ईश्वर सभी मनुष्यों द्वारा वेदमन्त्रों सहित उनमे निहित भावों से स्तुति व उपासना का पात्र

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मनमोहन कुमार आर्य

               ईश्वर संसार के सभी लोगों द्वारा स्तुति का पात्र है। ऐसा क्यों है? इसका उत्तर है कि उसने जीवों को सुख देने के लिये बिना कोई मूल्य लिए यह सुन्दर सुखों से भरपूर संसार को बनाया है। संसार को ही उसने नहीं बनाया अपितु मनुष्यों द्वारा संसार में सुखों का भोग करने के लिये सभी मनुष्यों को शरीर इन्द्रिया प्रदान की हैं।  10 ज्ञान एवं कर्म इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्तःकरण चतुष्टय के चार करण मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार भी प्रदान किये हैं जो अपना-अपना काम करते हैं। हमारा शरीर कितना जटिल है इसका अनुमान शायद हम नहीं लगा सकते? इसका कुछ-कुछ अनुमान शरीर शास्त्री डाक्टर व वैज्ञानिक ही लगा सकते हैं जो शरीर को स्वस्थ रखने के लिये निरन्तर अध्ययन व अनुसंधान करते रहते हैं। आज विज्ञान चरम सीमा पर पहुंच कर भी यह दावा नहीं कर पा रहा है कि उसने हमारे शरीर को पूर्णतः जान ओर समझ लिया है। इसी बात से शरीर की जटिलता का पता चलता है। इसमें यदि कहीं जरा सी भी भूल चूक से कोई विकृति हो जाये तो हमारा जीवन दुःखों से भर जाता है। हम जानते हैं कि शरीर में छोटी-छोटी विकृतियां होने पर मनुष्य डाक्टरों के पास जाकर उपचार कराते हैं और उनकी ओषधियों के प्रभाव से अनेक नये रोग और हो जाते है। शरीर की एक आंख तो क्या एक नखून व बाल जैसी सामान्य चीज भी मनुष्य बना नहीं सकता। यदि किसी गरीब व्यक्ति से भी कहा जाये कि आप लाखों रुपये लेकर अपनी एक आंख दे दो तो शायद कोई भी तैयार न हो। जब एक आंख भी लाख करोड़ रुपये की सुलभ नहीं है तो शरीर के मूल्य का अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः मानव शरीर ही नहीं पशु, पक्षियों के शरीर और इनके भरण पोषण के लिये परमात्मा ने जो वनस्पति जगत, ओषधियां, अन्न, फल दुग्धादि आदि पदार्थ प्रदान किये हैं उसके लिये निश्चय ही ईश्वर सभी मनुष्यों की स्तुति का पात्र है। यदि हम ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं तो हम उसके कृतज्ञ होते हैं और यदि नहीं करते तो अज्ञानी व अहंकारी होते हैं। शास्त्रों में ठीक ही कहा है कि अहंकारी का नाश हो जाता है। रावण, कंस और दुर्योधन आदि सब अहंकारी थे। इनका हश्र हम रामायण और महाभारत ग्रन्थों में पढ़ते व सुनते आये हैं। राम, कृष्ण व दयानन्द जी आदि विद्या, ज्ञान, दया, विनम्रता आदि गुणों से युक्त थे, इसी कारण उनका यश आज भी है और विद्वानों में तो हमेशा ही रहेगा। यह भी बता दें कि मनुष्य स्वभाव से अल्पज्ञ है। उसे चतुर व चालाक लोग बहका व फुसला लेते हैं जिस कारण वह अन्धविश्वासों से ग्रस्त होकर व्यक्तिपूजा, मिथ्यापूजा, जड़पूजा आदि में प्रवृत्त हो जाता है। यहां तक कि अज्ञानवश अपने को बड़ा और दूसरों को तुच्छ समझता है। इसके उदाहरण आज के समाज में प्रचुरता से देखे जा सकते हैं।

               ईश्वर ने जो यह महान सृष्टि हमारे लिए बनाई है वह भी कोई छोटा कार्य नहीं है। संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कोई सृष्टि नहीं बना सकता। आप कल्पना कीजिए कि यदि ईश्वर ने सृष्टि न बनाई होती तो हमारा वर्तमान व भविष्य क्या होता? हम मूर्छित सी अवस्था में कारण-प्रकृति में पड़े होते। न हमारा जन्म होता, न हमें कोई सुख मिलता और न तब हम आज जो बड़े बड़े ईश्वर स्तुति, अग्निहोत्र-यज्ञ, परोपकार, देश सेवा तथा मानव मात्र की भलाई के काम विज्ञान व अन्य प्रकार से करते हैं, वह भी न कर पाते। इन अच्छे कार्यो को करने से हमें जो सुख प्राप्त होता है वह भी न होता। अतः हमारे सभी सुखों का कारण आधार परमात्मा ही है। उसी की हमें स्तुति, प्रार्थना, भक्ति उपासना करनी है। हम जब भी कोई काम करते हैं तो उसे विधिपूर्वक करते हैं जिससे उसमें कोई त्रुटि रहकर उससे उद्देश्य की पूर्ति में अनर्थ न हो जाये। इसी प्रकार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए हमें सजग रहना है जिससे उसमें विधि विषयक कोई कमी न रहे। यदि हम थोड़े से भी बुद्धिमान हैं या अपने को बुद्धिमान समझते हैं तो हमें अपने मत व सम्प्रदाय की एक एक मान्यता की सूक्ष्म परीक्षा वा शल्य परीक्षा करनी चाहिये जिससे हमारे सभी कार्य व व्यवहार सत्य व शुभ परिणाम देने वाले हों। यदि हम आंखे मूंद कर अपने मत की मान्यताओं की परीक्षा किए बिना उनका आचरण करते हैं तो परमात्मा प्रदत्त हमारी बुद्धि व्यर्थ सिद्ध होती है। वास्तविकता यह है कि हमारी बुद्धि व्यर्थ न होकर हमारा इसका धर्म कार्यों में उपयोग न लेना अनुचित होता है। अतः सभी मतानुयायियों को अपने मत की सभी मान्यताओं की परीक्षा दूसरे सभी मतों से तुलना करके ही सत्य मान्यताओं को स्वीकार करना चाहिये। हमारा यह नियम होना चाहिये कि हम सत्य के ग्रहण में तत्पर हों तथा असत्य का त्याग करके दूसरों को भी इससे होने वाले लाभों को बताकर उन्हें सुख पहुंचाने वाले बने। ऐसा करने से ईश्वर हम पर अपने आशीर्वादों की वर्षा करेंगे और हमारा जीवन सभी प्रकार से दुःखों से मुक्त होकर पूर्ण सुखी अवस्था में व्यतीत होगा।

               ईश्वर द्वारा हमारे व सभी जीवों के लिये इस सृष्टि को बनाने तथा हमें स्वस्थ शरीर प्रदान करने और शरीर बूढ़ा हो जाने पर वस्त्र के समान इसे बदल कर फिर नये वस्त्रवत् नया स्वस्थ शरीर देने के लिये हमारी स्तुति के पात्र हैं। यह बात हमारी समझ में आ गई है। अब प्रश्न यह है कि हम ईश्वर की स्तुति कैसे करें? इसके लिये हमें यह पता करना है कि ईश्वर ने हमारे कर्तव्यों का ज्ञान कराने के लिये सृष्टि के आदि काल से अब तक कुछ व्यवस्था की है व नहीं? इसका उत्तर भी हां में मिलता है। ईश्वर ने हमारे कर्तव्यों का ज्ञान कराने के लिये सृष्टि के आरम्भ में चार पवित्रतम ऋषि आत्माओं को उत्पन्न करके अपने ज्ञान वेद को उन चार ऋषियों, अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को प्रदान किया था। उन ऋषियों और बाद के ऋषि व विद्वानों ने प्राणपण से उस वेद ज्ञान की रक्षा की है। महाभारत काल के बाद विद्वानों के आलस्य व प्रमाद के कारण यह ज्ञान विलुप्त हो गया था। ऋषि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से इस ज्ञान को खोज निकाला और आज पुनः ईश्वर का सृष्टि के आदि में दिया गया यह सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान हमें सत्य अर्थों सहित प्राप्त है। हमें इसका अध्ययन कर इसके महत्व को जानना है। हम इसका अध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य ज्ञान सहित अपने सभी कर्तव्यों को जानें। वैदिक विधि से ही हमें अपने सब काम करने चाहियें। ईश्वर का ध्यान, सन्ध्या, स्तुति, प्रार्थना व उपासना भी ईश्वर द्वारा दिये वेदमंत्रों व विधि से ही करके कृतार्थ होना चाहिये। ऋषियों ने हमारा यह काम सुगम कर दिया है। संसार में मतमतान्तरों के प्रमुख व गौण ग्रन्थों सहित अन्य सभी प्रकार का जो भी साहित्य है, वह मनुष्यकृत व मनुष्यरचित है। मनुष्य अल्पज्ञ होने से ज्ञान के सूक्ष्म तत्वों को पूर्णतः नहीं जान सकता। किसी महापुरुष ने कहा है कि हमारा ज्ञान इतना ही है जितना की समुद्र से एक लोटे में जल आता है। संसार में अनन्त ज्ञान है। कोई एक व सभी मनुष्य मिलकर भी समस्त ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते। पूरा वेद भी एक जन्म में मनुष्य जान नहीं सकता परन्तु अपनी आवश्यकता के अनुसार ज्ञान अवश्य प्राप्त कर सकता है। इस विवेचन के अनुसार मनुष्यों द्वारा रचित मत-पन्थ की पुस्तकें ईश्वर के ज्ञान वेद के समक्ष अल्प महत्व की हैं। सर्वाधिक महत्व चार वेदों व उनके यथार्थ व तात्विक ज्ञान का ही है। इसीलिये हमें वेदों का अध्ययन कर वेदानुसार ही ईश्वर की स्तुति व ध्यान करने सहित अपने सभी कर्तव्यों का पालन भी वेदों की आज्ञा के अनुसार करना चाहिये। ऐसा करने पर ही ईश्वर की कृपा, आशीर्वाद व वरदान हमें प्राप्त होगा और हमारा यह जीवन तथा भावी पुनर्जन्म में हमारा जीवन सुख व कल्याण को प्राप्त कराने वाले होगा।

               लेख का और अधिक विस्तार न कर हम इसे विराम देते हैं। इतना अवश्य कहेंगे कि हमें वेदों सहित वेद व  ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु एवं वेदभाष्य आदि का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करना चाहिये और अन्धविश्वासों से युक्त मत-पन्थों को अधिक महत्व न देकर ईश्वरीय ज्ञान वेद और ऋषियों के ग्रन्थों का ही अध्ययन करना चाहिये। इसी में हमारा, देश, समाज व मानवता का कल्याण है। ओ३म् शम्।

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