कश्मीर के वार्ताकारों की रिपोर्ट पर सरकार केवल चर्चा करेगी ?

इक़बाल हिंदुस्तानी

पंडितों की वापसी और अधिक स्वायत्ता ही इस मर्ज़ की दवा है!

कश्मीर के वार्ताकार दिलीप पडगांवकर, एम एम अंसारी और प्रो. राधा कुमार की रिपोर्ट राज्य के 22 ज़िलांे के 700 प्रतिनिधिमंडलों व दो गोलमेज़ सम्मेलन का नतीजा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज हम कश्मीर समस्या को लेकर ऐसे मोड़ पर आ गये हैं जहां से घड़ी की सुइयों को पीछे नहीं घुमाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि हमेशा हमेशा हम शक्ति यानी सेना के बल पर कश्मीर को शांत नहीं रख सकते। दरअसल कश्मीर का मामला बेहद उलझा हुआ है। एक तरफ पाकिस्तान ने यह समस्या ना केवल पैदा की बल्कि वह हमसे चार बार आमने सामने की जंग में मुंह की खाने के बाद यह बात अच्छी तरह समझ चुका है कि वह कभी भी हमसे परंपरागत युध्द में जीत नहीं पायेगा। दरअसल कश्मीर तो पाक के लिये एक बहाना है, असली बात तो हमको किसी ना किसी तरह से लगातार सताना है। अलगाववाद को आतंकवाद के ज़रिये बढ़ावा देना और कभी वहां दरगाह में आग लगाना और कभी नौजवानों से पत्थरबाज़ी कराना पाक का शगल रहा है।

जहां तक कश्मीर वार्ताकारों की रिपोर्ट की सिफारिशों का मामला है तो मुझे तो यह बात स्वीकार करने में तनिक भी हिचक नहीं होती कि हमारी सरकार इस मसले को हल करने में ज़रा भी गंभीर नहीं है। इससे पहले भी सरकार ने अनेक आयोग और कमैटियां इस तरह के मसले हल करने के नाम पर बनाईं और आज पता नहीं उनकी रिपोर्ट कहां धूल चाट रही है। आप विश्वास कीजिये इस रपट के साथ भी ऐसा ही होने जा रहा है। मुझे तो यहां तक लगता है कि यह वार्ताकारों का नाटक हमारी सरकार ने किसी बाहरी दबाव में केवल दिखावे के लिये किया है जिससे इस पर अमल करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। ऐसे में जब इस बात के पूरे आसार हैं कि कश्मीर वार्ताकारों की किसी बात पर कोई अमल होना ही नहीं है तो इस रपट पर बहस करना सूत ना कपास जुलाहे लट्ठम लट्ठा वाली बात ही लागू होती है।

फिर भी अगर चर्चा है तो चर्चा में हिस्सा लेने में कोई बुराई है, बहरहाल होना कुछ नहीं है। इस बात को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि हमारे पूर्व प्रधनमंत्री जवाहर लाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र संघ में यह आश्वासन दे आये थे कि हम कश्मीर में जनमत संग्रह करायेंगे, क्या हमने कभी अपने ही प्रधनमंत्री के वादे को पूरा करने का नैतिक साहस दिखाया? क्या आगे भी हम कभी ऐसा कर पायेंगे? नहीं ना, तो बस कश्मीर वार्ताकारों की सिफारिशों का वैधानिक और नैतिक आधार क्या बचता है?

कश्मीर को अगर हमें हंसी खुशी अपने साथ रखना है तो कश्मीर के लोगों को भी अपने साथ प्यार मुहब्बत से रखना होगा। मिसाल के तौर पर वहां तैनात सेना के अधिकारों की समीक्षा की जानी चाहिये जो हम बार बार वायदा करके मुकर जाते हैं। इसके साथ ही विस्थापित कश्मीरी पंडितों के परिवारों की वापसी की ठोस सरकारी नीति बननी चाहिये जो आज तक नहीं बन सकी है। कश्मीरी पंडित कश्मीर की बुनियाद हैं, उनको अलग रखकर हम कश्मीर समस्या का हल कभी भी नहीं निकाल सकते। कश्मीर की सांस्कृतिक और वाजिब राजनीतिक आकांक्षाओं का सम्मान जब तक नहीं किया जाता तब तक की गयी कोई भी पहल बेकार ही जायेगी। इसमंे कोई बुराई नहीं कि स्थानीय निकाय और पंचायतों को पर्याप्त आर्थिक और राजनीतिक अधिकार दिये जायें, साथ ही क्षेत्रीय परिषदों का गठन हो जिनमें महिलाओं, जनजातियों और दलितों को प्रतिनिधित्व दिया जाये।

कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धरा 370 को स्थायी बनाना और 1953 से जो केेंद्रीय कानून वहां लागू हुए हैं, उनकी समीक्षा करके गैर ज़रूरी होने पर उनको निरस्त किया जाना प्रतिष्ठा का सवाल नहीं बनाया जाना चाहिये। हालांकि इनमें से अब ऐसे कानून कोई बचे ही नहींे हैं जिनको राज्य पर थोपा हुआ माना जाये। बहरहाल वार्ताकारों का पाक के अवैध कब्जे़ वाले कश्मीर को ‘पाक प्रशासित’ मान लेना गले नहीं उतारा जा सकता।

यह भेदभाव भी दूर किया जाना चाहिये जिसमें कश्मीर घाटी का एमएलए तो 62000 की आबादी पर बन रहा है जबकि एक ही राज्य मंे जम्मू का विधायक 84000 की जनसंख्या पर बनता है। ऐसे ही एमपी घाटी में 9.5 लाख पर और जम्मू में 16 लाख की आबादी पर चुना जाता है। यह अनुपातिक पक्षपात हर हाल में ख़त्म होना चाहिये। ऐसा होने पर कई समस्यायें अपने आप ही ख़त्म हो जायेंगी। पाक के कब्ज़े वाले कश्मीर से आने वाले लोगों को कश्मीर की नागरिकता और पुनर्वास की सिफारिश हमारी समझ से बाहर है क्योंकि ऐसा करने से पाकिस्तान को एक बार फिर से आतंकवाद निर्यात करने का खुला चैनल मिल जायेगा। यह तय करना नामुमकिन होगा कि कौन पाकिस्तानी है और कौन पाक कब्ज़े वाले कश्मीर का बाशिंदा?

साथ ही इस बात की क्या गारंटी होगी कि जो पाक कब्ज़े वाले कश्मीर का मूल निवासी भी होगा वह हमारे कश्मीर में साफ मन और पाक इरादों से बसने आयेगा और उसका मकसद अपने आका पाकिस्तान के इशारों पर हमारे देश में अलगाववाद और आतंकवाद को उकसाना नहीं होगा? इस सिफारिश को मानने में कोई बुराई नज़र आती कि राज्य में आंतरिक आपातकाल के लिये राज्य की निर्वाचित सरकार से सलाह मशवराह और सरकार बर्खास्त होने की स्थिति आने पर तीन माह में नया चुनाव कराने की अनिवार्यता हो। नियंत्राण रेखा के दोनों ओर के लोगों को इधर उधर आने जाने की खुली छूट नई समस्याओं का पिटारा खोलना होगा।

ऑलपार्टी डेलिगेशन की राय पर वार्ताकार समिति का बनना यह माना जा रहा था कि यह ऐसा क़दम होगा जिससे कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान तलाशा जा सकेगा लेकिन ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा है। राजनीतिक तौर पर चाहे बाद में हल हो लेकिन उससे पहले शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मसले हल करके कश्मीरियों का विश्वास बहाल किया जाना चाहिये। सच तो यह है कि 1947 के बाद से कश्मीर भारत के संघात्मक स्वरूप, धर्मनिर्पेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों की परीक्षा ले रहा है। 1948 में कश्मीर की जनता से जो वादे हमारी सरकार ने किये थे उनको जब तक पूरा नहीं किया जाता तब तक स्वायत्ता दिये बिना वार्ता आगे नहीं बढ़ सकती। आज वहां हमारे 7 लाख सैनिक तैनात हैं उनको नियंत्रण रेखा और सीमावर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित रखा जाना चाहिये।

इसके साथ ही अशांत क्षेत्र कानून और विशेष सशस्त्र बल अधिकार कानून को जल्दी से जल्दी वापस लिया जाना चाहिये वर्ना हम कश्मीरी अवाम का दिल कभी भी नहीं जीत पायेंगे। सेना और सुरक्षा बलांे पर लगने वाले मानव अधिकारांे के उल्लंघन की जांच किसी विश्वसनीय एजंसी या न्यायिक समिति से कराकर दोषियों को ना केवल कड़ी सज़ा दी जाये बल्कि ऐसी व्यवस्था हो जिससे बार बार इस तरह की अमानवीय घटनाओं को दोहराया ना जा सके। अब तक जिस तरह से हमारी सरकार ने कश्मीर को एक राज्य ना मानकर एक कॉलोेनी और द्वीप मानकर सभी कश्मीरियों के खिलाफ उनके धर्म के आधार पर दुष्प्रचार, चुनाव में कई बार खुली धंाधली, चुनी हुयी सरकारों की बर्खास्तगी, चापलूसों की ताजपोशी, जननेताओं की अवैध गिरफ़तारी, कठोर जनविरोधी कानून, युवाओं की अवैध हिरासत और मानव अधिकारों का उल्लंघन कर मनमानी की है उसको युवाओं को बड़े पैमाने पर रोज़गार, जम्मू और लद्दाख़ के साथ न्याय और तीनों क्षेत्रों के लिये अलग अलग स्वायत्त विकास परिषद बनाकर इस मसले को काफी हद तक हल किया जा सकता है।

क़रीब आओ तो हमको समझ सको शायद,

ये फ़ासले तो ग़लतफ़हमियां बढ़ाते हैं।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

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