स्वामी शंकराचार्य जी के महान कार्य

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ओ३म्

स्वामी शंकराचार्य जी की जयन्ती पर-

-मनमोहन कुमार आर्य

स्वामी शंकराचार्य जी की आज जयन्ती बताई जाती है। जन्म तो वर्ष में किसी एक दिन सबका हुआ करता है परन्तु उनकी मनायी जाने वाले जयन्ती का दिन और वह भी उनका जो 400-500 व उससे भी अधिक समय पूर्व उत्पन्न हुए हों, निश्चय से ठीक ठीक कहा व बताया नहीं जा सकता। जो परम्परा स्थापित हो जाती है उसी को सब मानते व पालन करते हैं। हमें लगता है कि इसमें कोई विशेष बुराई भी नहीं है। इस सत्य अथवा असत्य तिथि पर वर्ष में एक दिन तो कम से कम उन महापुरुषों को याद कर ही लिया जाता है। हम भी आज अपने समय की महान हस्ती स्वामी शंकराचार्य जी को याद कर उनके एकाधिक महान कार्यों को स्मरण कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहते हैं। यदि वह न हुए होते तो वैदिक धर्म व संस्कृति का जो स्वरूप आज हमारे सामने है, वह कदापि न होता। अनुमान व भय है कि संसार में नास्तिकता का साम्राज्य होता। हमारे सभी वेदादि ग्रन्थ नष्ट हो जाते व कर दिये जाते और अहिंसा पर आधारित नास्तिक मत व मतों को भी विदेशी मत हिंसा आदि के प्रयोग द्वारा निगल जाते। इतिहास इस बात का प्रमाण है। इस दृष्टि से हमें स्वामी शंकराचार्य जी के नास्तिक मतों पर प्रहार व शास्त्रार्थ का महत्व विदित होता है। हम उनकी ज्ञान, योग्यता व कार्य की सराहना करते हैं और उनको स्मरण कर उनको नमन करते हैं।

 

आदि शंकराचार्य जी का जन्म केरल प्रदेश के कलाडी गांव में आज से लगभग 2526 वर्ष पूर्व सन् 509 (बीसीई) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अल्पायु में ही आपके पिता का देहान्त हो गया था। आपका पालन पोषण आपकी माता जी ने किया। हमें लगता है कि उन दिनों ब्राह्मणों का एकमात्र कार्य वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करना ही होता था। गुरु से अध्ययन करते हुए संवाद, वार्तालाप व विवेच्य विषयों पर परस्पर व दूसरों से शास्त्रार्थ हुआ करते थे। इससे बौद्धिक योग्यता बढ़ने के कारण सत्य के ज्ञान वा निर्णय में सहायता मिलती थी। स्वामी शंकराचार्य जी की मृत्यु 32 वर्ष की आयु में सन् 477 (बीसीई) में हुई। तीव्र बुद्धि के धनी स्वामी शंकराचार्य जी ने अपना शास्त्रीय अध्ययन अल्प समय में ही पूरा कर लिया था। स्वामी जी के समय देश में बौद्धमत व जैनमत का विशेष प्रभाव था। इन मतों व इनके आचार्यों ने वैदिक धर्म का त्याग कर दिया था। कारण था वैदिक धर्म में अज्ञानता व अन्धविश्वास आदि का समावेश एवं यज्ञों में पशुओं की हिंसा आदि का धर्म विरुद्ध कार्य। यज्ञों में पशुओं की हत्या के विरोध में लगभग 3000 वर्ष पूर्व बौद्ध व जैन मतों की स्थापना इस देश में हो गई थी। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी जी का व्यक्तित्व आकर्षक एवं प्रभावशाली होने के कारण लोग उनके उपदेशों से प्रभावित हुए व उन्होंने वैदिक धर्म का त्याग कर इन मतों को स्वीकार कर लिया था। प्राचीन आर्य व वैदिक धर्मी ईश्वर के उपकारों व स्वरूप का ध्यान करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते थे। वेद और वैदिक धर्म के विरोध के कारण इन मतों के आचार्यो ने वैदिक विधि से पूजा त्याग कर उसके विकल्प के रूप में अपने आदि आचार्यं महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी की मूर्तियां बनाकर उनका ध्यान करना आरम्भ कर दिया। यह घ्यान नहीं दिया गया कि पाषाण व धातु की मूर्ति तो जड़ पदार्थ है। मूर्ति पूजा द्वारा संसार से जा चुके आचार्यों का ध्यान करके कुछ लाभ नहीं होगा। वह तो पुनर्जन्म की व्यवस्था से गुजर रहे होंगे। आज तक कोई यह सिद्ध नहीं कर सका कि मूर्तिपूजा करने से किसी के ज्ञान व सामर्थ्य में वृद्धि होती है, व कोई अन्य लाभ होता है, जबकि वैदिक विधि से ईश्वर व उसके कार्यों एवं उपकारों का ध्यान करने से ईश्वर का साक्षात्कार होता है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वामी दयानद जी थे।

 

स्वामी शंकराचार्य जी ने इस मूर्तिपूजा व इन मतों के अवैदिक कृत्यों का विरोध किया था। उन्होंने उन दिनों उज्जैन नगरी के एक निष्पक्ष व सत्य प्रिय राजा सुधन्वा को सत्य धर्म के निर्णयार्थ जैन मतों के आचार्याें से शास्त्रार्थ आयोजित कराने का आग्रह किया। सत्यप्रिय राजा ने आग्रह स्वीकार कर लिया और विद्वान होने के कारण स्वयं ही उस शास्त्रार्थ की मध्यस्थता व निर्णायक की भूमिका निभाई। स्वामी शंकराचार्य जी का मत था कि संसार में केवल एक सत्ता ईश्वर ही है जो सर्वव्यापक, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, नित्य, अनादि, अजन्मा, सच्चिदानन्द आदि गुणों से युक्त है। जीव को अपने अस्तित्व का स्वतन्त्र बोध भ्रान्ति के कारण होता है। यह जो प्रकृति दिखाई देती है इसका भी अस्तित्व नहीं है। यह भी ईश्वर के ही अधीन उसकी माया है जो उससे भिन्न नहीं अपितु ऐसा आभाष होता है जो सत्य नहीं है। ऐसी युक्तियां वैदिक धर्म की ओर से लेकर स्वामी शंकराचार्य जी मैदान में उतरे थे। दूसरी ओर नास्तिक जैन मत के आचार्य थे जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते थे। उन्हें स्वामी शंकराचार्य जी की मान्यता का खण्डन और स्वमत का मण्डन करना था। स्वामी जी अपने मत के मण्डन व जैन मत के खण्डन में सफल हुए तथा जैन मत के आचार्य स्वमत के मण्डन व अद्वैत मत के खण्डन में सफल नहीं हुए। ऐसा होने पर राजा सुधन्वा की आज्ञा हुई कि सभी प्रजा को स्वामी शकराचार्य जी के अद्वैत मत को स्वीकार कर उसका पालन करना होगा। उज्जैन राजा के इस आदेश को अनेक राजाओं ने स्वीकार कर लिया जिससे देश में वैदिक धर्म पुनः स्थापित हो गया। इस प्रकार से जैनमत का पराभव भी स्वामी शंकराचार्य जी के समय में हो गया था।

 

स्वामी शंकराचार्य जी को राज्य की ओर से प्रचार आदि के सभी साधन उपलब्ध कराये गये। उन्होंने देश भर में प्रचार किया और देश की चारों दिशाओं में धर्म प्रचारार्थ चार मठों की स्थापनायें की। स्वामी शंकराचार्य जी बहुत बड़े विद्वान थे। उनके सामने कोई विद्वान उनसे तर्क नहीं कर सकता था। उनके जीवन काल में किसी का उनसे उनके मत के विरोध में शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं हुआ। सर्वत्र वैदिक धर्म की स्थापना हो गई। वैदिक धर्म का परचम विश्व में फहराने लगा। स्वामी शंकराचार्य जी देश भर में धर्म प्रचार कर रहे थे। दो कुटिल जैनी मतानुयायी उनके शिष्य बन गये। स्वामी जी का विश्वास उन्होंने प्राप्त कर लिया। अवसर पाकर उन्होंने उनके भोजन में विष मिला दिया जिसके प्रभाव से कुछ काल बाद लगभग 32 वर्ष की आयु में वह अपने उत्तराखण्ड के केदारमठ में मृत्यु को प्राप्त हो गये। यदि उन्हें विष न दिया गया होता तो वह बहुत कार्य करते। देश के भाग्य में यह सौभाग्य नहीं था। इससे देश वंचित हो गया। स्वामी शंकराचार्य जी ने वेदान्त दर्शन, उपनिषदों तथा गीता का संस्कृत में अद्वैत मत की मान्यताओं के अनुरूप भाष्य किया है। कुछ अन्य ग्रन्थ भी लिखे हैं। जब तक वह धरती पर उपलब्ध हैं, उससे उनकी योग्यता का ज्ञान देशवासी करते रहेंगे। यह भी बता दें कि उनकी मृत्यु के लगभग 2302 वर्ष बाद गुजरात की मौरवी स्टेट के टकारा नामक ग्राम में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का जन्म हुआ। स्वामी जी के समय वेद प्रायः विलुप्त हो गये। यदि कहीं उनकी हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध भी थी तो भी वेदों का यथार्थ ज्ञान उस समय किसी पण्डित को नहीं था।

 

स्वामी दयानन्द जी ने वेदों की खोज कर व उसके बाद वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थों को गुरु विरजानन्द व अपनी विद्या से प्राप्त कर देश में उनका प्रचार प्रसार किया। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान के ग्रन्थ हैं और साथ ही यह सभी सत्य विद्याओं के ग्रन्थ भी हैं। वेदों में किसी प्रकार का अज्ञान व अन्धविश्वास नहीं पाया जाता और न ही कोई ज्ञान विरुद्ध मान्यता उनमें है। स्वामी दयानन्द जी ने स्वामी शंकराचार्य जी के मत को किंचित परिवर्तन के साथ स्वीकार किया है। अपने मत के समर्थन में स्वामी दयानन्द जी ने पर्याप्त हेतु व कारण भी दिये हैं। उनके सभी हेतु विद्वानों द्वारा स्वीकार्य, वेदानुकूल एवं अकाट्य हैं। आज का युग ऋषि दयानन्द की देन वैदिक त्रैतवाद अर्थात् तीन अनादि व अविनाशी सत्ताओं ईश्वर, जीव व सृष्टि का युग है। हम अनुभव करते हैं कि यदि आज स्वामी शंकराचार्य जी होते तो वह वैदिक त्रैतवाद को अवश्य स्वीकार करते क्योंकि सत्य का ग्रहण वा उसे स्वीकार करना ही विद्वानों का प्रमुख गुण व कसौटी होती है। सत्य को ग्रहण करने से मनुष्य व विद्वानों का सम्मान कम नहीं होता अपितु बढ़ता ही है। हम सभी भी तो अध्ययन व स्वाध्याय करते हुए अपनी अज्ञानता की बातों को छोड़कर पुस्तक में पढ़े गये सत्य ज्ञान को स्वीकार करते हैं। ऐसा ही धर्म में होना भी आवश्यक है।

 

स्वामी शंकराचार्य जी की जयन्ती पर हम उनको नमन करते हैं। उन्होंने अपने समय में देश से नास्तिकता को दूर करने का महद् कार्य किया था। इसका सुप्रभाव देश के भविष्य पर भी पड़ा। कुछ सीमा तक इसने स्वामी दयानन्द जी का कार्य भी सरल कर दिया था। यदि वह न आते तो स्वामी जी को वेदाध्ययन की सुविधा व वेद की प्राप्ति की हुई, वह सम्भवतः प्राप्त न होती। स्वामी शंकराचार्य जी की जयन्ती पर दोनों विद्वानों, संन्यासियों व देश व धर्म के रक्षकों को हमारा एक बार पुनः नमन। ओ३म् शम्.

 

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