मनमोहन कुमार आर्य
आज गोवर्धन का पर्व है। गोवर्धन का अर्थ है कि गायों की रक्षा व उनकी संवृद्धि करें। गाय की संवृद्धि गोरक्षा और गोसंवर्धन के अनेक कार्यों को करके ही हो सकती है। गोरक्षा की प्रथम आवश्यकता है कि गो के प्रति कोई किसी प्रकार का अपराध व उसका असम्मान न करे। यदि अज्ञानतावश करता हो तो उसे गाय के महत्व को समझाना गोरक्षकों व गोभक्तों का कर्तव्य है। जिस प्रकार की स्थिति देश में गोरक्षा की है उसके लिए एक सीमा तक गो को माता मानने वाले गोरक्षक भी उत्तरदायी हैं। केवल गोरक्षक होना ही पर्याप्त नहीं है। गोरक्षकों का आज की परिस्थितियों में एक राष्ट्र स्तरीय प्रभावशाली संगठन होना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने गोकरूणानिधि लिख कर इसकी आधारशिला रखी थी और एक ‘‘गो-कृषि-रक्षिणी सभा” के गठन के लिए नियम, उपनियम व इसके संविधान को भी तैयार किया था। उनके असामयिक निधन के कारण उनके अनुयायियों का ध्यान इस ओर नहीं जा सका क्योंकि उन्हें अनेक मोर्चों पर काम करना था। देश में विस्तृत अज्ञानता से लड़ना था जिसके लिए उन्होंने गुरूकुल व दयानन्द ऐग्लो वैदिक कालेज अर्थात् डी.ए.वी स्कूलों का सारे देश में एक जाल बिछाया जिसने देश से अज्ञानता वा असाक्षरता दूर करने में बहुत योगदान किया। इसके साथ ही विधर्मियों के जो आक्रमण वैदिक सनातन धर्म के लोगों पर होते थे, उनसे रक्षा करने के लिए भी आर्यसमाज को देश भर में स्थापित कर इनके द्वारा वेद वा वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करना था जिससे कि लोभ, लालच, छल व कपट तथा आर्थिक प्रलोभन से देशवासियों का धर्मान्तरण न हो जो कि सदियों से देश में चल रहा था और आज भी अनेक प्रकार से गुपचुप रूप से होता है। अनाथ बच्चों की रक्षा का भी प्रश्न था और इसके साथ वैदिक धर्म को संसार का सर्वाधिक बौद्धिक आधार पर स्थापित सत्य वैज्ञानिक धर्म भी सिद्ध करना था जिसमें आर्यसमाज व इसके विद्वानों को पूर्ण सफलता मिली है। स्त्रियों व दलित को उनके उचित अधिकार दिलाने व जन्मना जातिवाद को दूर करने एवं उसके प्रभाव को कम करने में भी आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण योगदान किया है।
गाय संसार में मनुष्य के लिए सर्वाधिक हितकारी पशु है। गाय का दूध व इससे बने पदार्थ दही, छाछ, मक्खन, क्रीम, मलाई, घृत, पंचगव्य आदि अमृत के समान हैं। इन पदार्थों का अन्य खाद्य पदार्थों से कोई मुकाबला नहीं है अर्थात् वह इनकी तुलना में हेय व गोदुग्धादि मुख्य हैं। इनसे मनुष्य को आरोग्य, स्वास्थ्य और बल मिलता है। गाय का गोमूत्र व गोबर भी मनुष्यों के लिए वरदान है। यह भी आरोग्यकारक व स्वास्थ्य सहित दीर्घ जीवन का आधार है। गोबर से बनी खाद आज भी सर्वोत्तम है। इसका प्रयोग करने से भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। अन्न भी उत्तम किस्म का उत्पन्न होता है। इससे गोसंवर्धन को बढ़ावा मिलता है। गाय से प्राप्त होने वाले बछड़े बड़े होकर बैल बनते हैं, वह सृष्टि के आरम्भ से ही हमारे ट्रैक्टरों आदि का विकल्प बने हुए हैं। ट्रैक्टरों के लिए चैड़ी सड़के, पूंजी व नौकर चाहिये तथा इनके होने पर भी वायु प्रदूषण से किसान व मनुष्यों को हानि उठानी पड़ती है। वहीं दूसरी ओर बैल के लिए हमें गांवों में व सर्वत्र उपलब्ध घास व खेतों में उत्पन्न भूसा आदि के द्वारा ही काम चल जाता है। उनको खेतों तक ले जाने के लिए किसी चैड़ी सड़क की भी आवश्यकता नहीं होती। बैलों से खेतों की जुताई करते हुए जो गोबर व मूत्र खेत में गिरता है, वह उत्तम कोटि की खाद का काम करता है। गाय के दुग्ध से प्राप्त होने वाला घी यज्ञ का मुख्य द्रव्य होता है जिससे वायुमण्डल सहित समस्त पर्यावरण शुद्ध होने से शुद्ध अन्न की प्राप्ति, रोग निवारण व स्वास्थ्य लाभ सहित धर्म लाभ भी होता है जिससे मनुष्य का वर्तमान व भविष्य अर्थात पुनर्जन्म सुधरता व लाभान्वित होता है। इस प्रकार से गो मनुष्यों का सर्वोंत्तम हितकारी प्राणी व पशु है। इतने उपकार करने के बाद गो व बैल आदि सभी प्राणी अहन्तव्य वा अवध्य निश्चित होते व सिद्ध होते हैं। परन्तु गोमांस-भक्षक इन प्रश्नों पर बिना विचार किये आंखे व बुद्धि के दरवाजे बन्द कर गोमांस का सेवन करते हैं जो पूरी तरह से अमानवीय व अप्राकृतिक कर्म होने से अधर्म है। महर्षि दयानन्द ने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न गोमांस भक्षकों से किया है कि जब संसार में सभी गाय आदि पशु समाप्त हो जायेंगे तो तब क्या वह मनुष्यों का वध कर उनके मांस का सेवन करेंगे? यदि वर्तमान की तरह से गोवध व गोमांसाहार जारी रहा और यदि, ईश्वर न करे, सभी गोमांस का सेवन करने लगें तो यह स्थिति शीघ्र आ सकती है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में ऐसा कभी नहीं होगा और आज के गोमांसाहारी बन्धु भी ज्ञान व विवेक प्राप्त कर गोमांसाहार का अवश्य ही त्याग कर देंगे।
महर्षि दयानन्द ने अर्थ शास्त्र के आधार पर गणना कर लिखा है कि एक गाय की एक पीढ़ी से लगभग 4 लाख 18 हजार मनुष्यों का एक समय का भोजन सिद्ध होता है जबकि एक गाय को मारकर खाने से मात्र 80 लोगों की एक समय की क्षुधा निवृति होती है। यह सिद्ध करता है कि गोमांस के सेवन से विश्व का अहित व अन्य लोगों के अन्न, भोजन व स्वास्थ्य की हानि होती है। अतः कोई भी बुद्धिमान मनुष्य गोमांस का सेवन कदापि नहीं कर सकता। इसका प्रचलन अज्ञान के आधार पर हुआ है और अज्ञान के कारण ही यह जारी है। जब किसी मनुष्य को सभी पक्षों का ज्ञान हो जाता है तो वह इसका सेवन करना छोड़ देता है। आज कल के वैज्ञानिक व चिकित्सक भी अनेक रोगों में गोमांस व अन्य पशुओं के मांस का भक्षण करने वालों को मांसाहार न करने की सलाह देते हैं। इसके विपरीत गोमाता का दूध व इससे बने पदार्थों के सेवन से किसी भी रोग में अपवाद स्वरूप कोई हानि नहीं होती। वेदों का अध्ययन करने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि वेदों में कहीं भी गोहत्या व गोमांस सेवन का विधान नहीं है। भारतीय सनातन वैदिक धर्म में वेदों को ही धर्म ग्रन्थ की संज्ञा प्राप्त है। अतः वैदिक काल जो महाभारत काल तक रहा, इसमें किसी भी व्यक्ति द्वारा गोहत्या करने वा गोमांसाहार करने का प्रश्न ही नहीं है। महाभारत काल के बाद महर्षि दयानन्द जी वेदों के महान विद्वान व व्याख्याकार हुए हैं। वह ज्ञान व विज्ञान के भी जानकार एवं उत्कृष्ट विद्वान थे। उनका मानना था कि गोहत्या व गोमांसाहार महापाप है। इसका अर्थ यह है कि गोमांसाहार करने वालों को मृत्यु के बाद अपने इस महापाप का महादुःख रूपी फल ईश्वर की व्यवस्था से भोगना पड़ेगा।
आज गोवर्धन पूजा का महान पर्व है। आज के दिन जहां हमें इस पर्व को धार्मिक भावना से मनाना है वहीं हमें गो के उपकारों को स्मरण कर इनकी रक्षा व संवृद्धि करने का संकल्प लेने की भी आवश्यकता है। इसके लिए आज के दिन सभी मन्दिरों व घरों में महर्षि दयानन्द लिखित गोकरूणानिधि पुस्तक का आंशिक व पूर्ण पाठ भी करना चाहिये। यह पाठ करते समय इसके एक-एक शब्द पर मनन होना चाहिये और विवेक से अपने कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिये। हमें यह भी उचित लगता है आर्यसमाज व हिन्दुओं के मन्दिरों में दीवारों आदि पर गोरक्षा के लाभों व मनुष्य के गाय के प्रति कर्तव्यों के सूचक वाक्य लिखकर लोगों में जागृति उत्पन्न करनी चाहिये। गोरक्षा के लिए एक पृथक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी बनना चाहिये जो तर्क, बुद्धि, विज्ञान के द्वारा गोहत्या को रोकने का प्रभावी कार्य करे। ऐसा होने पर ही देश में यथार्थ गोपूजा हो सकती है और गोवर्धन पूजा पर्व मनाना सार्थक हो सकता है।