“ईश्वर-मनुष्य संबंध व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक और पिता-पुत्र का है”

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मनमोहन कुमार आर्य,

ईश्वर इस संसार की रचना करने वाले, पालन करने वाले तथा सृष्टि की अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय करने वाली सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, अजन्मा, नित्य व अविनाशी सत्ता को कहते हैं। मनुष्य का आत्मा एक अल्प परिमाण, चेतन, अल्पज्ञ, अनुत्पन्न,  नित्य, अविनाशी, कर्म-फल के बन्धनों में आबद्ध, कर्मानुसार नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेने व फल भोगने वाली सत्ता व पदार्थ है। इस जन्म में हमें मनुष्य जन्म मिला है जिसका कारण हमारे पूर्व जन्म के कर्म हैं। हम जिन पशु, पक्षियों आदि सहित स्थावर वृक्ष आदि योनियों को देखते हैं, वह भी अपने पूर्वजन्मों का फल भोग रहे हैं। ईश्वर की व्यवस्था से उनका वहां जन्म हुआ हे। ईश्वर व जीवात्मा दोनों चेतन पदार्थ होने सहित अनादि, अनुत्पन्न वा अजन्मा, निराकार, अविनाशी, अनन्त, अजर व अमर सत्तायें हैं। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, दयालु, निर्विकार, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अभय, पवित्र व सृष्टिकर्ता है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा अपने कर्मों का फल भोगने में ईश्वर के अधीन है। दोनों का सम्बन्ध व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक तथा पिता-पुत्र का है। व्यापक होने का अर्थ है कि जो जीवात्माओं व अन्य सभी पदार्थों के भीतर विद्यमान है। इसी गुण के कारण ईश्वर को सर्वान्तर्यामी कहते हैं। जीवात्मा के भीतर ईश्वर समाया हुआ व व्यापक है इसलिये जीवात्मा को व्याप्य कहते हैं। सृष्टि के भीतर इसके प्रत्येक अणु व परमाणु में भी ईश्वर व्यापक व समाया हुआ है। इसलिये ईश्वर और सृष्टि का सम्बन्ध भी व्याप्य-व्यापक है। सृष्टि जड़ पदार्थों से बनी हुई है। वह ईश्वर की व्यापकता व उसके अस्तित्व का अनुभव नहीं कर सकती परन्तु जीवात्मा चेतन होने से मनुष्य जीवन में उसकी व्यापकता व अपनी आत्मा के ईश्वर में व्याप्य होने को जान व समझ सकती है। इसीलिये कहा जाता है कि ईश्वर सब प्राणियों की आत्माओं के भीतर भी विद्यमान है। ईश्वर को जानना व जानकर उसे अपनी आत्मा के भीतर विद्यमान होने का निर्भ्रान्त रूप से अनुभव करना ही ईश्वर और जीवात्मा के व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध को जानना कहा जाता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार होना ही ईश्वर की प्राप्ति होना कहा जाता है। ईश्वर का साक्षात्कार ही जीवात्मा व मनुष्य जीवन का प्रमुख व अन्तिम लक्ष्य है। सभी ऋषि व योगी ईश्वर के साक्षात्कार के लिये ही अपने जीवन को ईश्वरार्पित रखते हुए उपासना एवं यज्ञ आदि परोपकार के कार्य करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे। सभी मनुष्यों का भी यही उद्देश्य है। हम चाहें तो पतन के मार्ग पर चलकर अधम गति को प्राप्त होकर जीवन को बर्बाद कर सकते हैं और यदि संकल्प कर स्वाध्याय, अध्ययन व अध्यापन तथा विद्वानों की संगति आदि करें तो हम विद्वान, ऋषि व योगी बनकर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

 

ईश्वर व मनुष्य की जीवात्मा का परस्पर व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। इस संबंध का ज्ञान तो वैदिक ग्रन्थ पढ़कर भली प्रकार से हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस संबंध को अनुभव भी करना होता है। इसके लिये ईश्वर व आत्मा का ज्ञान आवश्यक होता है। यह ज्ञान हमें ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों सहित उपनिषद, दर्शन एवं वेद आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर होता है। इन ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित यम, नियमों का पालन करते हुए योग के अष्टांगों का पालन व धारण करने से मन व आत्मा पवित्र व निर्दोष होते हैं। इसके बाद साधना करते रहने से व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध का साक्षात्कार व निर्भ्रान्त ज्ञान मनुष्य व उसकी जीवात्मा को होता है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य वैराग्य को प्राप्त होकर अपने जीवन को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ, परोपकार आदि कार्यों में समर्पित कर देता है और वेद एवं अध्यात्म का प्रचार करता है। यही मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ कर्म व कार्य हैं जिनसे मनुष्य मुक्ति के निकट पहुंचकर उसे एक व अधिक जन्मों में प्राप्त कर सकता है।

 

ईश्वर व जीवात्मा का परस्पर स्वामी-सेवक का सम्बन्ध भी है। ईश्वर संसार का स्वामी है। कारण यह है कि उसने ही सूक्ष्म सत्व, रज व तम तीन गुणों वाली प्रकृति से इस जगत की रचना जीवों के सुख व कर्मों के फलों को भोगने के लिये की है। ईश्वर सर्वज्ञ है और संसार के समस्त ऐश्वर्यों का स्वामी है। मनुष्य को मनुष्य जन्म, माता-पिता व परिवार तथा सुख के भौतिक साधन भी ईश्वर व उसकी व्यवस्था से ही प्राप्त होते हैं। इस कारण से ईश्वर स्वामी व हम उसके सेवक सिद्ध होते हैं। ईश्वर ने मनुष्य के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान अपने ज्ञान वेद में दिया है। उसे जानकर मनुष्य वेद विहित कर्तव्यों को करके तथा निषिद्ध कर्मों से स्वयं को दूर रखकर एक सेवक की भांति अपने स्वामी ईश्वर को प्रसन्न व सन्तुष्ट कर उससे सुख, शान्ति व मोक्ष आदि की प्रार्थना कर उसे प्राप्त हो सकता है। मनुष्य को ईश्वर के प्रति स्वामी-सेवक संबंध को अनुभव करते हुए ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। इससे वह अहंकार से होने वाले पापों से बच कर आत्मा की उन्नति करते हुए जीवन के लक्ष्य के निकट पहुंच जाता है। ऋषि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसे महात्माओं के जीवन चरित्र आदि का अध्ययन कर भी हम उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम ईश्वर के सच्चे व योग्य सेवक बन जायेंगे तो हमारा जीवन सफल होगा। परजन्म में भी हमारी उन्नति होगी, यह वैदिक साहित्य की साक्षी से निश्चित है।

 

मनुष्य का ईश्वर से पिता-पुत्र का सम्बन्ध भी है। पिता पुत्र के जन्म में सहायक होने व उसके पालन करने के कारण कहते हैं। ईश्वर ने ही हमारी जीवात्मा को मनुष्य जन्म दिया, हमारे लिए इस सृष्टि को बनाया जो प्राणवायु, जल, अन्न, ओषिधियों, वनस्पतियों, सुखी जीवन की सभी प्रकार की सामग्री, गो व अश्व आदि पशुओं से युक्त है। इससे ईश्वर हमारा पिता और हम उसके पुत्र सिद्ध होते हैं। हमें भी एक अच्छे पुत्र के कर्तव्यों का पालन कर अपने गुण, कर्म व स्वभाव को ईश्वर के गुणों आदि के अनुरूप बनाना है और ईश्वर की ही तरह न केवल मनुष्य आदि अपितु सभी प्राणियों के प्रति दया व करूणा का व्यवहार करना है। प्रातः व सायं की सन्धि वेला में ईश्वरोपासना वा सन्ध्या करनी है तथा दोनों समय नित्य कर्म देवयज्ञ-अग्निहोत्र भी करना है। हमें अपने माता-पिता-आचार्यों आदि के प्रति भी वैदिक परम्पराओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करना है। ऐसा करके हम ईश्वर के प्रिय हो सकते हैं एक पिता के प्रिय पुत्र को पिता से जो लाभ मिलते हैं, वह सभी हमें भी प्राप्त होंगे।

 

यह भी ज्ञातव्य है कि ईश्वर हमारी माता भी है, आचार्य भी है और राजा भी है। हम इन सभी सम्बन्धों पर विचार कर इनके अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे तो हमारा जीवन अर्थवान होकर सफल होगा। ईश्वर के प्रति हमें अपने सभी कर्तव्यों का ज्ञान हो तथा हम उसके अनुरूप व्यवहार करें, इसका हमें आचरण व व्यवहार करना है व दूसरों को भी इसकी प्रेरणा करनी है। ऐसा करने से ही वैदिक धर्म व संस्कृति का विस्तार होगा और संसार में सुखों की वृद्धि होगी।

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