–मनमोहन कुमार आर्य,
जीवात्मा और परमात्मा का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। जीवात्मा में ईश्वर व्यापक है और जीवात्मा ईश्वर में व्याप्य है। सर्वव्यापक ईश्वर जीवात्मा से सूक्ष्म है और इसके भीतर भी व्यापक है। मनुष्य जीवन मिलने पर जीवात्मा अन्तःकरण चतुष्टय और ज्ञान व कर्मेन्द्रियों की सहायता से सत्य व असत्य, ज्ञान व अज्ञान, हित व अहित की बातों को जानने व समझने में समर्थ होती है। मनुष्य को यदि माता-पिता और आचार्य आदि न बतायें कि सत्य व असत्य क्या हैं, तो जीवात्मा को यह जानना कठिन व अनेक परिस्थितियों में असम्भव होता है। हमारे माता-पिता व आचार्य भी सत्यासत्य के विषय में पूर्व परम्परा व वेद आदि के अध्ययन वा स्वाध्याय कर तथा अपनी-अपनी बुद्धि की क्षमता के अनुसार जान पाते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे सद्ग्रन्थों का अपना स्वाध्याय बढ़ाता है, चिन्तन-मनन कर सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का निर्णय करता है, त्यों त्यों उसका ज्ञान बढ़ता जाता है और वह सत्यासत्य को समझने लगता है। स्वाध्याय के साथ ईश्वरोपासना, जप व ध्यान आदि से भी मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति के करता है। ईश्वर संसार के सभी पदार्थों में सर्वातिसूक्ष्म व सर्वज्ञ है। सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने से ईश्वर का ज्ञान निर्भ्रान्त एवं पूर्ण है। मनुष्य स्वाध्याय व विद्वानों की संगति से ईश्वर व आत्मा को जानकर एवं इस प्रकार अपनी बुद्धि की क्षमता को बढ़ाकर अन्य मनुष्यों को अपने विचारों व सिद्धान्तों से सहमत करा सकता है।
ईश्वर व जीवात्मा चेतन सत्तायें हैं। ईश्वर सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक सत्ता है। जन्म-मरण से मुक्त एवं आनन्दस्वरूप होने से उसे अपने लिये कुछ प्राप्त नहीं करना है। संसार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण ज्ञान व आनन्द हैं। यह दोनों पदार्थ ईश्वर में चरम स्थिति में विद्यमान हैंं। जीवात्मा चेतन पदार्थ होने के साथ एकदेशी, ससीम एवं अल्पज्ञ है। यह जन्म-मरण धर्मा है। यह सुख चाहता है परन्तु सुख का आधार धर्म अथवा सत्कर्म होते हैं। अल्पज्ञ जीवात्मा को मनुष्य योनि में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि घेरे रहते हैं। यह अल्पज्ञता व अविद्यादि कारणों से इन काम आदि शत्रुओं के पाश में कुछ समय के लिए फंस जाता है जिसका परिणाम दुःख होता है। अतः इन शत्रुओं को परास्त करने के लिए विद्या व ईश्वर की कृपा की आवश्यकता होती है। विद्या व ईश्वर की कृपा इसे वेद आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित ऋषियों, विद्वानों, सच्चे आचार्यों व ज्ञानी माता-पिता की संगति से प्राप्त होती है। साधना वा उपासना के द्वारा ईश्वर में स्थित हो जाने व ईश्वर को जान लेने पर इसे काम क्रोध आदि शत्रु परेशान नहीं करते, यह उन सभी पर विजय पा लेता है। इस अवस्था को प्राप्त कर यह ईश्वर की कृपा से जन्म व मरण के चक्र से छूट कर मोक्ष वु मुक्ति की अवस्था को प्राप्त होता है। मोक्ष की प्राप्ति ही जीवात्मा का लक्ष्य है। मोक्ष में जीवात्मा के सभी दुःख छूट जाते हैं और यह परमात्मा के सान्निध्य में परमानन्द की प्राप्ति होती है। इस स्थिति का वर्णन सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में किया गया है। सुख व आनन्द के अभिलाषी सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश एवं नवम समुल्लास विशेष रूप से पढ़ना चाहिये। मोक्ष को जान लेने के बाद मोक्ष प्राप्ति के उपायों को भी जानना चाहिये जिसमें सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास सर्वाधिक सहायक एवं मार्गदर्शक है।
‘असतो मा सदगमय’ प्रसिद्ध वैदिक प्रार्थना है। असत् अविद्या को कहते हैं। इस प्रार्थना के अनुसार हमें असत् वा अविद्या को छोड़कर सत्य का ग्रहण करना है। आर्यसमाज के नियमों में भी असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण करने का आदेश किया गया है। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने की भी शिक्षा की गई है। यह भी कहा गया है कि सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार कर करने चाहिये। इन सब से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें असत्य का त्याग कर सत्य पथ पर चलना है। सत्य पथ पर चलने के लिए वेदों व सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन आवश्यक एवं अपरिहार्य है। वेदों वा सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन किये बिना हम सत्य को प्राप्त नहीं हो सकते। यह बात उच्च कोटि के विद्वानों पर लागू न भी होती हो परन्तु साधारण मनुष्यों पर तो सत्यार्थप्रकाश का पढ़ना व समझना आवश्यक प्रतीत होता है। सत्य को जानकर व उसका आचरण करने से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ कर सकता है वह इन चार पुरुषार्थों को अधिकांश व पूर्णरूप में सिद्ध कर सकता है।
हम जब महर्षि दयानन्द व उनसे पूर्व राम, कृष्ण व अन्य ऋषियों के विषय में अध्ययन करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि हमारे यह पूर्वज वेदमार्गी व सत्यपथानुगामी थे। सभी ने वेदाध्ययन सहित ऋषियों वा विद्वानों की संगति की थी। यह सभी योगाभ्यास करने के साथ वैदिक रीति से ईश्वर की उपासना भी करते थे। यही कारण था कि इन्हें जीवन में सफलता मिली और आज भी इनका यश देश व विश्व में फैला हुआ है। हमें यह भी लगता है कि पूरे विश्व का इतिहास देखने पर राम, कृष्ण व दयानन्द के समान जीवन अन्यत्र कहीं नहीं मिलते। कारण यही है कि विश्व के महापुरुष कहे जाने वाले लोग न तो योगाभ्यास से भली भांति परिचित थे न उन्हें वेदों की चरित्र निर्माण की शिक्षाओं का ज्ञान व उपलब्धि थी। अतः वह राम, कृष्ण व ऋषि दयानन्द जी जैसे उपासक व धर्मज्ञानी नहीं बन सके। हमारा सौभाग्य है कि हमें वेदभाष्य के रूप में वेदों का ज्ञान प्राप्त है। इसके साथ उपनिषद व दर्शन आदि ऋषिकृत ग्रन्थों का ज्ञान भी हमें आर्यभाषा में उपलब्ध है। इससे हम सत्पथ और सन्मार्ग को जानकर व उस पर चल कर जीवन को सफल बना सकते हैं।
मनुष्य वही है जिसने सत्य को जानकर उसे अपने जीवन में धारण किया हुआ है। सत्य विहीन मनुष्य पशु समान है। हम वेदाध्ययन करें और इसके साथ सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन भी करें। उपनिषदों व दर्शनों का अध्ययन कर हम ज्ञान को प्राप्त हों और इससे अविद्या व अन्धकार से मुक्त हों। ईश्वर की उपासना व यज्ञ अग्निहोत्र कर हम ईश्वर आज्ञा का पालन करते हुए ईश्वर की कृपा से ही सद्ज्ञान व प्रकाश को प्राप्त होकर अपने जीवन को सफल करें। इस कार्य में वेद, ऋषि दयानन्द व हमारे ऋषियों के चरित्र हमारा मार्ग दर्शन कर सकते हैं।