हिमांशु शेखर
2000 में नई दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान से पढ़ाई करने के बाद गोपाल कृष्ण ने अपने सामने मौजूद कई प्रस्तावों में से ‘फायनैंशियल एक्सप्रेस’ में काम करने का फैसला किया था. क्योंकि उनकी यह स्पष्ट धारणा थी कि असली पत्रकारिता तो वही है जिसमें आंकड़ों और तथ्य के आधार पर बातचीत की जाए. उन्हीं दिनों शेयर बाजार का सेंसेक्स भी उड़ान भर रहा था. उनका अखबार समेत मुख्यधारा की पूरी मीडिया सेंसेक्स की उड़ान पर उल्लास मना रही थी. लेकिन गोपाल कृष्ण के मन में लगातार यह सवाल चल रहा था कि सेंसेक्स के ऊपर जाने के बीच जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है.
उन्हीं दिनों उन्हें पर्यावरण पर आधारित पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ में काम करने का प्रस्ताव मिला. मानवाधिकारों की रक्षा का ख्वाब संजोए पत्रकारिता में आने वाले गोपाल कृष्ण के मन में इस पत्रिका से जुड़ने को लेकर अटकाव था. लेकिन साक्षात्कार के दौरान उन्होंने वहां एक पोस्टर देखा और इस पत्रिका से जुड़ने का फैसला कर लिया. उस पोस्टर में बताया गया था कि आपके पड़ोस में अगर कोई व्यक्ति अपनी ही जमीन में प्रदूषण फैलाने वाला औद्योगिक इकाई चला रहा हो तो यह न सिर्फ पर्यावरण से जुड़ा मामला है बल्कि यह मानवाधिकार के हनन का भी मसला है.
यहीं से गोपाल कृष्ण में पर्यावरण के मसलों को लेकर दिलचस्पी बढ़ी. फिर एक समय ऐसा आया जब उन्हें लगा कि काम इतना बड़ा है कि नौकरी करते हुए इसे साधा नहीं जा सकता. फिर उन्होंने स्वतंत्र तौर पर काम करना शुरू किया. 2002 में उन्हें पहली बड़ी सफलता मिली. उन्होंने ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में एक लेख लिखकर यह बताया कि ऑस्ट्रेलियाई कंपनी एनर्जी डेवलपमेंट लिमिटेड मुंबई समेत देश के छह शहरों में कचरा से बिजली बनाने की जो परियोजना लगा रही है वह पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है. इस लेख से बहुत हंगामा हुआ और कंपनी के प्रबंध निदेशक लेख छपने के अगले ही दिन गोपाल कृष्ण के पास अपना पक्ष रखने पहुंचे लेकिन गोपाल अपने तथ्यों पर कायम रहे. नतीजा यह हुआ कि कंपनी को भारत से बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा.
अकेले ही जहरीले पदार्थों के खिलाफ अभियान चलाने वाले गोपाल कृष्ण को 2005 आते-आते संगठन की जरूरत महसूस हुई और उन्होंने 2005 में टॉक्सिक वॉच एलायंस का गठन किया. इसके जरिए उन्होंने इस बात को लेकर लड़ाई शुरू की कि पश्चिमी देशों द्वारा भारत का इस्तेमाल जहरीले कचरे के निस्तारण के लिए बंद हो.
उन्होंने इस बात को लेकर जागरूकता फैलाई कि विकसित देश भाषाई भ्रष्टाचार कर रहे हैं और वे रिसाइक्लिंग और स्क्रैप के नाम पर भारत का इस्तेमाल अपने यहां के जहरीले कचरे से मुक्ति पाने के लिए कर रहे हैं. 2006 में फ्रांस से ले क्लेमेंसू नाम का जहाज वहां से जहरीला कचरा लेकर भारत आ रहा था. इसे भारत में कचरा उतारने से रोकने के लिए गोपाल कृष्ण ने न सिर्फ भारत के उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया बल्कि फ्रांस के पर्यावरणविदों से वहां के सर्वोच्च अदालत में भी याचिका दायर करवाई. इसका नतीजा यह निकला कि फ्रांस की अदालत ने जहाज को फ्रांस वापस लौटने का आदेश दे दिया.
भारत में तकरीबन 4,500 करोड़ रुपये के एस्बेस्टस कारोबार को बंद कराने को लेकर भी गोपाल कृष्ण लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं. जब इस उद्योग ने भारत में एस्बेस्ट के खनन पर से रोक हटाने की मांग की तो खनन मंत्रालय ने उन्हें भी बुलाया. वहां इस उद्योग के प्रतिनिधियों के प्रस्ताव को गोपाल कृष्ण ने बिंदुवार काटा. नतीजा यह हुआ कि खनन से पाबंदी नहीं हटी. गोपाल कृष्ण की कोशिशों की वजह से ही जयराम रमेश के समय में पर्यावरण मंत्रालय ने अपने विजन स्टेटमेंट में यह स्वीकार किया कि एस्बेस्टस पर्यावरण के लिए खतरनाक है.
1977 में जन्मे गोपाल कृष्ण को जयराम ने तो एक बार सिर्फ इसलिए बुलाया था कि वे मंत्रालय में काम कर रहे अधिकारियों का पर्यावरण के विभिन्न आयामों पर जानकारी बढ़ाने का काम करें. उन्होंने सिर्फ दिल्ली में ही काम नहीं किया बल्कि बिहार के मुजफ्फरपुर में प्रस्तावित एस्बेस्ट परियोजना के खिलाफ लोगों को गोलबंद कर उस परियोजना को रुकवाया. अभी वे बिहार में प्रस्तावित छह ऐसी परियोजनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं.
नंदन नीलेकणी की अगुवाई में देश को हर नागरिक को विशेष पहचान अंक यानी यूआईडी देने की परियोजना की वैधता और सुरक्षा चिंताओं को तो स्थायी संसदीय समिति ने तो हाल में उठाया है और इसे खारिज करने की सिफारिश की है. लेकिन गोपाल कृष्ण इन बातों को पिछले पौने दो साल से उठा रहे हैं. आज संसदीय समिति जिस नतीजे पर पहुंची है उसे वहां तक पहुंचने में भी गोपाल कृष्ण ने समिति की काफी मदद की है. इस रिपोर्ट में उनका नाम भी दो बार आया है.
यूआईडी परियोजना को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और लोगों की निजी जिंदगी की जासूसी का औजार मानने वाले गोपाल कृष्ण कहते हैं कि इसे पूरी तरह से बंद कराने के लिए वे लड़ाई लड़ते रहेंगे.