्धान्त है। यह बात शुद्ध, निःस्वार्थ व पवित्र हृदय वाले व्यक्ति सरलता से जान सकते हैं।
ईश्वर सचमुच सर्वशक्तिमान निष्पक्ष अद्वितीय न्यायाधीश है। जिसे भविष्य व परजन्मों में सुख की कामना हो वह वेदों का स्वाध्याय, ईश्वरोपासना तथा यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को करें। यह सुनिश्चित है कि हम जो भी कर्म करेंगे उसका फल हमें जन्म-जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना होगा और वह फल हमें जगतपति न्यायाधीश ईश्वर हमें देंगे। इसके लिये जो आवश्यक होगा ईश्वर करेगा। सम्भव है कि अज्ञानवतावश किए हमारे पाप कर्मों के कारण हमें परजन्म में पशु व पक्षी योनियों में भी जाना पड़े। इस चर्चा को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।